साम्प्रदायिक दंगे और भारतीय पुलिस विभूति नारायण राय

पूर्व अधिकारी भारतीय पुलिस सेवा (IPS) नेे अपनी किताब में  बहुधा   धर्म निरपेक्ष व्यवहार न करने के पुलिस  के उदाहरण  प्रस्तुत  किये  .

वे लिखते हैं भारतीय पुलिस के व्यवहार को सांप्रदायिक  दंगों  के दौरान मुझे एक पुलिस अधिकारी की हैसियत से नज़दीक से देखने का मौक़ा मिला है. मेरे लिये हमेशा पुलिसकर्मियों का व्यवहार सबसे तकलीफ़ का बायस रहा है.  हर बार यही लगता रहा है कि पुलिसकर्मी एक ख़ास तरह के पूर्वाग्रह और अल्पसंख्यक-विरोधी मानसिकता के तहत काम करते हैं. देश के लगभग सभी बड़े दंगों का अध्ययन करने के बाद मेरा यह विश्वास दृढ़ हुआ है कि पुलिस-बलों में कार्मिकों की संख्या, हथियार, वाहन, संचार-उपकरण जैसे ‘लोजिस्टिक्स’ में वृद्धि करने से अधिक महत्वपूर्ण है उनकी सोच में परिवर्तन लाना. एक बड़ा और सुसज्जित पुलिस-बल इच्छा-शक्ति और धर्मनिरपेक्ष आचरण के बिना वैसा ही प्रदर्शन करेगा जैसा हमने 6 दिसंबर, 1992 को देखा जब बीस हज़ार से अधिक पुलिस जनों के सामने बाबरी मस्जिद तोड़ दी गयी और वे बिना किसी प्रतिरोध के चुपचाप खड़े देखते रहे.
अहमदाबाद (1969) में हुए दंगों की जाँच कर रहे जगमोहन रेड्डी आयोग ने आधे दर्जन से अधिक ऐसे मामले गिनाए हैं, जहाँ पुलिस थानों अथवा चौकियों से सटे हुए मुस्लिम धर्मस्थलों को नष्ट किया गया. आयोग के सामने रायखाड़ पुलिस लाइन्स के पास स्थित सय्यदवाड़ा के मुसलमानों तथा वहाँ स्थित मस्जिद पर पुलिसकर्मियों के हमले का मामला भी आया.भागलपुर (1989) में तो एक उदाहरण ऐसा भी है जहाँ पुलिसकर्मियों ने पुलिस लाइन्स से निकलकर उससे सटे एक मुस्लिम मोहल्ले पर हमला कर दिया और लूटपाट की,ये दोनों उदाहरण भी पुलिस के हिन्दू बने रहने के उदहारण हैं.
जब कभी सरकार या वरिष्ठ अधिकारियों की ओर से सख़्ती बरतने का आदेश दिया जाता है तो बिना किसी विवाद के यह मान लिया जाता है कि इस सख़्ती का मतलब मुसलमानों के साथ सख़्ती है. सख़्ती के विभिन्न स्वरूपों में गिरफ़्तारी का मतलब मुसलमानों की गिरफ़्तारी, तलाशी का मतलब मुसलमानों के घरों की तलाशी और पुलिस फ़ायरिंग का मतलब मुसलमानों पर फ़ायरिंग होता है.


