भूमण्डल की स्वप्नहीन रात में मुक्तिबोध


हम चाँद और तारों से रहित स्याह अँधेरी रात के हिंस्र और बर्बर समय में रहते हैं, जहाँ नींद की जगह आँखों में शीशे की किरचें चुभती हैं। दुःस्वप्न शिकारी बाज की तरह हमारा पीछा करते हैं। आत्महत्या कर चुके लाखों किसानों की विधवा स्त्रियों और बच्चों के विलाप हमें बेचैन करते हैं। अपने जल, जंगल और जमीन से विस्थापित आदिवासियों के बहते हुए रक्त से मेरे वस्त्र भीगने लगते हैं। असंख्य मजदूरों के खून और पसीने की बहती नदी को हर क्षण कोई तपती मरुभूमि लील जाती है। असमय बूढ़े हो चुके बेरोजगार नौजवानों की भविष्यहीन आँखें मुझे उदास कर जाती हैं। रातों की नीरवता में उभरती कई निर्भया की एक साथ चीखें, हृदय मेंं तीखी बरछी की तरह चुभती है। दूसरी तरफ लाखों मनुष्यों की कुर्बानियों से पिछली सदी में प्राप्त किये गये सारे मानवीय मूल्य, आदर्श और अधिकार बर्फीले पानी में डूबो दिये गये हैं। दुनिया बड़ी बाजार हो गयी है और मनुष्य को उपभोक्ता मात्र में निःशेष कर देने की साजिशें चल रही हैं। समाजवाद के समक्ष उत्पन्न कुछ समस्याओं के बाद इतिहास और विचारधारा के अंत की घोषणाओं के साथ पूँजी की बर्बर लूट और शोषण को ही मानवीय सभ्यता की अंतिम नियति कहा जा रहा है। आज दुनिया में वर्ग संघर्ष नहीं, सभ्यताओं के संघर्ष की दुहाई दी जा रही है। उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद से हम ठीक से आज़ाद भी नहीं हुए थे कि नवसाम्राज्यवादी गुलामी की अदृश्य बेड़ियों ने हमें जकड़ लिया है। लोकतंत्र के रास्ते घुसकर आज फासीवाद हमारी छाती पर बैठा है। एक-एक कर लोकतांत्रिक संस्थाओं की बलि दी जा रही है। ऐसे में अपने ही निर्दोष नागरिकों का क्रूर हत्यारा टेलीविजन के पर्दे पर फूहड़ स्वाँग रच रहा है। इस उत्तर सत्य के दौर में सत्ता झूठ उगलने की मशीन बन गयी है और जनता को हत्यारी भीड़ में तब्दील कर दिया गया है।
इस क्रूर, हिंस्र, जटिल और बर्बर समय में मुक्तिबोध की कविताओं के भयावह बिम्ब, अन्तः और वाह्य का उनका व्यापक सर्वेक्षण, ईमानदार आत्मालोचन, समझौताहीन संघर्ष और सत्ता से जुड़ाव रखने वाले स्वार्थी बुद्धिजीवियों, कवियों और कलाकारों के प्रति उनकी तीव्र और असमाप्त घृणा, हमेशा सचेत और सक्रिय वर्ग दृष्टि,सामान्य जन के प्रति अगाध विश्वास और उससे जुड़ाव की अदम्य आकांक्षा तथा जनक्रांति का सुन्दर स्वप्न हमारे लिए संजीवनी की तरह है। मुक्तिबोध ने बहुत बेचैनी और तड़प के साथ अपने समय में बहुत गहरे धँसकर कविता को जिया और रचा है। अतः उनकी कविताओं में ऐसी अनुगूँज है, जिसमें हमारे समय की स्पष्ट धड़कन सुनाई देती है। अपने समय में गहरे डूबकर जीने और रचने वाले कवि में न सिर्फ उसका समय बोलता है बल्कि अपनी संभाव्य चेतना के कारण वह आगे आने वाले युगों की संभावनाएँ भी व्यक्त करता है। मुक्तिबोध समयबिद्ध, संभाव्य चेतना से लैस एक ऐसे ही कवि हैं। इसलिए किसी भी समकालीन कवि से हमारे समय का सबसे ज्यादा स्पष्ट बिम्ब मुक्तिबोध की कविता के भीतर से उभरता है। इसमें न सिर्फ हमारे समय के बिम्ब हैं बल्कि ये कविताएँ हमारे समय को समझने की दृष्टि भी प्रदान करती है।
