छत्तीसगढ में लिखी गईं मुक्तिबोध की प्रतिनिधि रचनाएँ: दिवाकर मुक्तिबोध
रायपुर, “मैं उनकी फैंटेसी, बिम्ब या प्रतीक पर कुछ भी नहीं बोलूंगा ; मैंने उन्हें समझा ही कितना है ? जब उनकी मृत्यु हुई, मैं मात्र पंद्रह वर्ष का था । इस उम्र में मुक्तिबोध को भला कैसे समझा जा सकता है ?” यह कहने वाले ‘पुत्र’ दिवाकर मुक्तिबोध जब ‘मेरे पिता : गजानन माधव मुक्तिबोध’ पर बोलना प्रारंभ करते है तो अबाध बोलते है । बिना रुके, बिना झिझके । शासकीय जे योगानंदम छत्तीसगढ महाविद्यालय में साहित्यिक कार्यक्रम समिति एवं हिन्दी विभाग द्वारा आयोजित ‘ स्मरण मुक्तिबोध ‘ कार्यक्रम में कल जिसने भी दिवाकर मुक्तिबोध को धाराप्रवाह बोलते देखा-सुना, सुखद आश्चर्य से भर उठा। प्रखर लेखनी के धनी,जाने-माने पत्रकार दिवाकर मुक्तिबोध अपनी पत्रकारिता और संस्मरण आदि के लिए तो सुविख्यात हैं,किन्तु मंच पर बोलना उन्हें रास नहीं आता। किन्तु “मेरे पिता: गजानन माधव मुक्तिबोध” पर जब उन्होने बोलना शुरू किया तो समापन तक पूरी दर्शक दीर्घा मुक्तिबोध के अनछुए पहलुओं को सुनते मंत्रमुग्ध हो उठी थी । पिता की जीवन यात्रा,उनके संघर्ष, छत्तीसगढ आगमन, उनकी बीमारी और मृत्यु,उनका पितृ-वत्सल रूप,दिग्विजय महाविद्यालय राजनांदगांव में अध्यापन, उनकी मित्रमंडली, लेखन तकरीबन सभी विषयों पर वे बोले।
दिवाकर जी ने कई सुखद- दुःखद घटनाओं को याद किया। उन्होंने विशेष रूप से इस बात को रेखांकित किया कि आज हम अपने बच्चों को या माता-पिता को समय नहीं देते । यह गलत है। हमारे पिता दिग्विजय महाविद्यालय में ग्यारह से पांच बजे की नौकरी और व्यस्त लेखन के बाद भी हमें पर्याप्त समय अवश्य देते थे। वे सुबह चार बजे उठ जाया करते। यदि चाय बनाने को ईंधन न रहे तो कागज जलाकर चाय तैयार करते, उसके बाद हमें उठाते। दिवाकर जी ने यह भी याद किया कि वे कहानी बहुत ही रोचक तरीके से सुनाते थे, एक बार जब अस्थमा की वजह बहुत तकलीफ में था तो उन्होंने ब्रह्मराक्षस कहानी इस प्रकार सुनाई कि सारी पीडा भूल मैं सो गया। ब्रह्मराक्षस कहानी बच्चों ने बार-बार सुनी ,पर हमें बहुत बाद में पता कि कहानी उनकी ही है ।
दिवाकर जी ने बताया कि मुक्तिबोध की तमाम प्रतिनिधि रचनाएँ छत्तीसगढ में ही लिखी गई। ‘अंधेरे में’ कविता के दृश्य राजनांदगांव के बी एम सी मिल के हडताल आदि के हैं । राजनांदगांव उनके जीवन का स्वर्णिम काल था। दिवाकर जी ने यह बात भी साझा की कि उनकी कविताएँ प्रायः लौटा दी जाती थीं। एक वजह थी उनकी कविताओं का लंबा होना । वे छोटी कविता लिख ही नहीं पाते थे और विडंबना देखिए कि उनका पहला संकलन’चाँद का मुँह टेढा है’ भी उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुआ।
लेखक अपनी थकान मिटाने के लिए भांति-भांति के तरीके अपनाते हैं । मुक्तिबोध लेखन की अपनी मानसिक थकान जासूसी उपन्यास पढकर मिटाया करते थे। हिन्दी- अंग्रेजी के जासूसी उपन्यास वे खूब पढा करते थे। उन्हे शरलाॅक होम्स, सर आर्थर कानन डायल के रहस्य -उपन्यास बहुत अच्छे लगते थे। कोट पहनकर बीडी पीते मुक्तिबोध की तस्वीर,जो उनकी पहचान बन गई,जबलपुर में खींची गई थी । हरिशंकर परसाई का आयोजन था वहाँ।यह उनकी अंतिम तस्वीर थी,जिसे उन्होंने मुझे अपने हाथों से दिया। इस बात का उल्लेख करते हुए दिवाकर जी का गला भी रुंधा। भरे गले से उन्होंने कहा कि वे आज भी उन्हें रोज याद करते हैं।आगे उन्होंने बताया कि उन्हें बीडी पीने की जबरदस्त आदत थी। हर आधे घंटे में वे नयी बीडी सुलगा लिया करते। वैसे मुक्तिबोध की यह बीडी भी सर्वहारा वर्ग की प्रतीक बनी ।जिनके लिए वे आजीवन चिंतित रहे ।
दिवाकर जी ने बताया कि हमने अपने पिता को कभी भी नाराज होते, किसी पर गुस्सा करते नहीं देखा। वे हमेशा खुश रहते। उनको अपने परिवार के बीच रहने में सबसे ज्यादा खुशी महसूस होती थी। अपने मित्रों से उन्हें बहुत स्नेह था । हमारे घर में उन दिनों सप्ताह में दो-तीन दिन उनके साहित्यकार मित्र और महाविद्यालय के प्राध्यापक जरूर आते, पिता एक अच्छे मेजबान भी थे ।

छत्तीसगढ महाविद्यालय में आयोजित इस अभूतपूर्व कार्यक्रम में अध्यक्षीय वक्तव्य प्राचार्य डॉ अमिताभ बैनर्जी ने दिया, जिन्होंने उम्मीद जताई कि दिवाकर मुक्तिबोध के वक्तव्य से हमें मुक्तिबोध की रचनाओं की पृष्ठभूमि ज्ञात होगी , जिससे हम उनके कथ्य को सहजता से आत्मसात कर सकेंगे । कार्यक्रम में स्वागत उद्बोधन डाॅ मंजुला उपाध्याय, संचालन डाॅ सुभद्रा राठौर एवं आभार प्रदर्शन डाॅ उर्मिला शुक्ल ने किया ।आयोजन में सभाकक्ष विद्यार्थियों – प्राध्यापकों से खचाखच भरा ही था , सोशल मीडिया से सूचना पाकर मीडिया से जुडी स्मिता शर्मा और रचनाकार रूपेन्द्र ने भी दिवाकर मुक्तिबोध को सुनने का लाभ उठाया।

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