हमारे अवचेतन पर पूर्वाग्रह कितना गहरा असर डालते हैं और हमारा आचरण किस क़दर उनसे प्रभावित होता है, इसका एक बड़ा उदाहरण साम्प्रदायिक हिंसा के दौरान पुलिसकर्मियों के आचरण में मिलता है। उन दंगों में भी, जहाँ पहले क्षण से ही मुसलमानों की क्षति शुरू हो गयी थी और जिनमें हिन्दुओं के मुक़ाबले बहुत बड़ी संख्या में मुसलमान मारे गए, उनमें भी कार्यरत रह चुके पुलिसकर्मियों से बात करने पर बड़ी दिलचस्प मानसिकता सामने आयी. दंगे के दौरान तो वे मानते ही रहे कि सारी शरारत के पीछे मुसलमानों का हाथ है, दंगा समाप्त होने के काफी दिनों बाद भी, जब यह स्पष्ट हो गया कि दंगे में क्षति किसकी हुई, उनके पास यह सिद्ध करने के लिए ‘अकाट्य’ सबूत थे कि दंगे की पूरी ज़िम्मेदारी मुसलमानों की थी.
1987 में मेरठ में भयानक दंगे हुए जो रुक-रुककर कई महीनों तक चलते रहे. इस दंगे से निपटने वाले पुलिसकर्मी किस तरह के पूर्वाग्रहों से ग्रस्त थे इसका उदाहरण हाशिमपुरा की घटना में मिलता है. दंगा शुरू होने के पाँच दिन बाद अर्थात् 22 मई को दिन में सेना, पी.ए.सी. और पुलिस ने हाशिमपुरा मोहल्ले में तलाशियाँ लीं। हाशिमपुरा मेरठ शहर के मध्य में बसा एक मुस्लिम बहुल इलाक़ा है, जिसमें काफी संख्या में करघों पर काम करने वाले बुनकर रहते हैं. इन बुनकरों में भी एक अच्छी संख्या रोज़गार की तलाश में आये बिहारी बुनकरों की है. तलाशी के दौरान मुसलामानों को उनके घरों से निकालकर बाहर बैठा लिया गया और फिर उनमें से छाँट-छाँट कर नौजवानों को एक किनारे इकठ्ठा किया गया. इन नौजवानों को पी.ए.सी. के ट्रक में हाशिमपुरा से सीधे गाज़ियाबाद की तरफ ले जाया गया. मेरठ गाज़ियाबाद के लगभग मध्य में स्थित मुरादनगर क़स्बे की शुरुआत के पहले पड़ने वाली गंगनहर पर मुख्य सड़क से हटकर, नहर की पट्टी पर कुछ किलोमीटर अन्दर ले जाकर, पी.ए.सी. के जवानों ने ट्रक में चढ़े हुए लोगों को उतरने का हुक्म दिया. कुछ के नीचे उतरते ही उन्होंने अपनी थ्री नॉट थ्री की राइफ़लों से भूनकर नहर में फेंकना शुरू कर दिया. सम्भवतः गोलियों की आवाज़ सुनकर गाँव वाले वहाँ इकट्ठे होने लगे थे या फिर बचे हुए लोगों ने आसन्नमृत्यु से डरकर ट्रक से उतरने से इन्कार कर दिया, इसलिए उन जीवित लोगों को लेकर यह ट्रक फिर गाज़ियाबाद की ओर भाग. गाज़ियाबाद जाने का एक कारण सम्भवतः यह था कि पी.ए.सी. की जिस टुकड़ी ने यह दुष्कृत्य किया था, वह इक्तालीसवीं बटालियन की थी और उसका मुख्यालय गाज़ियाबाद में था, इसलिए वहाँ पहुँचकर वे ज़्यादा सुरक्षित महसूस कर सकते थे. इक्तालीसवीं बटालियन का मुख्यालय गाज़ियाबाद-दिल्ली सीमा पर राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है। यह ट्रक इस मुख्यालय से लगभग आधा किलोमीेटर पहले कच्चे मार्ग पर उतर गया और मुख्य सड़क से थोड़ी दूर स्थित एक नहर पर जाकर रुका. वहाँ शेष बचे लोगों को घसीटकर ट्रक से उतारा गया और उन्हें भी गोली मारकर नहर में फेंक दिया गया. इस कार्यवाही के बाद ट्रक फिर तेज़ी से कच्चा रास्ता पार करते हुए बटालियन कैम्पस के अन्दर भाग गया.वहाँ थोड़ी देर रुकने के बाद ट्रक और उसके सवार मेरठ चले गए, जहाँ उस समय वे ड्यूटी पर थे.
