स्मृति में प्रेरणा – विचारों में दिशा , शहीद भगत सिंह को उनके विचारों के साथ याद रखना जरूरी
आलेख– सत्यम
भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु के शहादत दिवस (23 मार्च) पर कल उनको श्रद्धांजलि और सलामी पेश करने का सिलसिला दिनभर चलता रहेगा। लेकिन सिर्फ़ श्रद्धांजलि देने से क्या होगा? वह भी आज के फ़ासिस्ट दौर में जब भगतसिंह और उनके साथियों के विचार पहले किसी भी समय के मुक़ाबले ज़्यादा प्रासंगिक हो गये हैं। श्रद्धांजलि तो तमाम ऐसे लोग भी देंगे जिनका इन इंक़लाबियों के सपनों और उनके विचारों से बैर रहा है; जो उन्हें विस्मृति की धूल से ढँक देने की हर कोशिश करते रहे हैं।
अगर हम वाक़ई अपने इंक़लाबी शहीदों को दिल से याद करते हैं तो उनके सपनों के हिन्दुस्तान को हक़ीक़त बनाने की जद्दोजहद में हमें किसी न किसी तौर पर शिरकत करनी होगी। और इसके लिए पहला क़दम है उनके जीवन और विचारों के बारे में जानना।
यह सच है कि बहुत सारे संजीदा लोगों ने भी भगतसिंह के लेखन को ठीक से पढ़ा नहीं है। बहुत-से युवा अभी ऐसे हैं, जो एक क्रान्तिकारी के तौर पर भगतसिंह को प्यार करते हैं, लेकिन एक दार्शनिक और विचारक के रूप में, एक असाधारण प्रतिभा के रूप में उनसे अपरिचित हैं।
ऊपर से सोशल मीडिया ने और कबाड़ा किया है। तरह-तरह के रूमानी किस्म के उद्धरण किसी क्रान्तिकारी या किसी लेखक के नाम से फ़ेसबुक या व्हॉट्सऐप पर तैरते रहते हैं। संघी क़िस्म के लोग भी तरह-तरह के झूठ और अन्ध राष्ट्रवादी बातें भगतसिंह और दूसरे क्रान्तिकारियों के नाम से चलाते रहते थे। मगर पिछले दिनों तो हिन्दी के कई लेखक और पत्रकार भी युवाओं को भ्रमित करने वाले गपोड़ियों के इस झुण्ड में शामिल हो गये! इसलिए ज़रूरी है कि भगतसिंह और उनके साथियों के जीवन और विचारों को हम ख़ुद जानें, उनसे सबक़ लें।
उनकी स्मृति से प्रेरणा लें और विचारों से दिशा लें।
सत्ताधारियों द्वारा जानबूझकर की गयी अनदेखी और उनके विचारों को दबाने की तमाम सायास कोशिशों के बावजूद आज उन पर बहुत-सी किताबें उपलब्ध हैं और बुद्धिजीवियों तथा युवाओं की एक बड़ी आबादी यह जानने लगी है कि जिस आज़ाद देश का सपना इन क्रान्तिकारियों ने देखा था, आज के भारत उससे बिल्कुल उलट है।
आज की तारीख़ में कई प्रकाशनों से भगतसिंह और उनके साथियों का साहित्य छप चुका है। इसकी उपलब्धता अब कोई समस्या नहीं है। इसलिए मुझे लगा कि गम्भीर अध्ययनशील साथियों की मदद के लिए संक्षेप में थोड़ी जानकारी दे दूँ। भारत के आधुनिक इतिहास और वर्तमान को समझने के लिए, और नये भविष्य को गढ़ने के लिए भी भगतसिंह और उनके साथियों के विचारों को पढ़ना आज बेहद ज़रूरी है।
