भारतीय-प्रवासी क्रांतिकारियों ने 17 अक्टूबर, 1920 को ताशकंद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की थी .
भारत की कम्युनिष्ट आन्दोलन के 17 अक्टूबर को 100 वर्ष पूरे होने पर राष्ट्रीय महासचिव कामरेड सीताराम येचुरी ने महत्वपूर्ण आलेख जारी किया है जिसका हिंदी अनुवाद प्रस्तुत है –


“सीटी की गूंज एक सौ मील तक सुनाई देती है “
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के गठन के बाद की ये सदी आधुनिक भारत के इतिहास में एक शानदार अध्याय का निर्माण करती है –
संघर्ष का एक इतिहास, अनगिनत लोगों का बलिदान
अपनी स्थापना के बाद से स्वतंत्रता संग्राम के दौरान और उसके बाद से क्रांतिकारी और लोगों के मुद्दों को राष्ट्रीय एजेंडा में लाने में कम्युनिस्टों ने महत्वपूर्ण योगदान किया.
समकालीन, विकसित घटनाओं का वैज्ञानिक भौतिकवादी विश्लेषण

स्वतंत्र भारत में लोगों की आजीविका और राजनीतिक संरचनाओं को बेहतर बनाने के लिए आवश्यक समाधानों को संयोजित करना. यह एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य की दृष्टि पर आधारित था, जो अंततः हमारी राजनीतिक स्वतंत्रता को आर्थिक स्वतंत्रता में बदलने की दिशा में आगे बढ़ता है. हमारे सभी लोगों की मुक्ति, केवल समाजवाद के तहत संभव है.

शताब्दी के इस पूरे वर्ष के अवलोकन के दौरान कम्युनिस्ट योगदान का समृद्ध विवरण तथा इसकी शुरुआत की नींव और उपलब्धियों का दस्तावेजीकरण किया जाएगा इसलिए, यहाँ हम कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर प्रकाश डालते हैं.
शुरुआत
प्रथम विश्व युद्ध के पहले और दौरान के वर्षों में उदारवादी नेताओं और क्रांतिकारी रैंकों के बीच राष्ट्रीय आंदोलन के भीतर संघर्ष देखा गया. यह रूसी क्रांति की विजय के साथ परिवर्तित हुआ.
1917 में हुई रुसी क्रांति, जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारियों को प्रेरित किया, क्योंकि इसने पूरी दुनिया में क्रांतिकारियों को प्रोत्साहित करने का काम किया. इन दोनों कारकों के संयोजन ने कई भारतीय क्रांतिकारियों को कम्युनिस्ट बनने के लिए प्रेरित किया.
कुछ भारतीय क्रांतिकारियों ने दुनिया में पहली सर्वहारा क्रांति की भूमि तक पहुँचने के लिए बहुत ही कठिन यात्रायें की.
भारतीय-प्रवासी क्रांतिकारियों ने 17 अक्टूबर, 1920 को ताशकंद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की पहल की. यहाँ संगठन निर्माण हेतु पहली बार, सैद्धांतिक और व्यावहारिक शिक्षा प्रदान की गई थी.
भारत भर में क्रांतिकारियों के विभिन्न बिखरे समूहों के लिए बंबई, कलकत्ता, मद्रास और यूपी-पंजाब क्षेत्र के छोटे कम्युनिस्ट समूह, सभी को मार्क्सवाद-लेनिनवाद की जानकारी के लिए एक साथ 1925 में कानपुर में एक कम्युनिस्ट सम्मेलन के लिए लाया गया और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने देश के अंदर काम करना शुरू कर दिया. कामरेड एम. एन. रॉय और ब्रिटिश कम्युनिस्टों के एक नेता रजनी पाल्म दत्त द्वारा प्रदान किए गए सैद्धांतिक-वैचारिक इनपुट ने कई भारतीय कम्युनिस्टों की चेतना को आकार दिया.
अपने गठन के ठीक बाद, कम्युनिस्ट पार्टी ने राष्ट्रीय आंदोलन के एजेंडे को प्रभावित करना शुरू कर दिया. अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी, 1921 के अहमदाबाद अधिवेशन में, मौलाना हसरत मोहानी और स्वामी कुमारानंद ने एक प्रस्ताव रखा, जिसे तब तक गांधीजी द्वारा स्वीकार नहीं किया गया था क्योकि गांधी जी ब्रिटिश शासन से पूर्ण स्वतंत्रता की मांग कर रहे थे, पर अगले AICC में, जो गया (बिहार) में 1922 में आयोजित हुई, CPI ने राष्ट्रीय आंदोलन के लिए उद्देश्यों के एक चार्टर का वितरण कर दिया .
तीव्र दमन
अंग्रेजों ने भारत में एक संगठित कम्युनिस्ट पार्टी के खतरों को शुरुआत से देखा और साजिश के मामलों के माध्यम से तीव्र दमन की शुरूआत कर दी. पेशावर षड्यंत्र के पांच मामले शुरू किए गए.
प्रवासी क्रांतिकारियों के खिलाफ, ऐसे मोहाजिरों के खिलाफ जिन्होंने मई 1922 में मॉस्को पहुंचने की कोशिश की थी , फिर कानपुर षड्यंत्र केस 1923-24 में शुरू किया गया. भारत के बाहर के कई क्रांतिकारियों को वापस लौटने पर गिरफ्तार कर लिया गया और घरेलू नेताओं को गिरफ्तार कर कठोर सजा सुनाई गई, कैद किया गया . इससे पहले 1915 में, लाहौर षड्यंत्र केस के नाम से उन क्रांतिकारियों के खिलाफ मजबूत मामला थोप दिया गया था, जो ग़दर पार्टी आंदोलन का हिस्सा थे,उनमे से कई भारत लौटने पर और पड़ोसी दक्षिण एशियाई देशों में पकडे जाने पर दोषी पाए गए. ऐसे कुल 291 में से 42 को फांसी दी गई और 114 को उम्रकैद की सजा सुनाई गई. बड़े पैमाने पर हुआ दमन मेरठ साजिश के मामले के साथ सामने आया, जिसमें 20 मार्च, 1929 को कम्युनिस्ट पार्टी के 31 प्रमुख नेताओं के खिलाफ मुकदमा चलाया गया तथा जब इन नेताओं ने अपनी सजाएं पूरी करने के बाद सार्वजनिक जीवन में वापसी की उसके बाद से ही सीपीआई का अखिल भारतीय केंद्र 1934 में बन पाया और तब से यह नियमित रूप से आज तक कार्य कर रहा है.

