माधवराव सप्रे -150 वीं जयंती पर एक स्मरण
रमेश अनुपम (रायपुर)
खड़ी बोली, हिंदी पत्रकारिता, हिंदी कहानी और छत्तीसगढ़ राज्य की ओर से माधवराव सप्रे को उनकी 150 वीं जयंती पर सादर नमन करते हुए मैं उन पर केंद्रित आलेख प्रारंभ कर रहा हूं।
विश्वास कर पाना मुश्किल है कि बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जब खड़ी बोली और हिंदी पत्रकारिता दोनों ही अपने पावों पर ठीक से खड़ी भी नहीं हो पाई थी, ऐसे विकट समय में माधवराव सप्रे किस तरह से कभी ‘ छत्तीसगढ़ मित्र ’ के माध्यम से तो कभी ‘ हिंदी ग्रंथ माला ’,’ हिंदी केसरी ’ तथा ‘ कर्मवीर ’ के माध्यम से ब्रितानवी हुकूमत को ललकारने का साहस कर रहे थे। अपनी पत्रकारिता के माध्यम से गहरी नींद में सोये हुए हिंदी समाज को जागृत करने का प्रयत्न कर रहे थे।
माधवराव सप्रे सरकारी नौकरी का प्रलोभन पहले ही ठुकरा चुके थे। जिसके भीतर स्वराज्य की अग्नि प्रज्वलित हो रही हो, जिसकी आंखों में देश की स्वतंत्रता की चाह ज्वालामुखी की तरह धधक रही हो, उसे कैसे कोई प्रलोभन लुभा सकता है।
सन 1900 में ‘ छत्तीसगढ़ मित्र ’ के माध्यम से जो नवजागरण का कार्य उन्होंने प्रारंभ किया था, उसके बंद होने के मात्र तीन वर्ष उपरांत ही एक नई जगह नागपुर से ‘ हिंदी ग्रंथ माला ’ का शंखनाद कर देना कोई साधारण घटना नहीं है।
अपना घर द्वार छोड़कर पेंड्रा और रायपुर से कोसों दूर विदर्भ की धरती से एक बार फिर से स्वराज्य का अलख जगाने का सपना माधवराव सप्रे जैसे क्रांतिवीर ही देख सकते थे।
नागपुर से ‘ हिंदी ग्रंथ माला ‘ का प्रकाशन हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में एक युगांतकारी घटना है। इस पत्रिका में सबसे पहले जान स्टुअर्ट मिल का सुप्रसिद्ध लेख ‘ On Liberty ‘ का महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद ‘ स्वाधीनता ‘ के नाम से प्रकाशित किया गया, जिसके चलते माधवराव सप्रे अंग्रेजों की आंख की किरकिरी बन गए।
इसके बाद सन 1907 में माधवराव सप्रे का बहुचर्चित लेख ‘ स्वदेशी आंदोलन ‘ और बायकॉट ‘ का प्रकाशन हुआ जिसके फलस्वरूप ‘ हिंदी ग्रंथ माला ‘ देश की स्वाधीनता के लिए मर मिटने वालों की प्रिय पत्रिका बन गई।
सन 1908 में ‘ स्वदेशी आंदोलन ‘ और ‘ बायकॉट ‘ को पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित किया गया। पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित होते ही यह अंग्रेज सरकार द्वारा जब्त कर ली गई।
अंग्रेजों ने न केवल इसे जब्त किया वरन ‘ हिंदी ग्रंथ माला ‘ के प्रकाशन पर भी प्रेस एक्ट की धाराओं के तहत रोक लगवा दी।
सन 1908 में ही ‘ हिंदी ग्रंथ माला ‘ द्वारा दो और किताबों का भी प्रकाशन किया गया। महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा अनूदित ‘ स्वाधीनता ’ और ‘ महारानी लक्ष्मीबाई ’। ये दोनों ही किताबें अंग्रेज सरकार को खतरनाक प्रतीत हुई। सो ‘ हिंदी ग्रंथ माला ‘ पर अंग्रेज सरकार का गाज गिरना स्वाभाविक ही था।
‘ हिंदी ग्रंथ माला ‘ पत्रिका तब तक हिंदी समाज में काफी लोकप्रिय हो चुकी थी। यह उस समय स्वाधीनता की अलख जगाने वाली एक निर्भीक पत्रिका साबित हुई। इसका वार्षिक मूल्य तीन रुपया रखा गया था तथा उस समय इसके नियमित ग्राहकों की संख्या लगभग तीन सौ के आसपास थी।
इस पत्रिका के चाहने वालों में अयोध्या सिंह उपाध्याय, पंडित श्रीधर पाठक, पद्य सिंह शर्मा तथा महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे साहित्यकार प्रमुख थे।
आलेख- रमेश अनुपम