छत्तीसगढ़ का सांस्कृतिक वैभव –
भोजली गीत की परंपरा

आलेख- डॉ विवेक तिवारी

लोक गीतों का साहित्य एवं अनुसंधान दोनों दृष्टियों से महत्व है। छत्तीसगढ़ अंचल ऐसे लोक गीतों से भरे-पूरे हैं, ग्राम्य एवं आदिम दोनों संस्कृतियों का घर है छत्तीसगढ़। गीत और नृत्य जहां एक ओर हमारे लिए मनोरंजन के साधन हैं, वहीं दूसरी ओर वे कला के विशिष्ट अवयव बन जाते हैं। रक्षाबंधन के दूसरे दिन भोजली का पावन पर्व मनाया जाता है। इस लोक पर्व में महिलाओं का उत्साह देखते ही बनता है। ग्राम्य तथा आदिम वर्गो में लोक गीत संस्कृति की आत्मा होते हैं। उनके नित्य जीवन के लिए ये उतने ही आवश्यक बन जाते हैं, जितने उनके अन्य सामाजिक अथवा आर्थिक कार्य व्यापार। इन्हीं लोक गीतों और लोक कथाओं के वातावरण में वे पलते हैं, और लोक गीतों तथा लोक कथाओं का अमिट संस्कार उनके जीवन पर गहरा होता है ।
किन्तु, उतना ही आवश्यक है, उनकी सांस्कृतिक चेतना को जाग्रत रखना ताकि उनकी अपनी लोक संस्कृतियों में जो मूल तथा ग्राह्य हैं, उसे सुरक्षित रखा जा सके तथा उसका उचित परिष्कार और प्रसार हो सके। वर्तमान समय में यह विचारणीय है कि आज के बदलते हुए समाज में अनेक बाह्य प्रभावों के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में भी लोक गीतों के प्रति कुछ अलगाव-सा उत्पन्न होता जा रहा है। अतः आज आवश्यकता इस बात की है कि लोक गीतों के सांस्कृतिक प्रसार एवं संरक्षण के लिए हमें प्रचार प्रसार के विभिन्न माध्यमों की सहायता लेनी चाहिये।
तत्कालीन मध्यप्रदेश शासन द्वारा प्रथम ईसुरी पुरस्कार से सम्मानित लोकसाहित्यकार स्व. पं. अमृतलाल दुबे कृत ’’तुलसी के बिरवा जगाय’’ लोकगीतों के संकलन का एक भगीरथ प्रयास है। ’’तुलसी के बिरवा’’ (तुलसी का पौधा) लगाने की प्रथा भारतीय जन-जीवन में प्राचीन समय से ही चली आ रही है, अनेक लोक गीतों में वह विविध रूपों में लोकप्रिय होती गई है। छत्तीसगढ़ के लोक जीवन में भी तुलसी का विशिष्ट महत्व एवं प्रचलन है ।
छत्तीसगढ़ का भोजली पर्व तथा उस अवसर पर गाये जाने वाले भोजली गीत अपने आप में पूर्ण और अनुपम है। ये गीत छत्तीसगढ़ की संस्कृति की अक्षय निधि हैं। इन गीतों में छत्तीसगढ़ का जातीय वैभव, अतीतकालीन घटनाएँ, प्रकृति के साथ जीवन का लगाव, आभूषण, कृषि औजार, पशु-पक्षी प्रेम, मन की लालसाएँ सभी एक साथ भर दी गई है। भोजली गीतों ने छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक वैभव एवं उसकी विशालता का प्रदर्शन किया है।
भोजली पर्व का प्रारंभ छत्तीसगढ़ में सावन शुक्ल पक्ष की नवमीं तिथी के दिन होता है इस दिन महिलायें धान, गेहूँ या जौ के दानों को एक टोकनी में खाद मिट्टी डालकर बोती है। इस प्रक्रिया के पश्चात् जब पौधे उगते हैं, तो उसे भोजली देवी कहा जाता है। इसके पश्चात् महिलायें एवं बालिकायें भोजली सेवा करती है अर्थात् भोजली के पास बैठकर गीत गाती हैं। रक्षा बन्धन के बाद भोजली सिर पर सम्मानपूर्वक उठाकर उसे शोभा यात्रा के रुप भोजली गीत गाते हुए समीपस्थ नदी पर जाते है और वहाँ उसका विसर्जन करते हैं। अगर नदी आसपास नहीं है तो किसी नाले में या तालाब में, भोजली को विसर्जित कर देते हैं। इसे ‘भोजली ठण्डा’ करना भी कहते हैं। भोजली गीतों में छत्तीसगढ़ के लोक जीवन का वर्णन बड़े ही सहज सरल रुप में प्रकट होता है, लोक जीवन के सभी पक्षों को इन गीतों में यथोचित स्थान दिया गया है। जिसमें प्रकृति के प्रति अपने आभार को कुशलता से चित्रित किया गया है ।
श्रावण मास में जब प्रकृति अपने हरे परिधान से युक्त हो जाती है, कृषक अपने खेतों में बीज बोने के पश्चात् गांव के चौपाल में ‘‘आल्हा’’ के गीत गाने में मग्न रहते हैं, तब कृषक बालिकाएँ प्रकृति देवी की आराधना हेतु ‘‘भोजली’’ त्यौहार मनाती है। जिस प्रकार ‘‘भोजली’’ एक सप्ताह के अन्दर ही खूब बढ़ जाती है, उसी प्रकार उनके खेत में फसल की बाढ़ दिन-दूनी रात-चौगुनी हो जाए! और, सुरीले स्वर में वे गा उठती है —
अहो देवी गंगा !
