छत्तीसगढ़ की धरती पर फिल्माई गयी ‘चमन-बहार ‘को लेकर इन दिनों  सोशल मीडिया में छिड़ी बहस में अंचल के सुपरिचित पत्रकार और संस्कृतिकर्मी राजकुमार सोनी अपने विचार रख रहे हैं। उनका मानना है कि फिल्मकार को छूट होनी चाहिए  अपनी कृति की अपने तरह से अभिव्यक्ति की।

राजकुमार सोनी

यह जो कथित सभ्य समाज का बौद्धिक तबका है वह ठेले-ठाले पर खड़े होकर गरीबी-गुरबत में जीने वाले लड़को को कीड़ा-मकोड़ा और अभद्र ही समझता है, लेकिन मैं उन्हें ऐसा नहीं समझता.

अड्डेबाजी में मौजूद रहने लड़के बहुत से लोगों की नजरों आवारा, गुंडे, छिछोरे और मवाली होते हैं. लेकिन मेरी नजर असली मवाली तो मोदी के भक्त हैं.

अड्डे पर खड़े होने वाले लड़के की एक कहानी होती है. जरूरी नहीं है कि हर कहानी अमीर घरों के एसी रुम से ही निकले.

फिल्म में जो भी संवाद है वह कस्बाई मानसिकता को केंद्र में रखकर लिखे और बोले गए हैं. अब कस्बे के अड्डे में आप स्वयंसेवी संस्था का हेड बनकर भाषा की पवित्रता खोजेंगे तो कोई क्या कर सकता है ?

दो बातें एक साथ नहीं हो सकती. या तो पवित्रता होगी या फिर पाखंड होगा. पाखंड वाली पवित्रता नहीं हो सकती.

दिक्कत यह है कि पूरी दुनिया में नए मुहावरे और शिल्प के स्तर पर हो रहे बेहतर कामों को पाखंडी लोग अपने बनाए हुए फ्रेम से ही देखते हैं. ऐसे सभी पाखंडियों को कहना चाहता हूं- फिल्म कोई ईंट का सांचा होती नहीं जो आपके बनाए हुए फ्रेम हिस्सा बन जाएगी. हर फिल्म में बंद मुठ्ठी और फ्रेम में तय की गई नारेबाजी नहीं देखनी चाहिए. मैं अड्डे में खड़े रहने वाले लड़कों से यह अपेक्षा नहीं पालता कि वे पान खाने के पहले या सिगरेट पीने के पहले नागार्जुन की कविता पढ़े.

कई बार फिल्म को यह सोचकर भी देख लेना चाहिए कि जो कुछ भी घट है वह क्यों घट रहा है?

अरे…कस्बे में यह सब घट रहा था और हम बेवकूफ मोदी के चक्कर में उलझे हुए थे. संवेदना की भी अपनी जगह और गुजाइंश बनी रहनी चाहिए. महिलाओं की मुक्ति के लिए वाहिनी खोलने वाले इस फिल्म के उस आंटी की बात ही नहीं कर रहे हैं जो फिल्म के नायक को थाने से निकालकर खुली जीप में बिठाकर शहर घुमाती है. यह कैरेक्टर भी एक सशक्त नेत्री का करेक्टर है. यहां मुक्ति वाहिनी और मोर्चे की डिमांड पूरी होती है… लेकिन उन्हें दिक्कत यह कि हिरोइन ने क्यों कुछ नहीं बोला ? लोग उसका पीछा क्यों करते हैं ?

हमने जो कुछ भी अपने संघर्षों से पाया है तो हम वैसा सोचते हैं, लेकिन अक्सर हम यह नहीं सोचते कि एक बड़ा वर्ग क्या सोचता है. हम लेखक बन जाते हैं. कलाकार बन जाते हैं सामाजिक कार्यकर्ता बन जाते हैं. नहीं बन पाते तो सिर्फ़ जनता की भाषा और भावना.

हम लिखते तो है लेकिन हमारा लिखा हुआ चुपचाप चला जाता है. हम सृजन करते हैं लेकिन कोई हलचल नहीं मचती. हमें यह अवश्य सोचना चाहिए कि हम सब भी दस-बीस सौ पचास लेखकों से ही क्यों घिरे हुए हैं. हम जनता के बीच क्यों नहीं है ? हमें जनवाद का ऐसा कंबल भी नहीं ओढ़ना चाहिए जिसमें छेद ही छेद हो.

अब जो सिनेमा बन रहा है उसकी भाषा बदल चुकी है. मुहावरा बदल चुका है. अगर नेटफ्लिक्स और एमेजॉन में उपलब्ध अन्य फिल्में देखेंगे तो पाएंगे कि चमन-बहार लाख गुना बेहतर है. अब हमें सिंगल थियेटर की सोच बदल देनी चाहिए. अब सिनेमा आपके घर के हर कमरे में घुस आया है.

पुरुषवादी सोच…महिलावादी सोच का कोरस चलता रहे, लेकिन इस वर्ग भेद से इतर कभी-कभी इंसानी सोच…उसकी संवेदना का समूह गान भी होना चाहिए.

– राजकुमार सोनी

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