मैं इस घटना के दौरान गाज़ियाबाद का पुलिस अधीक्षक था. मैंने थाना लिंक रोड और थाना मुरादनगर पर इस लोमहर्षक हत्याकाण्ड की रपटें दर्ज करने का हुक्म दिया. 23 मई 1987 को दर्ज की गयी इन रपटों के आधार पर आज तक किसी अपराधी को दण्डित नहीं किया जा सका है.
भिवंडी, जलगाँव (1970) के दंगों की जाँच कर रहे न्यायमूर्ति मदन कमीशन ने रिपोर्टिंग के दौरान प्रदर्शित साम्प्रदायिक मनोवृत्ति के कई उदाहरण गिनाए हैं.न्यायमूर्ति मदन की राय बड़ी स्पष्ट है:
“दुर्भाग्य से पुलिस अधीक्षक एस.टी. रमन का मस्तिष्क साम्प्रदायिकता से भरपूर था और संभवतः वह जनसंघ की तरफ आकृष्ट था.”
खुफिया विभाग ने भी इस दंगे को लेकर इसी मनोवृत्ति का परिचय दिया. पी.एस.आई. बड़गूजर ने डी.आई.जी. आई.एन. टी.टी. को भेजी गयी रिपोर्ट में यह एकदम ग़लत तथ्य अंकित किया कि दंगा मुसलमानों द्वारा हिंदुओं के घरों पर जलती मशालें फ़ैकने से शुरू हुआ.
दंगों से सम्बन्धित मुक़दमों की तफ़्तीश करने वाली एजेन्सियों के आचरण में भी साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह की प्रवृत्ति साफ़ दिखाई देती है.
अध्ययन के मुख्य निष्कर्ष निम्नलिखित हैं:
(क) अधिकाँश दंगों में पुलिस का व्यवहार पक्षपातपूर्ण रहा है. इस अध्ययन में वर्णित सभी दंगों में पुलिस ने क़ानून और व्यवस्था लागू करने वाली तटस्थ संस्था से अधिक एक ‘हिन्दू’ बल के रूप में कार्य किया.
(ख) बल-प्रयोग, निरोधात्मक गिरफ़्तारियों, कर्फ़्यू लागू करने, पुलिस थानों में व्यक्तियों के साथ व्यवहार, तथ्यों की रिपोर्टिंग तथा दंगे के दौरान दर्ज मुक़दमों की तफ़्तीश और पैरवी में पुलिस के आचरण में स्पष्ट भेदभाव दिखाई देता है. इन सारे प्रसंगों में मुसलमान ही ज़्यादती के शिकार होते हैं.
यह भी एक तथ्य है कि 1960 के बाद उत्तर प्रदेश में एक भी दंगा नहीं हुआ, जिसमें सामाजिक कार्यकर्ताओं और मानवाधिकार संगठनों ने पी.ए.सी. की भूमिका को पक्षपातपूर्ण और विशेष रूप से मुस्लिम विरोधी न पाया हो.
इसके बाद साल-दर-साल लगभग सभी दंगों में पी.ए.सी. ने अपना मुस्लिम विरोधी प्रदर्शन जारी रखा.
भिवंडी के दंगों (1970) के दौरान तलाशियों, गिरफ़्तारियों और तफ़्तीशों के सिलसिले में भेद-भाव इतना मुखर था कि इन दंगों की जाँच करने वाले न्यायिक आयोग ने मजबूरन पुलिस के विरुद्ध बहुत गम्भीर आक्षेप लगाए.

विभूति नारायण राय (IPS), ‘सांप्रदायिक दंगे और भारतीय पुलिस, पृष्ठ 94, 98,100, 101,105, 115, 117
राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली पुुस्तिका से

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here