अम्बेडकर को कमज़ोर करने की कोशिशें नाकाम करें- आलेख- सुसंस्कृति परिहार

आजकल गांधी, नेहरू और भगवान राम की तरह भीमराव अम्बेडकर को भुनाकर उन्हें कमज़ोर करने की कोशिशें व्यापक तौर पर जारी हैं। मायावती हो या चन्द्रशेखर रावण अम्बेडकर जी की मूल भावना से हटकर उस गोद में बैठ कर उठापटक करते हैं जिनसे अंबेडकर की विचारधारा निर्मूल होती जा रही है। मायावती ने भाजपा की आज्ञाकारिता का परिपालन करते हुए अपने दाग इस तरह धोने की कोशिश की कि उनके दल बसपा का अस्तित्व ही समाप्त हो गया ।ऐसे बहुत से दलित संगठन हैं जो अपने निजी स्वार्थ के लिए अम्बेडकर जैसे महत्वपूर्ण नेता की बलि चढ़ाने में तत्पर हैं।
जय भीम’ का नारा लेकर आज जो कुछ हो रहा है उसे जानना ज़रूरी है सबसे पहले अंबेडकर आंदोलन के एक कार्यकर्ता बाबू हरदास एलएन (लक्ष्मण नागराले) ने 1935 में दिया था। बाबू हरदास सेंट्रल प्रोविंस-बरार परिषद के विधायक थे और बाबासाहेब आंबेडकर के विचारों का पालन करने वाले एक प्रतिबद्ध कार्यकर्ता थे।नासिक के कालाराम मंदिर में लड़ाई, चावदार झील के सत्याग्रह के कारण डॉ. अंबेडकर का नाम हर घर में पहुंच चुका था।इसके बाद महाराष्ट्र में डॉ. अंबेडकर ने जिन दलित नेताओं को आगे बढ़ाया, बाबू हरदास उनमें एक थे। रामचंद्र क्षीरसागर की पुस्तक दलित मूवमेंट इन इंडिया एंड इट्स लीडर्स में दर्ज है कि बाबू हरदास ने सबसे पहले ‘जय भीम’ का नारा दिया था.दलित पैंथर के सह-संस्थापक जेवी पवार कहते हैं, ”बाबू हरदास ने कमाठी और नागपुर क्षेत्र से कार्यकर्ताओं का एक संगठन बनाया था. उन्होंने इस बल के स्वयंसेवकों को नमस्कार, राम राम, या जौहर मायाबाप की जगह ‘जय भीम’ कह कर एक-दूसरे का अभिवादन करने और जवाब देने के लिए कहा था.”
पवार बताते हैं, “उन्होंने यह भी सुझाव दिया था कि जय भीम के जवाब में ‘बाल भीम’ कहा जाना चाहिए, जैसे मुसलमान ‘सलाम वालेकुम’ का जवाब देते समय ‘वलेकुम सलाम’ कहते हैं.

उनका बनाया रास्ता आदर्श बन गया. “पवार ने राजा ढाले, नामदेव ढसाल के साथ काम किया है और दलित पैंथर पर उनकी किताब भी प्रकाशित है।

उन्होंने यह भी कहा, “1938 में, औरंगाबाद ज़िले के कन्नड़ तालुका के मकरानपुर में आंबेडकर आंदोलन के कार्यकर्ता, भाऊसाहेब मोरे द्वारा एक बैठक आयोजित की गई थी. इस बैठक में डॉ बाबासाहेब आंबेडकर भी उपस्थित थे. बाबू हरदास ने यह नारा दिया था जबकि भाऊसाहेब मोरे ने इस नारे का समर्थन किया था।”

गुंडागर्दी करने वाले असामाजिक लोगों को नियंत्रण में लाने और समानता के विचारों को हर गाँव में फैलाने के लिए आंबेडकर ने समता सैनिक दल की स्थापना की थी।बाबू हरदास समता सैनिक दल के सचिव थे।आज की भीम आर्मी और समता सैनिक दल में ज़मीन आसमान का फ़र्क है।