विचारधारा की लड़ाई

आज़ादी के आन्दोलन में समावेशी भारत के उदय की अवधारणा तीन मुख्य विचारो पर आधारित थी. संघर्ष के दौरान उभरे तीन अवधारणाओं के बीच निरंतर लड़ाई होती रही. जिसमें प्रथम मुख्यधारा की कांग्रेस की दृष्टि ने कल्पना की थी कि “ स्वतंत्र भारत एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य हो सकता है.” कम्युनिस्टों ने इस पर सहमति व्यक्त करते हुए आगे कहा कि इस तरह की धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक संरचना अस्थिर होगी, यदि स्वतंत्र भारत पूंजीवादी विकास का मार्ग अपनाता है. इस प्रकार, कम्युनिस्टों ने उस राजनीतिक स्वतंत्रता की कल्पना की, , जिसमे प्रत्येक भारतीय -सामाजिक स्वतंत्रता को समतावादी समाजवादी समाज की स्थापना के तहत ही बढ़ाया जाना चाहिए.
इन दोनों के प्रति विरोधी तीसरी अवधारणा है जिसने तर्क दिया कि स्वतंत्र भारत के चरित्र को उसके लोगों की धार्मिक संबद्धता से निर्धारित किया जाना चाहिए. इस दृष्टि की एक जुड़वां अभिव्यक्ति थी – मुस्लिम लीग एक ‘इस्लामिक स्टेट’ और आरएसएस अपने ‘हिंदू राष्ट्र’ की अलमबरदार थी. इन दोनों ताकतों में मुस्लिम लीग अपनी जिद पूरी करने में सफल रही.जबकि हिंदूवादी ताकतें पीछे रह गयीं. परिणामतः अंग्रेजों द्वारा इन मुद्दों को जीवित रखते हुए सफलता पूर्वक देश का विभाजन किया गया , जिसका परिणाम ये है कि तनाव आज भी कायम है, आधुनिक भारत में स्वतंत्रता के समय अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में विफल रहने के बाद से ऐसे फासीवादी तत्व , आज देश को एक असभ्य, असहिष्णु, फासीवादी ‘हिंदू राष्ट्र’ में बदलने की अपनी परियोजना के प्रयासों में लगे रहे. इसी क्रम में देश में महात्मा गांधी की हत्या परिलक्षित हुई. इससे व्यथित देश ने तथा भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन ने आरएसएस के दृष्टिकोण और राजनीतिक परियोजना को अस्वीकार कर दिया.
जाहिर है, आज की वैचारिक लड़ाई और राजनीतिक संघर्ष, एक तरह से, इन तीनों अवाधारनाओ के बीच आज भी इस लड़ाई की निरंतरता है.