सबसे पहले भगतसिंह की ऐतिहासिक जेल नोटबुक की बात करते हैं। पहली बार यह 1993 में जयपुर से ‘इण्डियन बुक क्रॉनिकल’ से ‘A Martyr’s Notebook’ नाम से प्रकाशित हुई। इसका सम्पादन भूपेन्द्र हूजा ने किया था। इसमें दी गयी टिप्पणी के अनुसार, इसकी हस्तलिखित / डुप्लीकेटेड प्रतिलिपि एक पैकेट के रूप में पहली बार उनके भाई, गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार के तत्कालीन कुलपति जी.बी. कुमार हूजा को 1981 में गुरुकुल, इन्द्रप्रस्थ के दौरे के समय स्वामी शक्तिवेश से मिली थी। लेकिन इससे भी पहले यह नोटबुक 1977 में रूसी विद्वान एल.वी. मित्रोखिन ने फ़रीदाबाद में रह रहे भगतसिंह के छोटे भाई कुलबीर सिंह के पास देखी थी और उसका विस्तृत अध्ययन करके एक लेख लिखा था, जो 1981 में अंग्रेज़ी में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘लेनिन एंड इंडिया’ में एक अध्याय के रूप में शामिल किया गया। इससे भी पहले, 1968 में भारतीय इतिहासकार जी. देवल ने ‘पीपुल्स पाथ’ पत्रिका में भगतसिंह पर लिखे अपने लेख में 200 पन्नों की एक कापी का ज़िक्र किया गया था जिसमें पूँजीवाद, समाजवाद, राज्य की उत्पत्ति, मार्क्सवाद, कम्युनिज़्म, धर्म, दर्शन, क्रान्तियों के इतिहास, क़ानून आदि पर विभिन्न पुस्तकों के अध्ययन के दौरान भगतसिंह द्वारा जेल में लिये गये नोट्स हैं। यह नोटबुक भगतसिंह को फाँसी के बाद उनके परिवार वालों को सौंप दी गयी थी। देवल ने भी इसे फ़रीदाबाद में कुलबीर सिंह के पास देखा था।
हमें उपलब्ध जानकारी के अनुसार, 1979 के बाद इतिहास के कई शोधार्थियों ने 404 पृष्ठों की उक्त जेल नोटबुक की एक फ़ोटो प्रतिलिपि तीन मूर्ति भवन स्थित नेहरू मेमोरियल म्यूज़ियम व लायब्रेरी में भी देखी-पढ़ी। प्रो. जगमोहन सिंह और चमनलाल द्वारा राजकमल से प्रकाशित ‘भगतसिंह और उनके साथियों के दस्तावेज़’ की भूमिका में भी इस नोटबुक की चर्चा है।
भूपेन्द्र हूजा द्वारा सम्पादित संस्करण के आधार पर विश्वनाथ मिश्र ने पहली बार जेल नोटबुक का हिन्दी अनुवाद किया जिसे सत्यम के सम्पादन में ‘शहीदेआज़म की जेल नोटबुक’ नाम से राहुल फ़ाउण्डेशन ने 1999 में प्रकाशित किया और उसके बाद से इसके अनेक संस्करण और रीप्रिंट निकल चुके हैं। आगे चलकर प्रो. चमनलाल के सम्पादन में ‘लेफ़्ट वर्ड’ से भी इसका एक अंग्रेज़ी संस्करण निकला। अब तो हिन्दी, अंग्रेज़ी, पंजाबी, मराठी और मलयालम सहित कई भाषाओं में इसके अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। मलविन्दर सिंह वड़ैच के सम्पादन में यूनीस्टार पब्लिकेशन्स से अंग्रेज़ी में प्रकाशित संस्करण में मूल नोटबुक के हर पेज की फ़ोटो के साथ इसका टेक्स्ट और परिचयात्मक टिप्पणियाँ प्रकाशित की गयी हैं। लेफ़्ट वर्ड से प्रकाशित संस्करण