दूसरी सबसे अहम बात यह है दलित इस बात पर नाज़ करते हैं कि अम्बेडकर जी ने संविधान लिखा है यह पूरी तरह गलत है वे उस संविधान समिति के अध्यक्ष थे जिनमें 300 से अधिक सदस्य थे। उन्हें संविधान निर्माता बताकर उनका कद बढ़ने के बजाय घटाने का उपक्रम जारी है वह बहस मुबाहिसे का हिस्सा बनता जा रहा है । हमें इस बात को समझना और समझाना होगा उनका कद इतना बड़ा था कि उन्हें संविधान निर्माण समिति का अध्यक्ष बनाया गया जो जरूर गर्व का विषय है इस बात पर गौर करिए तो यह सच भी सामने आ जाता है कि डॉ. अंबेडकर ने 25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में संविधान का अंतिम मसौदा प्रस्तुत करते हुए जो कहा, उसे भारत ने भुला दिया है. उन्होंने कहा था कि “जो श्रेय मुझे दिया जाता है, उसका वास्तव में मैं अधिकारी नहीं हूं. उसके अधिकारी बी एन राव हैं, जो इस संविधान के संवैधानिक परामर्शदाता है. और जिन्होंने मसौदा समिति के विचारार्थ संविधान का एक मोटे रूप में मसौदा बनाया. कुछ श्रेय मसौदा समिति के सदस्यों को भी मिलना चाहिए, जिन्होंने 141 दिन तक बैठकें कीं और उनके नए सूत्र खोजने के कौशल के बिना तथा विभिन्न दृष्टिकोणों के प्रति सहनशील तथा विचारपूर्ण सामर्थ्य के बिना इस संविधान को बनाने का कार्य इतनी सफलता के साथ समाप्त न हो पाता।यह जतलाता है कि संविधान निर्माण में एक बड़ी ,सजग और विद्वान टीम का अवदान था ।इतना बेहतरीन दुनिया का संविधान इस दौर में बनाया गया कि विख्यात कवियत्री सरला माहेश्वरी को कहना पड़ा—

यह मनुष्यता का गान है /भाईचारे का मान है /समानता की धरती यह/बस एक यही सहारा है ।

अंबेडकर का अनोखा योगदान यह है कि उन्होंने जाति और वर्ण के द्वैत की अद्वैतता , इनके रूप में अलग अलग होने और उसी के साथ सार में एक सा होने को समझा और दोनों ही तरह के शोषण के खिलाफ लड़ाई को ही सामाजिक मुक्ति की गारंटी माना। अपनी पहली राजनीतिक पार्टी – इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी, – जिसका झंडा लाल था, के घोषणापत्र में उन्होंने साफ़ साफ शब्दों में कहा था कि “भारतीय जनता की बेडिय़ों को तोडऩे का काम तभी संभव होगा जब आर्थिक और सामाजिक दोनों तरह की असमानता और गुलामी के खिलाफ एक साथ लड़ा जाये।” मनु की किताब जलाने और गांधी जी से तीखी बहस करने के बीच वे ट्रेड यूनियन बनाने और मजदूरों की लड़ाई लड़ने का भी समय निकाल लेते थे। आज मनुवादियों के साथ दलित , शोषित जुटकर अपने कल्याण की बात जब करते हैं तो अंबेडकर की आत्मा कितनी दुखी होती होगी?

मार्क्सवादी विचारक बादल सरोज लिखते हैं कि पिछले साल ही बाबा साहेब बहुत शिद्दत से याद आये जब ये खबर पढ़ी कि मोदी सरकार ने काम के घंटे 8 से बढ़ाकर 12 करने के लिए फैक्ट्रीज एक्ट की धारा 51 में संशोधन करने का फैसला ले लिया है। यह वही क़ानून है जिसे वायसरॉय की कौंसिल के लेबर मेंबर के रूप में 27 नवम्बर 1942 को बाबा साहेब ने प्रस्तुत किया था। इस देश में पहली बार 8 घंटे के काम को कानूनी दर्जा मिला था। करोड़ों श्रमिक 12-14-16 घंटे काम की मजबूरी से आजाद हुए थे। भारत में न्यूनतम वेतन का क़ानून भी उसी दौरान उन्ही के लेबर मेंबर – श्रम मंत्री के समकक्ष पद – रहते हुए बना। मैटरनिटी लीव, महिला कामगारों के लिए सामान वेतन, महिला और बाल श्रमिकों के संरक्षण के क़ानून तभी बने। भूमिगत कोयला खदानों में काम करने वाले मजदूरों के क़ानून तभी बने। आज जब इन सबको छीनने और पूरी बेशर्मी के साथ मेहनतकशों को कारपोरेट की शार्क और व्हेल मछलियों के सामने फेंकने की साजिशें हो रही हैं ; बाबा साहेब प्रासंगिक भी हैं, आंदोलनों के हमसफ़र भी हैं।