वामपंथियों की भूमिका

कम्युनिस्ट पार्टी ने राष्ट्रीय आंदोलन के महत्वपूर्ण मुद्दों के एजेंडे को संघर्षों के माध्यम से लाकर एक समावेशी भारत के विकास में एक बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
सबसे पहले देश के विभिन्न हिस्सों में कम्युनिस्टों द्वारा फैलाए गए भूमि प्रश्न पर संघर्ष – केरल में पुन्नपारा वायलार, बंगाल में तेभागा आंदोलन, असम में सूरमा घाटी संघर्ष, महाराष्ट्र में वारली विद्रोह आदि- जिसके मुख्य आन्दोलन थे .
तेलंगाना में सशस्त्र संघर्ष ने भूमि सुधार के मुद्दे को केंद्र पर लाया.इसके बाद जमींदारी प्रथा उन्मूलन ने और किसान -खेतिहारी मजदूरो के आन्दोलन के परिणाम स्वरुप करोड़ों लोगों को सामंती बंधन से मुक्त किया गया और ग्रामीण भारत के शोषणकारी वर्गों को मुक्ति आंदोलन में शामिल किया गया. इसके विपरीत कांग्रेस नेतृत्व ग्रामीण भारत में शोषणकारी वर्गों को भागीदार बनाने का प्रयास कर रहा था.
दूसरी ओर कम्युनिस्ट पार्टी ने स्वतंत्र भारत में राज्यों के भाषाई पुनर्गठन के लिए लोकप्रिय संघर्षों की अगुवाई की. इस प्रकार, यह मुख्य रूप से वैज्ञानिक और लोकतांत्रिक रेखाओं पर भारत के आज के राजनीतिक मानचित्र को बनाने के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है. विशालांध्र, ऐक्य केरल और संयुक्त महाराष्ट्र के संघर्षों का नेतृत्व अन्य लोगों में किया गया था, जो कम्युनिस्ट दिग्गजों के रूप में उभरे थे.
इसने कई भाषाई राष्ट्रीयताओं के एकीकरण का मार्ग प्रशस्त किया,जिससे समावेशी भारत का निर्माण संभव हुआ जो समानता पर आधारित था.