देवी गंगा, देवी गंगा, लहर तुरंगा,
हमर भोजली दाई के भीजे आठों अंगा !
अहो देवी गंगा !
देवी गंगा की आराधना करती हुई बालिकाएँ यहाँ कह रही है कि लहररुपी तुरंग अर्थात् घोड़े पर सवार होकर हे गंगामैया, तुम आओ जिससे हमारी भोजली देवी के समस्त अंग एक साथ भीग जावें। तात्पर्य यह कि हमारे प्रदेश में कभी सूखा न पड़े। गंगा माई के आगमन से उनकी ‘‘भोजली’’ देवी के आंचल स्वर्ण-रूपी हो गये। अर्थात्, खेत में फसल तैयार हो रही है। इससे धान के खेतों में लहराते हुए पीले पौधे आंखों के सामने नाचने लगते हैं। इतना ही नहीं, कृषक-बालिकाएँ और भी कल्पना करती है —
आई गईस पूरा बोहाई, गईस मलगी ।
हमरो भोजली दाई बर, सोने सोन के कलगी ।।
अर्थात् यहाँ पर धान के पके हुए गुच्छों से युक्त फसल की तुलना स्वर्ण की कलगी से की गई है और जब फसल पक कर तैयार हो जाती है, उसके पश्चात वे गाती हैं –
कुटी डारेन धाने, छरी डारेन भूसा ।
लइके लइका हवन भोजली, झनि होहा गुस्सा ।।
तात्पर्य यह है कि खेत से धान लाकर कूट डालें तथा छरहर चावल और भूसा अलग-अलग कर डालें । चूंकि नन्हीं-नन्हीं बालिकाओं के द्वारा ही कार्य किया गया है, अतः संभव है, भूल हो गई हो, इसलिए नम्रतापूर्वक क्षमा मांग रही है कि ‘‘झनि होहा गुस्सा’’, और उस बांस के कोठे में रखा हुआ अनाज कैसा है –
बांसे के टोढ़ी मा धरि पारेन चांउर,
महर महर करे भोजली के राउर ।
समस्त फसलों के राजा धान को बालिकाओं ने बांस के कोठे अर्थात टोकरी में रख दिया है जिसके कारण उसकी सुन्दर महक चारों ओर फैल रही है ।
कृषकों का जीवन धान की खेती पर ही अवलंबित है, यदि फसल अच्छी हुई तो उनका वर्ष भर आनन्दपूर्वक व्यतीत होगा, अन्यथा भविष्य भयावह है। फिर धान केवल वस्तु मात्र तो नहीं है, वह तो उनके जीवन में देवी के रूप में ओतप्रोत है, इसीलिए तो ‘‘भोजली’’ देवी के रूप में उसका स्वागत हो रहा है — सोने के कलसा, गंगा जल पानी,
हमरों भोजली दाई के पैया पखारी ।
सोने के दिया कपूर के बाती,
हमरो भोजली दाई के उतारी आरती ।।
सोने के कलश और गंगा के ही जल से कृषक बालायें पैर पखारेंगी! जब जल-कलश सोने का है तो आरती उतारने का दीपक भी सोने का ही होना चाहिये ! कल्पना एवं भाव की उत्कृष्ठता पग-पग पर छलछला रही है, और भी देखिये —
जल बिन मछरी, पवन बिन धान,
सेवा बिन भोजली के तरसथे प्रान ।
अर्थात् जिस प्रकार जल के बिना मछली नहीं रह सकती तथा प्राण वायु के बिना धान तथा अन्य वनस्पतियाँ नहीं रह सकतीं उसी प्रकार भोजली को भी सेवा व देख भाल की आवश्यकता होती है। जिससे की वह अपनी पूर्णता को प्राप्त कर सके ।
‘‘भोजली’’ धान, ज्वार या गेहूॅं के छोटे-छोटे हरे पौधों का पर्यायवाची शब्द है। भोजली अर्थात भो-जली अर्थात जिस भूमि में जल हो। महिलायें और बालिकायें इस गीत के माध्यम से भोजली देवी अथवा प्रकृति देवी की आराधना करती हैं। भोजली गीत एक तरह से प्रकृति की पूजा है। यह इतना बहुप्रचलित है कि बालिकाएं उक्त ‘‘हरे-पौधे’’ की बालों को एक दूसरे के कानों के उपर लगाकर मित्रता की स्थापना करती है। उस दिन से एक दूसरे का नाम न लेकर आपस में ‘‘भोजली’’ कहकर संबोधन करती है । आगे देखिये