में पहली बार नोटबुक के पृष्ठ 1, 3 व 4 पर मौजूद टेक्स्ट को भी शामिल किया गया। इसके पहले के किसी संस्करण में यह टेक्स्ट नहीं था क्योंकि नोटबुक की जिस प्रतिलिपि के आधार पर वे संस्करण तैयार किये गये थे, उनमें ये पृष्ठ मौजूद नहीं थे जो इस समय भगतसिंह के बचपन के गाँव खटकड़ कलां के म्यूज़ियम में रखे हैं। यूनीस्टार के संस्करण में भी ये पेज और टेक्स्ट शामिल हैं। पंजाब सरकार ने भी इसी प्रकार मूल प्रतिलिपि के हर पेज की फ़ोटो के साथ नोटबुक का टेक्स्ट प्रकाशित किया है। प्रो. केसी यादव और बाबर सिंह के सम्पादन में इसका एक कॉफ़ी टेबल बुक शैली का संस्करण भी निकल चुका है।
यहाँ पर इस बात को रेखांकित कर देना ज़रूरी है कि यह भगतसिंह की जेल “डायरी” नहीं, बल्कि “नोटबुक” है। डायरी में लेखक मुख्यत: अपने विचारों को दर्ज करता है और कभी-कभी किसी किताब या पत्रिका से अच्छे या ज़रूरी लगने वाले कुछ अंश भी दर्ज कर लेता है। लेकिन इस नोटबुक में भगतसिंह ने अपने विचार नहीं दर्ज किये हैं। पूरी नोटबुक में उन्होंने उन किताबों से कहीं छोटे और कहीं लम्बे उद्धरण दर्ज किये हैं जिनका वह जेल में अध्ययन कर रहे थे। कहीं-कहीं उन्होंने पढ़ी गयी कुछ बातों की पैराफ़्रेज़िंग करके अपने शब्दों में उसका सार-संक्षेप दर्ज कर लिया है। कुछेक अपवादों को छोड़कर लगभग सभी उद्धरणों के नीचे भगतसिंह ने उस लेखक या किताब का नाम दर्ज किया है जहाँ से उसे लिया गया है। भूपिन्दर हूजा, सत्यम, प्रो. चमनलाल और मलविन्दर सिंह वड़ैच द्वारा लगाये गये फ़ुट नोट्स से कुछ को छोड़कर अधिकांश के बारे में जानकारी मिल जाती है।
जेल में भगतसिंह लगातार अध्ययन कर रहे थे। वे अदालतों में अपने बयानों की तैयारी तो करते ही थे, उनका लेखन भी लगातार जारी था। जेल में उनका लिखा हुआ जितना हमें मिल पाया है, उसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ हो सकता है जो लुप्त हो गया या कहीं दबा पड़ा है।
पुस्तकों के लिए वे कितने चिन्तित रहते थे, उसका अनुमान उनके कुछ पत्रों से ही लग जाता है। जुलाई, 1930 में अपने मित्र जयदेव गुप्ता को भगतसिंह ने लिखा था : “कृपया निम्नलिखित किताबें द्वारकानाथ पुस्तकालय से मेरे नाम पर जारी करवाकर शनिचर वार को कुलबीर के हाथ भेज देना : मैटीरियलिज़्म : कार्ल लीब्नेखत, व्हाई मेन फ़ाइट – बी. रसेल, सोवियट्स एट वर्क, कोलैप्स ऑफ़ सेकण्ड इण्टरनेशनल, लेफ़्ट विंग कम्युनिज़्म, म्यूचुअल एड – प्रिन्स क्रोपोटकिन, फ़ील्ड्स फ़ैक्ट्रीज एण्ड वर्कशाप्स, सिविल वॉर इन फ्रांस – मार्क्स, लैण्ड रिवोल्यूशन इन एशिया, और अप्टन सिंक्लेयर की ‘स्पाई’। यदि हो सके तो मुझे एक और किताब भेजने का प्रबन्ध करना, जिसका नाम ‘थ्योरी ऑफ़ हिस्टोरिकल मैटिरियलिज़्म – बुख़ारिन’ है (यह पंजाब पब्लिक लाइब्रेरी से मिल जायेगी)।” इसी पत्र में उन्होंने बोर्स्टल जेल में क़ैद अपने साथियों के लिए भी किताबें भिजवाने के लिए कहा है।
