शेख़ हसीना विशेष हेलिकापटर से पहुंची भारत, डोभाल से मिली, लन्दन जाने की योजना
नयी दिल्ली, (एजेंसीयां )बांग्लादेश में पिछले लगभग 20 दिनों से चल रहे आरक्षण विरोधी आंदोलन को अब झेलने में असमर्थ वहां की प्रधानमंत्री शेख़ हसीना ने अंततः इस्तीफ़ा दे दिया है। ख़बर है कि शेख़ हसीना ने देश भी छोड़ दिया है और सेना के विशेष हेलीकॉप्टर से शरण लेने के लिये भारत आ गई हैं। आरक्षण विरोधी आंदोलन के तेज़ होने के बाद बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण में कोटा घटाने का फ़ैसला लिया था, स्थिति ठीक भी होने लग गई थी लेकिन बाद में यह आंदोलन एक सूत्रीय मांग पर केन्द्रित हो गया था कि शेख़ हसीना इस्तीफ़ा दें। इसे लेकर पूरे देश में पिछले एक पखवाड़े से हिंसा जारी है। पीएम आवास सहित राजधानी ढाका पर आंदोलनकारियों का कब्जा हो गया है। वे पीएम आवास के अंदर घुस चुके हैं और ज्यादातर शहरों की पुलिस चौकियों में जमे हुए हैं। रविवार को बड़ी तादाद में सड़कों पर उतर आये युवा एवं छात्र पुलिस व सेना के नियंत्रण से बाहर हो गये हैं। प्रमुख विपक्षी दल बांग्लादेशी नेशनलिस्ट पार्टी और जमात का इस आंदोलन के पीछे हाथ बताया जाता है। शेख़ हसीना ने इसे लेकर इशारा भी किया था कि यह आंदोलन अब राजनीतिक हो गया है।
भारत सरकार ने एक एडवाइज़री जारी कर भारतीयों को बंगलादेश की यात्रा टालने की सलाह दी है। ढाका में वहां के सेना प्रमुख वकार-उज-जमान ने प्रेस कांफ्रेंस कर कहा है शेख़ हसीना को सुरक्षित स्थान पर भेजा गया है। उन्होंने यह भी जानकारी दी कि देश में अंतरिम सरकार का गठन किया गया है। उन्होंने जनता से हालात सुधारने के लिये कुछ समय मांगा है। जाहिर है कि बांग्लादेश में तख़्ता पलट हो चुका है और हालत वैसे ही हैं जो 1971 में पूर्वी पाकिस्तान के रूप में उसके मुख्य देश से अलग से होने के लिये चलाये गये मुक्ति संग्राम के दिनों में था और उसके बाद 1975 की तरह भी, जब शेख़ हसीना के पिता व पहले प्रधानमंत्री बंगबन्धु शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या कर जनरल एमएजी उस्मानी ने सत्ता सम्हाली थी। यह भी देखना होगा कि जिस अंतरिम सरकार के गठन की बात वहां के सेना प्रमुख कह रहे हैं उसका स्वरूप सैन्य शासन का होता है या वहां लोकतांत्रिक बहाल होता है। भारत के लिये यह मामला बहुत महत्वपूर्ण है।
उल्लेखनीय है कि प्रदर्शनकारी 1971 की विवादास्पद आरक्षण प्रणाली को समाप्त करने की मांग कर रहे थे जिसके जरिये 1971 के मुक्ति संग्राम सेनानियों के वंशजों के लिये शासकीय नौकरियों में 30 प्रतिशत आरक्षण देने की व्यवस्था है। इसका समर्थन करने वालों और विरोधियों के गुट आमने-सामने है जिनकी हिंसक मुठभेड़ों में 3सौ से ज़्यादा लोगों के मारे जाने की बात कही जाती है। बड़ी संख्या में लोगों के घायल होने की भी ख़बरें हैं। इस दौरान कई स्थानों पर तोड़-फोड़ और आगजनी से भी नुक़सान हुआ है। खासकर, सरकारी सम्पत्तियों को बड़े पैमाने पर आंदोलनकारियों द्वारा क्षति पहुंचाई गई है। तीन दिन पहले देश भर में कर्फ्यू लगा दिया गया था और पीएम ने सेना को हालात सुधारने का जिम्मा दिया था। इसे भारत में मीसा बंदियों को दिए जाने वाले पेंशन की तरह माना जा सकता है जिसमें गैर वामपंथी, गैर कांग्रेसी 1975 के गिरफ्तार राजनीतिज्ञओं को दिया जाता है, क्योंकि उस मुक्ति आंदोलन में शेख मुजीब के दल के लोगों ने ही मुख्यतः भागीदारी की थी.