कहां के खातू, कहां के टुकनी,
कहां के जवा भोजली, चूहय मोती पानी ।
कुम्हार घर के खातू माटी, कर्रा घर के टुकनी,
राजा घर के जवा भोजली, चूहय मोती पानी ।।
अहो देवी गंगा…………..
अर्थात् एक बालिका प्रश्न करती है कि ‘‘भोजली’’ लगाने के लिये खातू-माटी (खाद-मिट्टी) कहाँ से पायेंगे। फिर उसे लाने के लिए बॉंस की बनी टोकनी कहाँ मिलेगी। ये दोनों मिल भी गये, तो, मोती के बूँद के समान पानी रिसते हुए जवाँ के हरे-हरे पौधे (स्वस्थ पौधे) कहाँ से मिलेंगे ?
दूसरी बालिका समस्या हल करते हुए कहती है कि खातूमाटी कुम्हार के घर से ले आयेंगे, बसोड़ के यहां से बांस की टोकनी तथा राजा के घर से जवाँ की ‘‘भोजली’’ हमें मिल जावेगी। हरे-हरे पौधों से चूहते हुए पानी की बूंॅदों की तुलना मोती से की गई है। इस तरह से प्रश्नोत्तर के रूप में गायन की विधि लोक गीतों में अधिकांशतः पाई जाती है ।
काकर हुकुम बेटी भोजली जगाबो,
काकर हुकुम बेटी भोजली सेराबो ।
आल्हा के हुकुम म दाई भोजली जगाबो,
ऊदल के हुकुम म दाई भोजली सेराबो ।।
अहो देवी गंगा………………….
भोजली का छत्तीसगढ़ के लोक जीवन में एक विशेष महत्व है। छत्तीसगढ़ के ग्राम्य जीवन का बचपन भोजली गीतों की तान सुनते हुए इस ऋतु में होने वाले प्रकृति के परिवर्तनों को महसूस करता है आत्मसात करता है । अपने घर, परिवार, गली, खेत, नाला, तालाब, मोहल्लें और गॉंव में होने वाले विभिन्न कार्यकलापों को देखता है समझता है। प्रकृति से समन्वय किस तरह से रखा जाये यह महसूस करता है। शनैः-शनैः वह इन जानकारियों को आत्मसात् करता चला जाता है जो कि आजीवन उसके साथी बनकर रहते हैं ।
भोजली से नन्हीं बालिकायें अपने आप को किस तरह से जोड़ लेती हैं यह निम्न पंक्तियों में देखा जा सकता है-
सावन महीना भोजली बोवायेन,
भादों मां जामे दुई पान ।
भोजली बुढ़ई गय रंग महल मां,
रोइ – रोइ करथय बिहान ।
अहो देवी गंगा ……………
अर्थात् यद्यपि ‘‘भोजली’’ सावन माह में उगाई गई, परन्तु भादों माह के लग जाने पर भी उसमें केवल दो ही पत्ते निकले हैं। जबकि अन्य सखियों की भोजली ‘‘पोरिस भर कुसियार’’ अर्थात् गन्नें के बराबर बढ़ गई हैं । बालिका को दुःख इस बात का है कि उसकी सखियॉं उलहना देंगी कि यह महल में रहने वाली बालिका ‘‘भोजली’’ की सेवा क्या जाने, देखो न, तभी तो इसकी ‘‘भोजली’’ बुढ़ा गई, अर्थात् उसका हरापन चला गया एवं बाढ़ रूक गई।
‘‘भोजली’’ कुटिया से लेकर महलों तक एक समान आराध्य है। भोजली पर्व को छत्तीसगढ़ के गांवों में सभी वर्ग के लोग समान रुप से मनाते और पूजते हैं। इस पर्व पर जब बच्चे भोजली गीत गाते हैं तब उनके बीच उंच-नीच का भेद नहीं रह जाता। भोजली गीतों के माध्यम से ग्राम की एकता की नींव भी मजबूत होती रहती है।
भोजली गीतों में महिलाओं द्वारा धारण किये जाने वाले आभूषणों के संदर्भ में भी झलक मिलती है –
छें छें मा कारी चूरी, बीच मेए ककना ।
जल्दी जल्दी बाढ़व भोजली, देखे होगय सपना।।
अहो देवी गंगा…………………….