फिर 16 सितम्बर, 1930 को अपने भाई कुलबीर सिंह को लिखे पत्र में वे कहते हैं कि फ़ैसला सुनाये जाने तक उनसे मिलने कोई नहीं आ सकता : “इसलिए मेरी विनती है कि तुम ख़ान साहब के दफ़्तर जाना और वहाँ से मेरी किताबें और दूसरी जो चीज़ें मैंने वहाँ छोड़ी हैं, ले लेना। मुझे लाइब्रेरी की पुस्तकों की बड़ी चिन्ता है। फ़िलहाल मेरे लिए कोई किताबें लाने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि मेरे पास अभी कुछ हैं। अच्छा हो, अगर तुम लाइब्रेरी से उन किताबों की सूची माँग लो, जो मैंने वहाँ से निकलवायी थीं।”
इन पत्रों का ज़िक्र ख़ास तौर पर अपने उन युवा मित्रों और साथियों के लिए किया है जो अक्सर शिकायत करते रहते हैं कि उन्हें पढ़ने का समय ही नहीं मिलता। यह ध्यान रखना भी ज़रूरी है कि कांग्रेसी नेताओं की तरह भगतसिंह और उनके साथियों को जेल में आराम से पढ़ने-लिखने का अवसर नहीं मिलता था और न ही सेवा करने के लिए दूसरे क़ैदी मिलते थे। कुल दो साल के बन्दी जीवन के दौरान राजनीतिक बन्दी का दर्जा पाने के लिए ही उन्हें बेहद लम्बी भूख हड़ताल करनी पड़ी थी जिसके 63वें दिन यतीन्द्रनाथ दास शहीद हो गये थे। इसके बाद भी कई बार उन्होंने पढ़ने-लिखने के अपने अधिकारों के लिए भूख हड़तालें कीं।
अब चर्चा करते हैं भगतसिंह के वैचारिक लेखन की। छिटपुट पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों, अजय घोष, शिव वर्मा, सोहन सिंह जोश, जितेन्द्र नाथ सान्याल आदि भगतसिंह के समकालीन क्रान्तिकारियों की विभिन्न पुस्तकों-लेखों और गोपाल ठाकुर, जी. देवल, मन्मथनाथ गुप्त, प्रो. बिपन चन्द्र, हंसराज रहबर, कमलेश मोहन आदि इतिहासकारों-लेखकों के विभिन्न लेखों एवं पुस्तकों से भगतसिंह के विचारक व्यक्तित्व पर रोशनी अवश्य पड़ती रही, पर लम्बे समय तक बहुसंख्यक शिक्षित आबादी भी इससे बहुत कम ही परिचित थी।
भगतसिंह की भतीजी वीरेन्द्र सिन्धु ने अपनी चर्चित पुस्तक ‘युगद्रष्टा भगतसिंह और उनके मृत्युंजय पुरखे’ के अलावा ‘भगतसिंह, पत्र और दस्तावेज़’ नाम से एक और पुस्तक सम्पादित की थी जिसमें उनके कई लेख शामिल थे। इसके अलावा 1970 के दशक के पूर्वार्द्ध में आनन्द स्वरूप वर्मा, सुरेश सलिल और कुछ अन्य वामपन्थी संस्कृति कर्मियों ने अपनी पत्रिका ‘मुक्ति’ 1, 2 और 3 में भगतसिंह के कुछ ऐतिहासिक बयानों -दस्तावेज़ों को प्रकाशित किया। इसके बाद कई पत्रिकाओं ने और क्रान्तिकारी ग्रुपों ने पुस्तिकाओं के रूप में भगतसिंह के चुने हुए कुछ लेखों को छापकर वितरित किया। भगतसिंह के साथी शिव वर्मा ने भी उनके चुनिन्दा लेखों का संकलन अंग्रेज़ी और हिन्दी में प्रकाशित किया।
