चर्चित आदिवासी कवयित्री-निर्मला पुतुल की एक लंबी कविता. झारखण्ड से भारत के आदिवासी और वंचित समूहों की संस्कृति , जीवन संघर्ष और विकास के बरक्स विनाश की मौजूदा व्यवस्था को अनावृत्त करती, उम्मीद के स्वर की कविताएं नए यथार्थ को खोलती हैं. इन कविताओं से झाबुआ , मंडला,कवर्धा,सरगुजा, बस्तर, देवभोग, संथाल परगना  एक साथ अपने प्रतीकों बिम्बों में अभिव्यक्त होता है.

उतनी दूर मत ब्याहना, बाबा !

 

बाबा !

मुझे उतनी दूर मत ब्याहना,

जहाँ मुझसे मिलने जाने ख़ातिर

घर की बकरियाँ बेचनी पड़ें, तुम्हें।

 

मत ब्याहना उस देश में,

जहाँ आदमी से ज़्यादा

ईश्वर बसते हों।

जंगल, नदी, पहाड़ नहीं हों जहाँ,

वहाँ मत कर आना मेरा लगन।

 

वहाँ तो कतई नहीं

जहाँ की सड़कों पर,

मन से भी ज़्यादा तेज़ दौड़ती हों मोटर-गाड़ियाँ,

ऊँचे-ऊँचे मकान,

और दुकानें हों बड़ी-बड़ी।

उस घर से मत जोड़ना मेरा रिश्ता,

जिस घर में बड़ा-सा खुला आँगन न हो,

मुर्गे की बाँग पर जहाँ होती ना हो सुबह,

और शाम पिछवाड़े से जहाँ

पहाड़ी पर डूबता सूरज ना दिखे ।


मत चुनना ऐसा वर,

जो पोचाई और हंडिया में

डूबा रहता हो अक्सर,

काहिल, निकम्मा हो,

माहिर हो मेले से लड़कियाँ उड़ा ले जाने में,

ऐसा वर मत चुनना मेरी ख़ातिर।

 

कोई थारी, लोटा तो नहीं

कि बाद में जब चाहूँगी बदल लूँगी,

अच्छा-ख़राब होने पर।

 

जो बात-बात में

बात करे लाठी-डंडे की,

निकाले तीर-धनुष कुल्हाड़ी,

जब चाहे चला जाए बंगाल, आसाम, कश्मीर।

 

ऐसा वर नहीं चाहिए मुझे

और उसके हाथ में मत देना मेरा हाथ,

जिसके हाथों ने कभी कोई पेड़ नहीं लगाया,

फसलें नहीं उगाई जिन हाथों ने

जिन हाथों ने नहीं दिया कभी किसी का साथ,

किसी का बोझ नही उठाया।

 

और तो और

जो हाथ लिखना नहीं जानता हो “ह” से हाथ,

उसके हाथ में मत देना कभी मेरा हाथ।

 

ब्याहना तो वहाँ ब्याहना,

जहाँ सुबह जाकर

शाम को लौट सको पैदल।

 

मैं कभी दुःख में रोऊँ इस घाट,

तो उस घाट नदी में स्नान करते तुम

सुनकर आ सको मेरा करुण विलाप…..

 

महुआ का लट और

खजूर का गुड़ बनाकर भेज सकूँ सन्देश

तुम्हारी ख़ातिर,

उधर से आते-जाते किसी के हाथ

भेज सकूँ कद्दू-कोहड़ा, खेखसा, बरबट्टी,

समय-समय पर गोगो के लिए भी।

मेला हाट जाते-जाते

मिल सके कोई अपना जो

बता सके घर-गाँव का हाल-चाल,

चितकबरी गैया के ब्याने की ख़बर

दे सके जो कोई उधर से गुजरते

ऐसी जगह में ब्याहना मुझे।

 

उस देश ब्याहना

जहाँ ईश्वर कम आदमी ज़्यादा रहते हों,

बकरी और शेर

एक घाट पर पानी पीते हों जहाँ

वहीं ब्याहना मुझे !

 

उसी के संग ब्याहना जो

कबूतर के जोड़ और पंडुक पक्षी की तरह

रहे हरदम साथ,

घर-बाहर खेतों में काम करने से लेकर

रात सुख-दुःख बाँटने तक।

 

चुनना वर ऐसा

जो बजाता हों बाँसुरी सुरीली

और ढोल-मांदर बजाने में हो पारंगत।

 

बसंत के दिनों में ला सके जो रोज़

मेरे जूड़े की ख़ातिर पलाश के फूल।

 

जिससे खाया नहीं जाए

मेरे भूखे रहने पर

उसी से ब्याहना मुझे ।

 

 

निर्मला जी का एक संग्रह है “नगाड़े की तरह बजते शब्द”… अशोक सिंह ने संथाली से हिंदी में अनुदित किया है.

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