सौ दिन की सरकार और हजार करोड़ का प्रचार

(आलेख : बादल सरोज,वरिष्ठ वामपंथी विचारक, भोपाल )

मोदी-02 ने अपने सौ दिन पूरे होने का जश्न धूमधाम से मनाने की विराट योजना में फूंकने के लिए एक हजार करोड़ रूपये आवंटित कर दिए है. विज्ञापनों में खर्च किए जाने वाली हाल के दौर की यह सबसे बड़ी रकम है. अब तक की सर्वाधिक विज्ञापन आश्रित मोदी सरकार के खुद के पिछले तीन वर्षों में खर्च किये 3804 करोड़ रुपयों के हिसाब से भी काफी ज्यादा बड़ी राशि है.  देश की समग्र माली हालत को देखते हुए यह फिजूलखर्ची जायज सवाल खड़े करती है.  अभी पखवाड़ा भी नहीं हुआ है जब यही सरकार खुद को दिवालिया होने से बचाने के लिए रिज़र्व बैंक के आपदा भण्डार में पौने दो लाख करोड़ रूपये की सेंध लगा रही थी. डिविडेंड्स, टैक्स और कमाई के अंशदान और जमापूंजी के रूप में लाखो करोड़ रूपये के सोने के अंडे देने वाले पब्लिक सेक्टर संस्थानों को अपने लगुये-भगुये कारपोरेटों को औने-पौने दामों में बेचकर  90 हजार करोड़ रूपये जुटा रही थी.  इसरो के वैज्ञानिकों की तनख्वाहें घटा रही थी – खर्च बचाने के लिए 10 राष्ट्रीयकृत बैंकों को एक में मिला रही थी. भाड़े बढ़ा रही थी – ट्रेफिक चालानों के जरिये फिरौती वसूल रही थी. अब वही सरकार हजार करोड़ रुपए खर्च करके अपनी सियाह स्लेट को साफ सुथरा और अपठनीय इबारत को ख़ुशख़त सुलेख दिखाने के भरम फैलाने की जुगत मे है.

शेष जिसमे कुछ नहीं ऐसी इबारत ग्रन्थ के आकार में लानी हो तब “थोथा चना बाजे घना “की कहावत अमल में आती  है. जब बताने के लिए कुछ नहीं होता तब शोर मचाने के सिवाय कोई दूसरा रास्ता भी नहीं होता, फिर गोयबल्सी-गुरुकुल-दीक्षित यह मंडली तो इस तरह की विधाओं में ख़ासतौर से  पारंगत है. यही प्रचारलिप्सा तो थी जिसने देश के काबिल वैज्ञानिकों तक पर दवाब बनाया और उन्हे बिना पूरी तैयारी के ही चंद्रयान-2 प्रक्षेपित करने  के लिए मजबूर कर दिया. अब यह उजागर हो चुका है कि यह जल्दबाज़ी गिरती अर्थव्यवस्था से ध्यान हटाने के लिए और मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के 100 दिन पूरे होने पर कुछ नया करके दिखाने के लिए की गई थी.  इसी हड़बड़ी के चक्कर मे चंद्रमा पर उतरने वाले शोध उपकरण के लैंडर को ठीक से टेस्ट भी नहीं किया गया था, ग़ुब्बारे के साथ सहजता से उतारने की बजाय क्रेन से मैन्यूअली, वह भी सिर्फ़ अंतिम 60 मीटर का टैस्ट करके पहुंचा दिया गया था

अब उसका जो अफसोसनाक हश्र होना था सो हुआ, मगर हद तो तब हुयी जब गले पड़ने की विधा मे विश्वविख्यात हो चुके प्रधानमंत्री जैकिट बदल-बदल कर खीर और महेरी दोनों में साझेदारी के फोटो खिंचवाने से नहीं चूके.

आखिर इन 100 दिनों मे ऐसा क्या हुआ जिनका जश्न मनाना चाहती है सरकार ?

ये सौ दिन कश्मीर से कामरूप तक, जमशेदपुर से मानेसर तक, रेल से बीएसएनएल तक, वित्त से रक्षा तक चौतरफा विनाश, अविश्वास और बिखराव के सौ दिन हैं. विडम्बना और संत्रास के सौ दिन है. मंदी की अब सिर्फ आहट भर नहीं है, इस बुलाई और न्यौती गई विपदा ने अपनी छाया मे सब कुछ ढांप लिया है. इसकी धमक से सिर्फ कंगूरे ही धराशायी नहीं हो रहे – बुनियादें हिल रही हैं. यह स्थिति पिछली 5 वर्षों की बेतहाशा दिवालिया नीतियों के कारण आयी है. जिनका नतीजा है बेरोजगारी का सारे अनुमानों और आशंकाओं से आगे हो जाना, 18 करोड़ परिवार जिस से जुड़े हैं उस खेती किसानी का संकट बढ़ जाना, मजदूर कर्मचारियों की सिकुड़ती आमदनी और निजीकरण के चलते जिंदा रहने पर होने वाले खर्च का बढ़ जाना है. मगर बजाए इन चारों मोर्चों को संभाल कर क्रयशक्ति बढ़ाने के सिर्फ कारपोरेट को रियायतें देना एक नया अर्थशास्त्र है जिसे मोदीनोमिक्स कहते हैं. आरबीआई के रिज़र्व में लगाई सेंध इसी का नमूना है. इस सबको छुपाना है – इसलिए ढ़ोल ताशे, झांझ मंजीरे ज़ोरों से बजाना है.