भगतसिंह और उनके साथियों के दस्तावेज़ों पर शोध के लिए 1977-78 में एक शोध कमेटी गठित की गयी जिसमें प्रो. बिपनचन्द्र और उनके कुछ शोधार्थियों के साथ प्रो. जगमोहन सिंह और चमनलाल भी शामिल थे। इसके बाद जगमोहन सिंह और चमनलाल के सम्पादन में राजकमल प्रकाशन से ‘भगतसिंह और उनके साथियों के दस्तावेज़’ का पहला संस्करण 1986 में छपकर आया। इसके बाद भी उनके कुछ पत्र और दस्तावेज़ सामने आये।
राहुल फ़ाउण्डेशन से सत्यम के सम्पादन में 2006 में प्रकाशित संकलन का नाम हमने एहतियात के तौर पर ‘भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़’ रखा है क्योंकि अभी दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि उनके कुछ और दस्तावेज़ सामने नहीं आ सकते हैं। इस तथ्य की चर्चा भगतसिंह के कई साथियों और इतिहासविदों ने की है कि जेल में उन्होंने चार और पुस्तकें लिखी थीं : ‘आत्मकथा’, ‘समाजवाद का आदर्श’, ‘भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलन’ तथा ‘मृत्यु के द्वार पर’। भारतीय इतिहास के सर्वाधिक दुर्भाग्यपूर्ण प्रसंगों में से एक यह है कि इनकी पाण्डुलिपियाँ आज उपलब्ध नहीं हैं और माना यही जाता है कि वे नष्ट हो चुकी हैं। इस पर पर्याप्त शोध भी नहीं किया गया है।
‘आधार प्रकाशन’ से भी प्रो. चमनलाल के सम्पादन में ‘भगतसिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज़ों’ का एक संकलन प्रकाशित हुआ है। भगतसिंह और उनके साथियों पर एक शोधपरक पुस्तक To Make The Deaf Hear (हिन्दी में ‘बहरों को सुनाने के लिए’) के लेखक एस. इरफ़ान हबीब ने Inquilab: Bhagat Singh on Religion and Revolution नाम से भगतसिंह के लेखों का एक अच्छा संकलन सम्पादित किया है।
अन्य कई प्रकाशकों ने भी अब भगतसिंह के लेखों के अनेक संकलन प्रकाशित किये हैं। इसके अलावा बहुत-सी भारतीय भाषाओं में ऐसे संकलन छप चुके हैं। मैं नास्तिक क्यों हूँ, क़ौम के नाम सन्देश, ड्रीमलैंड की भूमिका, विद्यार्थी और राजनीति तथा अछूत समस्या जैसी उनकी अलग-अलग रचनाओं और दस्तावेज़ों को देशभर के कितने प्रकाशकों, जनसंगठनों और संस्थाओं ने कितनी भाषाओं में अनुवाद करके छापा है, इसकी गिनती करना भी आज मुश्किल है।
भगतसिंह पर भारत और विदेशों में लिखी गयी गम्भीर किताबों की संख्या भी कम से कम 50 है, आगे फिर कभी इन पर चर्चा करूँगा। भगतसिंह और उनके साथियों के मुक़दमों और उनसे जुड़े क़ानूनी दस्तावेज़ों पर भी कई किताबें आ चुकी हैं जिनमें ए.जी. नूरानी की शोधपूर्ण किताब The Trial of Bhagat Singh विशेष उल्लेखनीय है।
आलेख _ सत्यम
फेसबुक पोस्ट से साभार