पंडित जवाहरलाल नेहरू सहित – वे अकेले थे जिन्होंने महिला मुक्ति की लड़ाई के सवाल को हमेशा प्राथमिकता में रखा – उसके लिए जूझे भी। इसके लिए नेहरू की कैबिनेट भी छोड़ी मगर समर्पण या समझौता नहीं किया। 1951 में हिन्दू कोड बिल को संसद में रखते हुए और बाद में जबाब देते हुए बाबा साहेब के भाषण इन बेड़ियों और इन्हे धार्मिक आवरण पहनाने की साजिशों के खिलाफ आज भी प्रासंगिक है – बल्कि आज पहले की तुलना में ज्यादा प्रासंगिक हैं क्यों कि आज सारी लाज शर्म, दिखावटी मर्यादा ताक पर रखकर चिन्मयानद, कुलदीप सेंगर, आसाराम और गुरमीत राम रहीम नए आराध्य बनाये जा रहे हैं। जाति के शोषण का झंडा स्त्री की देह में गाड़ा जा रहा है। जेएनयू की आइशी घोष ही नहीं जामिया-एएमयू और टिस्स की लडकियां भी उनकी आईटी सैल के निशाने पर हैं। पढ़ती लिखती युवा स्त्रियां उन्हें खल रही हैं – वे उन्हें दड़बे में बंद कर देना चाहते हैं। ऐसे में बाबा छोड़ी के बिना इस लड़ाई को जीतना कठिन होगा। बाबा छोड़ी ने कहा था कि हर नागरिक एक स्त्री की गोद में पलकर बड़ा होता है – नारी ही देश और उसके नागरिक बनाती है।

नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री आमर्त्य सेन ने कहा “डॉ. अंबेडकर अर्थशास्त्र के विषय मे मेरे पिता हैं”. सन 1917 में पीएचडी. शोध पूरा कर पाए, उनकी एमए. की थीसिस का विषय ‘प्राचीन भारतीय वाणिज्य’ (Ancient Indian Commerce) था, जो कि प्राचीन भारतीय वाणिज्य के प्रति उनकी समझ को दर्शाता है, इस थीसिस में उन्होंने प्राचीन भारतीय वाणिज्य की समस्याओं को रखा तथा उनके संभावित कारगर समाधान भी बताए।

उनका आदर्श समाज एक ऐसा समाज था जो आजादी, बराबरी और भाईचारे पर आधारित हो। धर्माधारित राष्ट्र की समझदारी को वे देश की एकता के लिए ही नहीं मनुष्यता के लिए भी ख़तरा मानते थे। सबसे बड़ी बात तो ये थी कि वे जाति का विनाश करके भारत में जातिविहीन और वर्गविहीन समाज की स्थापना करना चाहते थे डॉ. अंबेडकर ने जो भी राजनैतिक पार्टियाँ बनायीं वे जातिगत पार्टियाँ नहीं थीं क्योंकि उन के लक्ष्य और उद्देश्य व्यापक थे। यह बात सही है कि उनके केंद्र में दलित थे परन्तु उन के कार्यक्रम व्यापक और जाति निरपेक्ष थे। वे सभी कमज़ोर वर्गों के उत्थान के लिए थे। इसी लिए जब तक उन द्वारा स्थापित की गयी पार्टी आरपीआई उन के सिद्धांतों और एजंडा पर चलती रही तब तक वह दलितों, मजदूरों और अल्पसंख्यकों को एकजुट करने में सफल रही। जब तक उन में आन्तरिक लोकतंत्र रहा और वे जन मुद्दों को लेकर संघर्ष करती रहीं तब तक वह फलती फूलती रही। जैसे ही वह व्यक्तिवादी, अवसरवादी और जातिवादी राजनीति के चंगुल में पड़ी उसका पतन हो गया।

उन्होंने हमें सफलता के तीन मंत्र दिए थे – ‘शिक्षित हो, संगठित हो, संघर्ष करो।’बहुत से दलित शिक्षित होकर भी संगठन और संघर्ष गलत बात के लिए जारी रखें हैं।यह भटकाव कभी समाज और देश को आगे ले जाने में समर्थ नहीं हो सकता। अंबेडकर जैसे महान विचारक, राजनैतिज्ञ,समाज सुधारक और देश को सुदृढ़ बनाने की उनकी तमन्ना आज उनके कथित अनुयायी जय भीम का जयकारा लगाकर नीली टोपी और झंडा फहराकर भी अपने इरादों को पुख्ताकार नहीं दे पा रहे हैं ये ना केवल दलित,गरीब अल्पसंख्यकों की पीड़ा है बल्कि देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है।एक कम्युनिस्ट सी प्रतिबद्ता के धनी अंबेडकर को धूमिल करने के प्रयासों का मुंहतोड़ जवाब उनकी विचारधारा को विकसित कर ही दिया जा सकता है। लाल और नीले झंडे के साथ आने पर उम्मीदें बढ़ीं थीं किंतु वह भी धूमिल कर दी गई।

आज की राजनीति सिर्फ एक मुखौटे वाली है उनके अपने आईकान ना के बराबर है इसलिए महान शख्सियतों का ये मतलब के लिए बस इस्तेमाल कर उनकी छवि निरंतर धूमिल की जा रही है जब इससे राम,कृष्ण नहीं बच पा रहे तो गांधी , विवेकानंद भगतसिंह, नेहरू,पटेल, अंबेडकर कैसे बच सकते हैं।आइए सब मिलकर इन कोशिशों को नाकाम करें अपने तरीके से अपने महापुरुषों को समझें और समझाएं।

सुसंस्कृति परिहार

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