अर्थात् जिस प्रकार नारी की सुकोमल कलाईयों में दोनों बाजू काली-काली चूड़ियों के बीच स्वर्ण युक्त ‘‘ककना’’ नामक आभूषण शोभा पाता है, उसी प्रकार नरम-नरम मिट्टी के काले ढेर के बीच बढ़ते हुए पूर्ण विकास पर पहुंचकर पीत-वर्ण हो ‘‘भोजली’’ शोभा पाती है ।
आभूषणों के साथ ही खेती के औजारों का भी उल्लेख भोजली गीतों की विशेषता है –
नावा रे हंसिया के जरहन बैठे,
जियत जागत रहिबो भोजली, तब होइ जाहै भेंटे ।
अहो देवी गंगा…………..
तात्पर्य यह है कि संभवतः बालिका की कल्पना के अनुसार धान की खेती अब पूर्ण रूप से तैयार हो गई है। खेत में धान काटने के लिये किसान मानो नया हॅंसिया तैयार कर उसमें लकड़ी का बेंठ अथवा हत्था अच्छी तरह से लगा रहा है ताकि धान काटते-काटते हॅंसिया बेंठ के ढीले होने के कारण निकल न जाए।
एक ओर जहॉं धान काटकर घर में लाने का उत्साह है, वहीं दूसरी ओर अपनी प्रिय ‘‘भोजली’’ से विछोह की कल्पना की अनुभूति उसे उद्वेलित कर रही है। कह रही है कि जिन्दगी का क्या ठिकाना! यदि जिंदा रहे तो पुनः भेंट हो जायेगी।
बालिकायें और महिलायें भोजली देवी के साथ इतना अपनापन महसूस करती है कि वे भोजली देवी को मेले में जाने के लिये भी बुलाती हैं। छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध कुदुरमाल मेले में। और वे वहां किस तरह जायेगीं ? कमर में कमर पट्टा पहनकर, रुमाल हाथ में लिये और जोड़ा नारियल लेकर। हवा के झांके आने से भोजली सीधी खड़ी नहीं रह सकती। तो महिलायें उनसे सीधी खड़े रहने के लिये विनती करती हैं – और वादा करती हैं कि सीधी खड़ी रहने पर उन्हें बीड़ा पान खिलायेंगी-
कनिहा मा कमर पट्टा
हाथे उरमाले
जोड़ा नरियर धर के भोजली
जाबो कुदुरमाले।।
नानमुन टेपरी म बोयेन जीरा धाने
खड़े रइहा भोजली
खवाबो बीरा पाने।।
गाय छत्तीसगढ़ के लोक जीवन का अभिन्न अंग है। इसके बिना किसी भी शुभ कार्य की कल्पना नहीं की जा सकती। अतः भोजली गीतों में गाय के महत्व को भी पर्याप्त स्थान दिया गया है-
सुरहिन गाय के गोबर मंगाएन
हो गोबर मंगाएन,
हमरो भोजली दाई के
अंगना लिपाएन ।
अहो देवी गंगा………………
अर्थात् अन्नपूर्णा देवी ‘‘भोजली’’ को घर में लाकर स्वागत करने की कल्पना तो देखिये! ‘‘कामधेनु’’ के गोबर से ही आंगन की लिपाई होगी ।
भोजली गीत की इन पंक्तियों में भोजली की दिन- प्रतिदिन की स्थिति का वर्णन बड़े ही सहज रुप से किया गया है –
आठे के चाउर, नवमी बोवाईन ।
दसमी के भोजली, जराई कर होईन ।
एकादसी के भोजली, दूदी पान होईन।
दुआस के भोजली, मोती पानी चढिन।
तेरस के भोजली, लहसि बिंहस जाइन।
चौदस के भोजली, पूजा पाहूर पाइन ।
पुन्नी के भोजली, ठण्डा होये जाइन।।
धीरे-धीरे भोजली विसर्जन का दिन भी नजदीक आता जाता है। भोजली को विदा देने के अवसर पर गाये जाने वाली यह पंक्तियां उनके मनोभावों को प्रकट करती हैं –
दूध-मॉंगेन पूत मॉंगेन,
अऊ मॉंगेन असीस ।
ठाढ़े हे कोसिल्या रानी,
देवत हे असीस ।।
अहो देवी गंगा………..
