शकील अख्तर

निजीकरण से चिकित्सा को भी लाभकारी व्यवसाय बनाने के खतरे अब समाज झेल रहा है।प्रस्तुत है
श्री शकील अख्तर का आलेख

अभी सभी बड़े अखबारों के पहले पेज के अपर हाफ ( उपरी हिस्से) में आठ कालम में प्राइवेट अस्पताल के विज्ञापन देखे तो दिल घबरा गया। अस्पतालों के ऐसे विज्ञापन! हालांकि यह नए नहीं हैं। पिछले काफी समय से एक एक बीमारी का नाम लेकर मरीजों को अस्पताल आने के लिए आकर्षित किया जा रहा था। जैसे कभी फुटपाथ पर गुप्त रोगों के इलाज का दावा करने वाले बैठे रहते थे, जो लड़कों को इशारों में बुलाकर अपने पास बिठा लेते थे। और फिर कान में उन्हें ज्ञान देते थे। ऐसे ही आजकल विज्ञापनों में डाक्टरों के फोटो लगाकर लोगों को बताया जा रहा है कि उन्हें यह यह बीमारी हो सकती है। और उसका गारंटी शुदा इलाज उनके यहां ही तसल्ली बख्श तरीके से किया जाता है।
काफी डरवाना सीन है। लगता है कल को श्मशान और कब्रिस्तानों के भी ऐसे ही विज्ञापन आएंगे। सर्वोत्तम व्यवस्था का दावा करते हुए कहा जाएगा कि हम अस्पताल से सीधे ही आपको उठा लेंगे। हो सकता है कुछ इससे भी आगे जाकर यह भी गारंटी देने लगें कि यहां अंतिम संस्कार करवाने वालों को सीधे स्वर्ग या जन्नत में पहुंचाने की भी व्यवस्था है।
निजीकरण बहुत भयावह रूप लेता जा रहा है। चिकित्सा का ऐसे विज्ञापन नैतिक रुप से तो गलत है ही, कानूनन भी अवैध हैं। आईएमए और एमसीआई (मेडिकल काउसिंल आफ इंडिया) के बिल्कुल साफ नियम है कि डाक्टर अपना विज्ञापन नहीं कर सकते। ऐसे ही अस्पताल के लिए भी नियम हैं। मगर आज तो अख़बार, टीवी के साथ सड़कों पर पर बड़े बड़े होर्डिंग लगाकर अस्पताल और डाक्टरों के विज्ञापन किए जा रहे हैं। बीमारी के नाम और इलाज का खर्चा बताया जा रहा है जो पूरी तरह गैर कानूनी है। शर्तिया इलाज तक के दावे किए जा रहे हैं। मगर कहीं इनके खिलाफ इनके खिलाफ कोई आवाज सुनाई नहीं देती है।
लगता है जिसकी लाठी उसकी भैंस का जमाना फिर वापस आ गया है। जब डाक्टरों को टर्र टर्र बोला गया और कहा गया कि किसके बाप में दम है कि बाबा को गिरफ्तार करे तब कोई नहीं बोला। और अब पैसे वाले जब डाक्टरों को विज्ञापन की वस्तु बना रहे हैं तब भी कोई नहीं बोल रहा। डाक्टरी कभी नोबल प्रोफेशन माना जाता था। डाक्टर अपने हाथ में फीस भी नहीं लेता था। या तो उसकी जेब में डाली जाती थी या कंपाउंडर या रिस्पेशन पर कोई लेने वाला बैठा होता था। और ऐसा नहीं है कि दूसरे प्रोफेशनों की तरह डाक्टरों को पैसे की कोई कमी आई हो या उनकी सामाजिक स्थिति कमजोर हुई हो। डाक्टर समय के साथ और मजबूत ही हुए हैं। जबकि उनके समकक्ष माने जाने वाले दूसरे प्रोफेशन इंजीनियरिंग का महत्व कम हुआ है। ऐसे ही बाकी और सामाजिक रुतबे वाले अन्य कामों जैसे कालेज, विश्वविद्यालय के शिक्षक, वकील, पत्रकार का भी कद कम हुआ, मगर सामाजिक रुतबे और पैसों के मामले में डाक्टर की स्थिति कमजोर नहीं हुई है।
लेकिन हां कार्यस्थल पर उसका प्रभामंडल अब वह चमक लिए हुए नहीं है। निजीकरण ने पूंजी को सबसे महत्वपूर्ण बना दिया। और जब पूंजी सबसे अहम हो गई तो उसकी रक्षा और वृद्धि के लिए मैनेजर आ गए। पहले जैसे अस्पताल का केन्द्र डाक्टर होता था अब उसकी वह भूमिका खत्म हो गई है। बड़े फैसले लेने के सारे काम मैनेजमेंट करता है। प्राइवेट अस्पतालों में डाक्टर अब सिर्फ मरीजों को बुलाने का चुबंक बन गया। मरीज एक बार खिंच कर चला आए तो फिर उसका क्या करना है यह फैसला अब इलाज और आपरेशन करने से इतर दूसरे लोगों के हाथों में चला गया।
अभी कोरोना के समय एक मरीज का बिल जब एक करोड़ अस्सी लाख आया तो तहलका मच गया। मगर कुछ नहीं हुआ। कोरोना की दूसरी लहर में तो लूट मच गई थी। लाखों का बिल सामान्य बात थी। बिलों में ऐसे ऐसे चार्ज लगाए जा रहे थे जो कभी सुने ही नहीं गए। लोग बर्बाद हो गए। मगर किसी अस्पताल के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। इन सब मामलों में एक जांच आयोग बैठना चाहिए था मगर कोई सामान्य स्तर पर भी जांच नहीं हुई।