तीसरी महत्वपूर्ण बात है, धर्मनिरपेक्षता के लिए वामपंथियों की दृढ़ प्रतिबद्धता, भारत की सर्व समावेशी मान्यता पर आधारित थी. वास्तव में सीपीआई के गठन के तुरंत बाद, 1920 की शुरुआत में एम एन रॉय ने पार्टी की ओर से, 1920 के दशक में हुए सांप्रदायिक दंगों की पृष्ठभूमि में, लिखा कि सांप्रदायिक विभाजन को परास्त करने की एकमात्र क्षमता वर्गीय एकता में है. साम्राज्यवाद के खिलाफ सभी जातियों और समुदायों के लोग को एकजुट किया जाना चाहिए और शोषक वर्ग को अलग थलग.
अपनी विविधता के साथ भारत की एकता को केवल इस विविधता के भीतर समानता के बंधन को मजबूत बनाए रखते हुए सुरक्षित रखा जा सकता है, इस विविधता पर कोई एकरूपता लादकर नहीं. आज सत्ता पर हावी सांप्रदायिक ताकतें इसी तरह की एकरूपता को आक्रामक ढंग से थोपने पर आमादा हैं.
भारत की सामाजिक विविधता की सभी विशेषताओं के लिए समानता के बंधन को मजबूत करना, धर्मनिरपेक्षता के जटिल संबंध के निर्वाह के लिए भी महत्वपूर्ण है.
भारत के बंटवारे और भयावह सांप्रदायिक विभाजन के बाद, धर्मनिरपेक्षता एक सर्व समावेशी भारत का अविभाज्य तत्व बन गया. धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है मुख्यतः धर्म को राजनीति से अलग रखना. इसका मतलब यह है कि जबकि राज्य किसी एक धर्म को स्वीकार या पसंद नहीं करेगा, प्राथमिकता नहीं देगा. वह किसी भी व्यक्ति के धार्मिक आस्था के विश्वास के विकल्प की स्वतंत्रता की रक्षा करेगा, जबकि व्यवहार में स्वतंत्रता के बाद, इस धर्मनिरपेक्षता को सभी धर्मो की समानता के रूप में परिभाषित करने के लिए उल्लेखित किया गया. इसमें बहुमत के धार्मिक विश्वास के प्रति अंतर्निहित पूर्वाग्रह है. यह वास्तव में इस बात को रेखांकित करता है कि बहुसंख्यकों के धार्मिक आग्रहों को अन्य के आस्थाओं पर दबाव प्रदान करने की स्थिति है, जो कि आज सांप्रदायिक और कट्टरपंथी ताकतों को प्रोत्साहित करता है.
उभरता हुआ शासक वर्ग और वर्गों का युद्ध
भारतीय बुर्जुआ, जो शायद औपनिवेशिक देशों में सबसे अधिक विकसित है, स्वतंत्रता के बाद पूंजीवादी विकास के मार्ग को आगे बढ़ाने के लिए उत्सुक था। शासक वर्गों की भूमिका को ग्रहण करने के लिए, इसने जमींदारों के साथ गठबंधन किया और सत्ता के हस्तांतरण के लिए साम्राज्यवाद के साथ सौदा किया। इस प्रकार, उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि स्वतंत्रता आंदोलन भारत को साम्राज्यवाद और सामंतवाद दोनों से मुक्त करने का कार्य पूरा न करे। इसलिए कम्युनिस्ट पार्टी ने भारतीय क्रांति की लोकतांत्रिक अवस्था को तीन कार्यों के पूरा होने के रूप में परिभाषित किया- सामंतवाद विरोधी , साम्राज्यवाद विरोधी और एकाधिकारवाद विरोधी .
भारत के अन्दर के तथा बाहर के भी कम्युनिस्ट आन्दोलन से सहानुभूति रखने वाले कई लोग अक्सर ये प्रश्न खड़ा करते हैं कि क्या कारण है कि 1920 में गठित कम्युनिष्ट पार्टी ने भारत में समाजवाद लाने का अपना लक्ष्य अब तक प्राप्त नहीं किया है जबकि कोरिया , चीन और वियतनाम जैसे देशो में उसी समय खड़े हुआ आन्दोलन ने सफलता पूर्वक समाजवादी गणराज्य का लक्ष्य प्राप्त कर लिया है. भारत में ये न होने का कारण क्या है? निष्ठा या त्याग की कमी इसका उत्तर नहीं है.
भारतीय कम्युनिस्टों के पास जनता के बड़े वर्ग के लिए लड़ाई का गौरवपूर्ण रिकॉर्ड है, राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन के समय श्रमिक वर्ग, किसानों और लाखों अन्य उत्पीड़ित वर्गों के शोषित वर्गों की रक्षा के लिए उन्होंने भारी त्याग किया है. वे भारत में क्रांतिकारी आंदोलन की सर्वोत्तम परंपराओं का प्रतिनिधित्व करते हैं. मार्क्सवाद-लेनिनवाद एक रचनात्मक विज्ञान है. इसमें ‘कठोर स्थितियों का कठोर विश्लेषण’ होता है. केवल जब निर्धारित ‘शर्तों’ का ठीक से पालन नहीं किया जाता है या जब ‘विश्लेषण’ बदलती परिस्थितियों के अनुरूप नहीं होता है, तो गलतियां होती हैं. जबकि साम्यवादियों ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, लेकिन वे मुक्ति संग्राम का नेतृत्व उस तरह अपने हाथों में नहीं ले सके जिस तरह यह चीन, वियतनाम या उत्तर कोरिया में लिया गया था.
भारतीय शासक वर्गों के वर्गीय स्वरूप, भारतीय क्रांति के मार्ग आदि जैसी ठोस परिस्थितियों को लेकर साम्यवादियों के बीच मतभेद, दशकों से विभिन्न विभाजनों के परिणामस्वरूप हुए. भारतीय शासक वर्गों के चरित्र का सही विश्लेषण करने के साथ माकपा वर्ग की लड़ाई में भारतीय लोगों के बड़े वर्गों को जुटा सकी है और इस प्रकार वह स्वतंत्र भारत में प्रमुख साम्यवादी शक्ति के रूप में उभरी.
संसदीय और गैर-संसदीय संघर्षों को मिलाकर माकपा राजनीतिक घटनाक्रमों और भारत में सरकारों के गठन को काफी प्रभावित कर सकी है. केरल में 1957 में पहली कम्युनिस्ट सरकार, पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे की सरकारें और बाद में त्रिपुरा में माकपा के नेतृत्व वाली वाम मोर्चा सरकार के उभरने से पार्टी ने भारतीय संसद में अपनी भूमिका के अलावा, आधुनिक भारतीय राजनीति के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया. तथापि, भारत में पिछले एक दशक के दौरान माकपा का संसदीय प्रभाव काफी कम हो गया है.
दक्षिणपंथी राजनीतिक आक्रमण ने मुख्य रूप से कम्युनिस्टों को अपनी राजनीतिक परियोजना के सबसे गैर-समझौताकारी राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के रूप में निशाना बनाया. यह शारीरिक हमलों, दमन और हिंसा और आतंक की राजनीतिक संस्कृति पैदा करने के माध्यम से किया गया था. ऐसा पहले बंगाल में हुआ है, बाद में त्रिपुरा में और अब केरल में एलडीएफ सरकार को अस्थिर करने के असफल प्रयास किए जा रहे हैं. तथापि, इसी अवधि के दौरान, माकपा शोषित वर्गों, मुख्य रूप से श्रमिक वर्ग और किसानों के संघर्षों का आयोजन करने वाला मुख्य राजनैतिक बल था. पार्टी ने इन संघर्षों को सामने लाया है और राष्ट्रीय एजेंडे पर कई मुद्दों ऐसे रखे हैं जिन्हें कि सार्वजनिक बहस से ख़ारिज नहीं जा सका है. ऐसे और मुद्दे भी लगातार लाये जाना जारी है.