बांग्लादेश में महिलाओं के लिये 10, धर्म के आधार पर अल्पसंख्यकों को 5 और विकलांग लोगों के लिये 1 प्रतिशत का आरक्षण है, लेकिन विरोध स्वतंत्रता सेनानियों के वंशजों को दिये जाने वाले आरक्षण को लेकर ही है। बाद में हाईकोर्ट द्वारा इसका कोटा कम करने का फ़ैसला सुनाया गया था लेकिन आंदोलनकारी उसे पूरी तरह से समाप्त करना चाहते हैं। वैसे आंदोलन के बाद जून माह में सरकार ने उच्च वर्ग की नौकरियों में इस आरक्षण को घटाया था पर इससे विरोधी संतुष्ट नहीं हुए। देखना यह है कि अंतरिम सरकार, जैसी भी बनती है, किस प्रकार से हालात को सुधारती है।
दूसरी तरफ बांग्लादेश के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री मोहम्मद यूनुस ने भारत सरकार के रवैये के प्रति नाराज़गी जताई है। वे ढाका में पदस्थ भारतीय दूतावास के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल के पिछले महीने दिये गये उस बयान से व्यथित हैं जिसमें प्रवक्ता ने वहां के आंदोलन से उपजी स्थिति पर यह कहकर कोई टिप्पणी करने से इंकार कर दिया था कि ‘यह बांग्लादेश का अंदरूनी मामला है।’ यूनुस चाहते थे कि भारत, शेख़ हसीना सरकार की इस मामले को लेकर आलोचना करें। यूनुस का कहना था कि ‘जब भारत कहता है कि यह घरेलू मामला है तो मुझे दुख होता है। यदि भाई के घर में आग लगी हो तो दूसरा भाई इसे घरेलू मामला कैसे बता सकता है? जिस देश में 17 करोड़ लोग संघर्ष कर रहे हैं उसे पड़ोसी देश अंदरूनी मामला कैसे कह सकता है?’ उल्लेखनीय है कि मोहम्मद यूनुस ने 1983 में बांग्लादेश ग्रामीण बैंक बनाया था जिसकी तर्ज़ पर दुनिया भर में बैंक बनाये गये हैं। उन्हें व उनके बैंक को 2006 में नोबेल पुरस्कार मिला था। शेख हसीना इस बैंक को ‘गरीबों का खून चूसने वाला संस्थान’ कहती रही हैं।
बांग्लादेश में होने वाली हर घटना का असर भारत पर पड़ता ही है। खासकर, इसकी सीमाओं से भारत के जो राज्य लगे हुए हैं, वहां सबसे ज्यादा असर होता है। बांग्लादेश उन गिने-चुने पड़ोसी देशों में से हैं जिसके साथ कई तरह के उतार-चढ़ावों के बाद भी भारत के अच्छे रिश्ते बने हुए हैं वरना ज्यादातर के साथ तो वे काफी तल्ख़ हो चुके हैं। बांग्लादेश के सम्प्रभु राष्ट्र बनने में सबसे बड़ा योगदान पडोसी देश भारत का ही रहा है। यह भी एक संयोग है, कि उस वक़्त भी शेख़ हसीना को भारत में राजनीतिक शरण मिली थी जब शेख़ मुजीब का तख़्ता पलट हुआ था। तब उनके लगभग पूरे परिवार का सफाया कर दिया गया था जबकि शेख मुजीब का स्थान बंगलादेश में राष्ट्र निर्माता का माना जाता था.