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Friday, March 29, 2024
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क्या होगा छत्तीसगढ़ में ? सरकार बनाये रखने की जुगत में भविष्य दांव पर !!

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राजनीतिक रिश्तों की दरार और पार्टी, सरकार का भविष्य

दिवाकर मुक्तिबोध की कलम से

 
इन दिनों छत्तीसगढ़ कांग्रेस की राजनीति में नेतृत्व की लड़ाई में जो कुछ घट रहा है वह प्रदेश में पार्टी के भविष्य की दृष्टि से ठीक नहीं हैं। उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि आंतरिक झगडे व घात-प्रतिघात की वजह से पार्टी ने अपना बहुत नुकसान किया तथा वह पन्द्रह वर्षों तक सत्ता से बाहर रही। 

 

अगर 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा अपने ही कर्मों के भार से भरभराकर गिरी न होती तो कांग्रेस को ऐसा प्रचंड बहुमत न मिल पाता जो आज उसके पास है। इसलिए उसे बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि सत्ता के आंतरिक संघर्ष को टाला जाए और महत्वाकांक्षाओं व अहम को परे रखते हुए एकजुट होकर सुप्रबंधन के जरिए बचे हुए समय में ऐसे काम किए जाए ताकि लोगों को भरोसा हो कि उन्होंने भारी बहुमत से कांग्रेस को सत्ता सौंपकर कोई गलती नहीं की है। यह उनके प्रति पार्टी की जवाबदेही है। लेकिन पिछले चंद महिनों से मुख्यमंत्री भूपेश बघेल व उनके कैबिनेट मंत्री टीएस सिंहदेव के बीच जो रस्साकशी चली हुई है उससे यकीनन अच्छा संदेश नहीं जा रहा है।
ताजा घटनाक्रम से यद्यपि अब यह स्पष्ट हो गया है कि भूपेश बघेल मुख्यमंत्री बने रहेंगे और प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन नहीं होगा किंतु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जब तक टीएस सिंहदेव को संतुष्ट नहीं किया जाएगा, अंगारे धधकते ही रहेंगे। अभी तो विशेष नहीं पर चुनाव के कुछ पूर्व पार्टी को इसकी बेतहाशा तपन महसूस होगी।
भूपेश बघेल के नेतृत्व में जो सरकार ढाई साल से अच्छी तरह से चल रही थी और जिसने अपने कामकाज से, अपनी लोककल्याणकारी योजनाओं से ग्रामीण छत्तीसगढ़ में विश्वास का एक वातावरण निर्मित किया, उसे पार्टी की आंतरिक राजनीति के कथित फार्मूले में उलझाना अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है। एक तो हाईकमान से मुख्यमंत्री चयन के समय पहली गलती यह हुई कि उसे उस समय भूपेश बघेल व टीएस सिंहदेव के बीच दो टूक फैसला करना चाहिए था जो नहीं हुआ। उसने दोनों दावेदारों को साधने की कोशिश की। वैसे बघेल मुख्यमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार थे क्योंकि प्रदेशाध्यक्ष के रूप में चुनाव उनके नेतृत्व में लडा गया और भारी बहुमत से जीता गया था। अतः किसी और नाम पर हाईकमान को विचार करने की जरूरत नहीं थी। फिर भी यदि संतुष्ट करने की गरज ही थी तो पहले ढाई वर्ष के लिए टीएस सिंहदेव को अवसर दिया जाना चाहिए था। भूपेश बघेल प्रदेशाध्यक्ष बने रहते व टीएस का कार्यकाल खत्म होने के बाद वे मुख्यमंत्री बनते। लेकिन बघेल के नाम पर पहली मोहर लग गई। लिहाजा उन्हें राजनीतिक रूप से खुद को ताकतवर बनाने व सिंहदेव को कमजोर करने का मौका मिल गया और इसका उन्होंने भरपूर फायदा भी उठाया। अब उनके पास संख्या बल है और यही उनकी राजनीतिक ताकत व कूटनीतिक सफलता भी है।
बहरहाल पिछली घटनाओं के बाद उनके व टीएस सिंहदेव के बीच कटुता के बीज पड गए जो अब पल्लवित हैं व बहुत खुले तौर पर दिखाई दे रहे हैं। माना जाना चाहिए इसकी शुरुआत 17 दिसंबर 2018 को मुख्यमंत्री के शपथग्रहण के दिन से ही हो गई थी जब कथित फार्मूले की चर्चा होने लगी। हालांकि यह खबर उडने के बाद प्रदेश प्रभारी पी एल पुनिया बार बार राग अलापते रहे कि ऐसी कोई बात नहीं है। ऐसा कोई फार्मूला शीर्ष नेतृत्व ने नहीं दिया है। फिर भी यह बात चलती रही। टीएस भी इस मामले में मीडिया को गोलमोल जवाब देते रहे पर इसके बावजूद उनके संकेत समझ में आ रहे थे कि ऐसी कोई खिचडी पकी जरूर है। अगर ऐसा न