आज की चुनौतियां
आज की चुनौतियां हैं कि – एक कॉर्पोरेट सांप्रदायिक गठबंधन प्रभुत्व में आ गया है जो सांप्रदायिक छद्म राष्ट्रवाद को ‘राष्ट्र’ और लोगों से ऊपर रखने की विचारधारा का प्रचार कर रहा है, लोगों से ‘राष्ट्र’ के नाम पर बलिदान की मांग कर रहा है उसमें ‘राष्ट्र’ के नाम पर जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों को जब्त करना भी शामिल है. हाल ही में, जब लोक सभा द्वारा राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) अधिनियम में संशोधनों पर विचार किया जा रहा था, तो गृह मंत्री गरजे कि संशोधनों का विरोध करने वाले लोग आतंकवादियों का समर्थन कर रहे हैं और उनकी रक्षा कर रहे हैं.” जबकि ये कठोर संशोधन सभी व्यक्तियों के लोकतांत्रिक अधिकारों और नागरिक स्वतंत्रताओं पर गंभीर रूप से प्रभाव डालते हैं. भाजपा सरकार और उसकी नीतियों के खिलाफ असहमति की किसी भी अभिव्यक्ति को ‘राष्ट्र विरोधी’ होने के आधार पर गिरफ्तारी और नजरबंदी का कारण बनाया जा सकता है – इस तरह से देश में ‘पुलिस राज्य’ का वैधीकरण किया जा रहा है.
जम्मू कश्मीर राज्य का हाल ही में समस्याओ का निराकरण इस तरह किया गया कि राज्य के लोगों पर शिकंजा कस दिया गया और दूसरी ओर असम में एनआरसी के कारण अशांति है ही और इसे शेष भारत में लागू करने की धमकियों, नागरिकता संशोधन विधेयक, जिसमें धार्मिक संबद्धता के आधार पर मुसलमानों को छोड़कर भारतीय नागरिकता को परिभाषित करना शामिल है, सभी स्पष्ट संकेत हैं कि आज जो कुछ दांव पर लगा हुआ है, वह एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक संवैधानिक व्यवस्था का अस्तित्व है. इस दक्षिणपंथी राजनीतिक ताकत के लिए चुनौती अनिवार्य रूप से केंद्र के राजनीतिक ताकतों के संसदीय वाम और वाम दलों से आएगी.
माकपा इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए कृतसंकल्प है. इस शताब्दी की टिप्पणियों से हमारी कमियों को दूर करने और साम्यवादी आंदोलन को मजबूत करने के लिए प्रेरणा और अवसर के रूप में भी कार्य किया जाएगा जो हमारी संवैधानिक व्यवस्था की रक्षा करने और इस शोषण को समाप्त करने की दिशा में आगे ले जाने के लिए आवश्यक है. मौलाना हसरत मोहनी द्वारा गढ़ा गया और भगत सिंह द्वारा अमर किया गया – इंकलाब ज़िन्दाबाद का नारा – सांप्रदायिक छद्म राष्ट्रवाद वर्तमान आक्रामक सत्ता के विरुद्ध युद्ध के लिए शहनाई का आह्वान है. सर्व समावेशी भारत की जीत होगी. लोगों के लिए लोकतंत्र की स्थापना का संघर्ष और समाजवाद के लिए आगे का पथ इससे मजबूत होगा.

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