कोरोना में सबसे ज्यादा पैसा मेडिकल व्यवसाय से जुड़े लोगों ने कमाया। चाहे प्राइवेट अस्पताल हों या दवा कंपनियां सबने जनता को भरपूर लूटा। कई राज्यों में तो मुख्यमंत्री, वहां के दूसरे मंत्री, अफसर सरकारी अस्पताल और मेडिकल कालेज के बदले प्राइवेट अस्पतालों में भर्ती रहे। जाहिर के सारे बिल सरकार ने दिए। इससे भारी सरकरी पैसा तो प्राइवेट अस्पतालों के पास पहुंचा ही। सरकारी अस्पताल और महत्वहीन साबित हो गए। एक तरफ वहां के डाक्टरों की प्रतिष्ठा घटी तो दूसरी तरफ प्राइवेट अस्पतालों की मार्केटिंग हुई। जब मुख्यमंत्री खुद प्राइवेट अस्पताल में कोरोना का इलाज करवाए और अस्पताल की तारीफें करे तो मध्यम वर्ग तो प्राइवेट अस्पतालों की तरफ भागेगा ही।
शिक्षा और चिकित्सा दो ऐसे क्षेत्र हैं जो प्राइवेट लोगों को बहुत पसंद हैं। इनमें बहुत ज्यादा पैसा तो है ही, लोगों की मजबूरी भी है कि इन दोनों के बिना उनका काम नहीं चल सकता। इनमें भी मेडिकल एक ऐसा क्षेत्र है जो शिक्षा और बिजनेस दोनों से जुड़ा हुआ है। प्राइवेट मेडिकल कालेजों में लाखों देकर एडमिशन होते हैं। किसी बड़े से बड़े नेता की सिफारिश काम नहीं करती। बस इतना होता है कि थोड़ी रियायत  दे दी जाती है मगर उपर से पैसे तो देना ही पड़ते हैं। एमबीबीएस के बाद पोस्ट ग्रेजुएशन ( एमडी, एमएस) में तो एडमिशन बहुत ही मुश्किल है। करोड़ों का डोनेशन मांगा जाता है। गरीब का बच्चा तो सोच भी नहीं सकता। इससे चिकित्सा क्षेत्र में काम कर रहे पूंजीपतियों को बड़ा फायदा है। उन्हें सस्ते एमबीबीएस डाक्टर मिल जाते हैं। सिर्फ एमबीबीएस डाक्टरों को सरकारी नौकरी तो मिलती नहीं। वहां सब जगह स्पेशलिस्ट (पीजी) मांगे जाते हैं। प्राइवेट अस्पताल वाले उन्हें कम वेतन पर रख लेते हैं। जहां उनसे चौदह और सोलह घंटे तक भी काम लिया जाता है।
नेहरु दूरंदेशी थे। इसीलिए एम्स बनवया। मेडिकल के क्षेत्र में उच्च शिक्षा और रिसर्च के लिए। आज भी दिल्ली सहित देश में इतने प्राइवेट अस्पताल खुल गए। सेवन स्टार होटलों की सविधाओं और चमक दमक वाले मगर एम्स के मुकाबले कोई पासंग भी नहीं है। लेकिन एम्स का यह दर्जा आगे भी बरकरार रह पाएगा कहना मुश्किल है। उसकी स्वायत्तता को धीरे धीरे कम किया जा रहा है। अब तो यह डर भी लगता है कि बाकी सरकारी चीजों की तरह किसी दिन उसे भी बेच नहीं दिया जाए।
एम्स के बनाने के साथ ही भारत में सरकारी चिकित्सा की सुविधाएं गांव गांव तक पहुंचाई गईं थीं। हर जगह प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और उप स्वास्थ्य केन्द्र खोले गए थे। बच्चों का सारा टीकाकरण अभियान उन्हीं के जरिए हुआ था। पूरी तरह मुफ्त। प्रसव के दौरान महिलाओं के मरने की संख्या कम हुई। लेकिन अब गांवों से भी सरकारी चिकित्सा सुविधाएं खत्म की जा रही हैं।
प्राइवेट को बढ़ावा देने में राजनीति का बड़ा हाथ रहा। वाजपेयी के समय नोएडा में एक बड़े प्राइवेट अस्पताल को शुरु करने आए केन्द्रीय मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने कहा था कि प्राइवेट चिकित्सा जनता के हित में है। लोगों को बेहतर इलाज मिलेगा। सरकारी अस्पतालों की अव्यवस्थाओं से छुटकारा मिलेगा। उसी समय हमने लिखा था कि अब प्राइवेट को बढ़ाने के लिए सरकारी सेवाओं को बदनाम करने का काम शुरू हो गया है। चिकित्सा को प्राइवेट में लाना सिर्फ गरीब की नहीं मध्यम वर्ग की भी कमर तोड़ देगा। आज मध्यम वर्ग के साथ उच्च मध्यम वर्ग भी इलाज के खर्चे बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है।

(शकील अख्तर  – अनुभवी पत्रकार तथा जनस्वास्थ्य पर कार्य कर चुके सामाजिक कार्यकर्ता हैं )

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