होता तो 26-27अगस्त को नई दिल्ली में सरकार के मंत्रियों व बहुसंख्य कांग्रेस विधायकों को बुलाकर भूपेश बघेल के समर्थन में शक्ति प्रदर्शन की आवश्यकता नहीं थी। इसी तरह न तो टीएस सिंहदेव को वायदा निभाने के लिए दबाव बनाने और न ही भूपेश बघेल को हाईकमान के समक्ष प्रदेश की राजनीतिक परिस्थितियों व भविष्य की संभावनाओं पर अपना पक्ष मजबूती के साथ रखने की जरूरत थी। कैबिनेट मंत्री सिंहदेव सत्ता हस्तांतरण के मुद्दे को अंतिम पायदान तक ले गए तो इसका अर्थ है 2018 में कांग्रेस के चुनाव जीतने के बाद मुख्यमंत्री कौन बनेगा के सवाल पर टीएस को जरूर कोई आश्वासन दिया गया होगा वरना एक छोटे प्रदेश के मंत्री को बातचीत के लिए दिल्ली आमंत्रित करने की आवश्यकता नहीं थी।
28 अगस्त की रात दिल्ली से रायपुर लौटने के बाद टीएस सिंहदेव ने मीडिया से बातचीत के दौरान जो कहा , वह भी गौर करने लायक है। उससे यह ध्वनि निकलती है कि वे अभी भी आशान्वित हैं। उन्होंने कहा कांग्रेस हाईकमान ने फैसला कर लिया लेकिन उसे लागू करने में कुछ समय लग सकता है। उनके इस कथन से क्या यह निष्कर्ष निकाला जाए कि देर सबेर सरकार की कमान उनके हाथ में आएगी या फिर केन्द्रीय नेतृत्व ने उनके लिए संगठन में कोई नई भूमिका तलाश ली है और इससे वे संतुष्ट हैं ? अभी इस बारे में दावे के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता अलबत्ता स्थिति शायद चंद दिनों में स्पष्ट हो सकती है।
वैसे अधिक संभावना टीएस के लिए नई भूमिका की है। क्योंकि हाईकमान के सामने यह अच्छी तरह स्पष्ट हो गया है कि भूपेश बघेल को करीब करीब सभी विधायकों का समर्थन है जिसकी झलक 27 जुलाई को रायपुर सीएम हाउस में विधायक बृहस्पत सिंह प्रकरण पर चर्चा के लिए आयोजित बैठक में व 27 अगस्त को पार्टी के केंद्रीय कार्यालय दिल्ली में मिल चुकी है। बहुमत का समर्थन तो खैर अपनी जगह महत्वपूर्ण तो है ही, पर कांग्रेस के लिए अधिक महत्वपूर्ण है अगला विधानसभा चुनाव जो नवंबर-दिसंबर 2023 में होगा और यदि वह बघेल के नेतृत्व में लडा जाएगा तो पुनः जीतने की शतप्रतिशत संभावना रहेगी। इसलिए हाई कमान टीएस से किए गए कथित कमिटमेंट को पूरा करने की स्थिति में नहीं दिख रहा है।
बहरहाल कोई फार्मूला था या नहीं इस पर सिर खपाने के बजाए ज्यादा महत्वपूर्ण है जमीनी हकीकत से वाकिफ होना। भूपेश बघेल ने बीते ढाई वर्षों में अपने व्यवहार से, अपने कामकाज से व अपनी सदाशयता से ऐसी छवि गढ ली है जो लोगों विशेषकर ग्रामीण मतदाताओं को बहुत भाती है। सत्ता प्रमुख रहते हुए आम आदमी के मध्य आम आदमी बने रहने का यह व्यक्तिगत गुण तो हुआ पर सरकार के स्तर पर जो वे काम कर रहे हैं, उसकी वजह से उनकी व पार्टी की जडें मजबूत हो रही है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को कृषि, शिक्षा ,स्वास्थ्य व रोजगार से जोडने व उसे सुदृढ़ करने की दर्जनों योजनाएं तो हैं ही किंतु उनमें से कुछ तो अभिनव है जो छत्तीसगढ़ माडल के रूप में चर्चित है। प्रदेश की राजनीति में यह तथ्य मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को सर्वाधिक अंक इस वजह से भी देता है क्योंकि बघेल के रहते भाजपा को अपनी स्थिति सुधारने का कोई अवसर नहीं मिल रहा है। उसके लिए टीएस सिंहदेव ज्यादा मुफीद हैं जिनकी स्वभावगत सौम्यता, शालीनता व सह्दयता की चर्चा होती है पर राजनीति में प्रतिपक्ष से मुकाबला करने तथा नौकरशाही को काबू में रखने के लिए अन्य विशेषताओं की भी दरकार रहती है। इस दृष्टि से भूपेश बघेल खांचे में एकदम फिट हैं।
प्रदेश की राजनीति में अब क्या घटित होगा, यह संभवतः राहुल गांधी के अगले चंद दिनों में प्रस्तावित दौरे से होगा। हाईकमान को कोई न कोई निर्णय लेना होगा। बघेल व सिंहदेव के बीच तलवारें इसी तरह खीचीं हुई रहेंगी तो इसका दुष्परिणाम अलग अलग रूपों में प्रकट होता रहेगा। और जो संगठन के हित में नहीं होगा।

(रायपुर छत्तीसगढ़ निवासी दिवाकर मुक्तिबोध जी वरिष्ठ पत्रकार और चिंतक हैं )

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