इन 100 दिनों का हासिल यह है कि अपने ही देश के एक पूरे प्रदेश – कश्मीर – को जेलखाने और दूसरे प्रदेश असम के 20 लाख नागरिकों को कैदियों में तब्दील करके रख दिया गया है. देश भर में फैले कश्मीरी अपने ही मुल्क में अजनबी परदेसी बना दिये गए हैं. भारत के संविधान में यकीन करके उसी के दायरे में अपनी मुश्क़िलों के हल ढूंढने के हामी सारे राजनेता या तो जेल में हैं या घरों में नजरबंद कर दिए गए हैं. संपर्क से चंद्रयान ही नहीं कटा, करीब एक करोड़ हिंदुस्तानी भी महीने भर से अधिक समय से टेलीफोन, अखबार, टीवी, इंटरनेट से कटे हुए हैं. उधर असम मे .घर घर मे अफरातफरी मची है. नागरिकता सूची मे माँ है तो बेटा गायब है – बेटी है तो पिता गायब है. बजाय इस खतरनाक तुगलकी कारनामे से सबक सीखने के अब कोई बिहार मे तो कोई दिल्ली और हरियाणा मे इसी तरह कि कवायद की मांग कर रहा है. देश के गृहमंत्री पूरे देश मे इसे आजमाने की घोषणाएँ कर रहे हैं.  कुल जमा 73 साल की आजादी में शासन निर्मित बिखराव का ऐसा कोई भी दूसरा उदाहरण नही है.

सवाल इतना सा है कि उपलब्धियों के नाम पर क्या गिनाएंगे ? कामयाबियां कौन कौनसी बताएंगे ? फैज अहमद फैज के शब्दों मे कहें तो ;

“बीता दीद उम्मीद  का मौसम

ख़ाक उड़ती है आँखों में

किसने वस्ल का सूरज  देखा

किस पर हिज्र की रात ढली

गेसुओं वाले कौन थे, क्या थे

उनको क्या बतलाओगे . ”

जब बतलाने के लिए कुछ नहीं होता तब झांसा देने के लिए काले जादू के तिलिस्म और कापालिकों की मसान सिद्दि के सिवाय और कोई सहारा नहीं बचता.  उसी में लगे हैं जिसका हिन्दू से कोई रिश्ता नहीं है उस हिन्दुत्व के हुक्मरान ; खुद अमरीका से इलाज करके लौटे.  एक मंत्री कैंसर और दूसरे असाध्य रोगों की चिकित्सा के लिए गौमूत्र और गोबर को रामबाण बताने में लगे हैं, तो दूसरे वाले शिक्षामंत्री आधुनिकतम शिक्षा के केन्द्रों मे से एक आईआईटी खड़गपुर के दीक्षांत समारोह मे भविष्य के इन वैज्ञानिकों को ज्ञान देते हैं कि राम सेतु का निर्माण भारत के “वानर इंजीनियरों” ने किया था, कि शंकर ने सारा विष पिया,  तब कहीं जा कर दुनिया बची, कि संस्कृत दुनिया की सबसे पुरानी और पहली भाषा है. अब बात सिर्फ कहने सुनने तक नहीं रही – इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आई सी एम आर) ने कोमा मे पड़े मरीजों पर महामृत्युंजय जाप करवाने के लिए राशि भी आवंटित कर दी है. राजनीतिक क्षितिज पर बरपा अंधकार आर्थिक, सामाजिक पटल को अपनी व्याप्ति मे लेने के बाद विज्ञान और अनुसंधान को भी अपनी चपेट मे लेने निकल पड़ा है.

अनकिए को उपलब्धि और ढलान को ऊंचाई बताने की कवायद का तुमुलनाद शुरू हो चुका है. झूठ की अश्वमेध यात्रा के सजे सजाये घोड़े आ चुके हैं. इनसे असहमति जताने और सवाल उठाने वालों को राष्ट्रद्रोही करारा देने के लिए भक्त छुट्टा छोड़े जा चुके हैं. बस एक ही पेंच है और वह यह कि शासकवर्गों की एक मुश्किल हमेशा से रही है, जो यह है कि सब कुछ उनके चाहने से नहीं होता. इसी बीच पहले पॉण्डिचेरी, जेएनयू, फिर समूचे केरल, राजस्थान और अब टिस मे हुये छात्रसंघ चुनावों के परिणामों ने नई पीढ़ी के रुझान मुखरता के साथ सामने ला दिये हैं. मजदूरो  और किसानों के बीच जगार के साथ शिक्षा संस्थानो मे भी अंधकार के विरुद्द मशालें सुलगना शुरू हो गई हैं.

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