‘‘भोजली’’ की विदा के क्षण अब आ गये हैं। ये पुजारिनें भोजली देवी से आशीर्वाद के साथ ही ‘‘दूधो भरो पूतो फलो’’ की कल्पना कर रही है कि मानो साक्षात् स्वयं कौशल्या देवी प्रकट हो इन्हें ‘‘एवमस्तु’’ कह रही हों।
छत्तीसगढ़ के जन-मानस में माँ कौशिल्या की अर्चना-मात्र से पुत्र राम की प्राप्ति की गाथा के प्रति अगाध आस्था है।‘‘कौशिल्या रानी’’ भगवान राम की माता हैं, अतः उनकी आराधना से ‘‘दूध-पूत’’ तो क्या और भी सभी कामनाएॅं पूर्ण हो जाएंगी। यही सोच कर वे भोजली देवी की सेवा समर्पित भाव से करती हैं ।
महिलाओं और बालिकाओं के निःश्च्छल हृदय में विदाई के समय भी अपने लिये नहीं वरन् अपने भाईयों और भतीजों की कुशलता और दीर्घायु की ही कामना रहती है-
गंगा गोसाई,
गरब झनि करिहा,
भइया अऊ भतिजवा ला,
अमर देके जइहा ।।
अहो देवी गंगा………..
यह हमारी भारतीय संस्कृति की ‘‘सर्वे सुखिनः भवन्तु, सर्वे सन्तु निरामयाः’’ की महान कल्पना लोक गीतों में श्रुतिबद्व होकर चली आ रही है ।


भोजली के साथ छत्तीसगढ़ का बहुत ही गहरा रिश्ता है। भोजली को मन्दिरों में चढ़ाया जाता है तथा बड़ां को देकर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया जाता है। भोजली के माध्यम से मित्रता भी की जाती है – कान में भोजली खोंचकर एक दूसरे से मित्रता करते हैं। इसे भोजली (गींया, महापरसाद) बदना कहते हैं। जिस किसी के साथ भोजली बदी जाती है उसके साथ आजीवन मित्रता निभाने का वादा किया जाता है। इस तरह से भोजली हमें आपस में भाईचारे एवं मैत्री के सूत्र में बांधने का माध्यम बनती है ।
छत्तीसगढ़ के लोक जीवन की सौंधी महक भोजली में रची बसी होती है। बाजारवाद हम पर हावी होता जा रहा है हमारी सहजता, सरलता और संस्कृति का क्षरण भी उसी गति से होता जा रहा है। आवश्यकता है इन लोक गीतों की मूल अभिव्यक्ति एवं अभिव्यंजनाओं का सुरक्षित रखने की। इस हेतु लोकसाहित्यकार स्व. पं. अमृतलाल दुबे ने ’’तुलसी के बिरवा जगाय’’ के माध्यम से लोक गीतों के संरक्षण के क्षेत्र में विशेष स्तुत्य एवं अनुकरणीय कार्य किया है ।
आलेख- डॉ. विवेक तिवारी, बिलासपुर (छत्तीसगढ़) 9200340414

संदर्भ – म.प्र. शासन द्वारा प्रथम ईसुरी पुरस्कार से सम्मानित लोक साहित्यकार पं. अमृतलाल दुबे जी की दुर्लभ कृति ‘तुलसी के बिरवा जगाय’ (1963)।
छायाचित्र-भोजली विसर्जन पचरी घाट अरपा नदी – डॉ. श्रीमती अर्चना तिवारी, बिलासपुर, छत्तीसगढ़।

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