हर बड़े कवि के लिए उसका समय कठिन और चुनौतीपूर्ण होता है। वह समय की अँधेरी शक्तियों से टकराकर और जूझकर ही अपने काव्य व्यक्तित्व का विकास करता है। उसकी संवेदना तीक्ष्ण होती है और कल्पना उर्वर। अपनी विश्वदृष्टि से वह भविष्य की संकटपूर्ण स्थितियों को समय से पूर्व पहचान लेता है। इसीलिए कबीर सारी दुनिया से अलग रात भर ’जागते और रोते हैं’ और तुलसी ’कभी नींद भर सो नहीं पाते’। सारी रात बिस्तर बिछाते ही बीत जाती है। मुक्तिबोध के काव्य में यह बेचैनी और छटपटाहट दोनों पुरखे कवियों से ज्यादा और व्यापक है। उनका काव्य नायक सारी रात बेचैन और भयभीत भागता फिरता है। तरह-तरह की यातनाओं और डरावने अनुभवों से गुजरता है। मुक्तिबोध के समय का अँधेरा जितना सघन है, उनकी विश्वदृष्टि उतनी ही व्यापक है। उनकी विश्वदृष्टि में समस्त मानवीय सभ्यता के विकास के साथ-साथ उसका समस्त ज्ञान-विज्ञान, इतिहास और वर्तमान शामिल है। अतः वे अंधकार को तार-तार कर उसके भीतर की एक-एक वास्तविकता को पहचान पाते हैं। अँधेरे में भी साफ-साफ देख पाने की दृष्टि मुक्तिबोध को एक विलक्षण कवि बनाती है।
मुक्तिबोध के काव्य का गहन अंधकार नेहरु युग के मोहभंग से उपजा पूँजीवादी व्यवस्था का अंधकार है, जहाँ आज़ादी के हवामहल टूटकर बिखर और जल रहे हैं। इस अंधकार में पूँजीवादी जनतंत्र के भीतर से उभरे फासीवादी अंधकार की स्याही भी शामिल है। अतः उसमें फौजी टापें सुनाई देती है। स्वार्थ और निर्बन्ध उपभोग उस अँधेरे की चालक शक्ति है, जहाँ विचार और बौद्धिकता का अभाव है। अतः सिर्फ पेट और उदर के साथ मस्तक विहीन मनुष्यों के चलते-फिरते धड़ का अत्यन्त ही डरावना चित्र मुक्तिबोध ने प्रस्तुत किया है- “इस नगरी में चाँद नहीं है, सूर्य नहीं है, ज्वाल नहीं है/सिर्फ धुएँ के बादल-दल हैं/और धुँआते हुए पुराने हवा महल हैं/……. इस नगरी के प्रहरी पहने हैं धुएँ के लम्बे चोगे़/साज़िश के कुहरे में डूबी/ब्रह्मराक्षसों की छायाएँ/गाँधीजी की चप्पल पहने घूम रही हैं/छिपे-छिपे कुछ फ़ौजी टापें/बूटों की भी गूँज रही हैं/….. बुद्धि ख़त्मकर, शीश काटकर/मात्र उदर ले, सिर्फ पेट ले/मस्तकहीन कबन्ध घूमते हैं राहों पर/बड़े ठाठ से बटन-होल में फूल लगाकर/अपने मालिक के ये चाकर/घर बैठे आदर्श घोखते” (मुक्तिबोध/’एक प्रदीर्घ कविता’/मुक्तिबोध रचनावलीः दो/राजकमल प्रकाशन/संस्करण 1985, पृ0-295, 96, 97)। मुक्तिबोध के समय की छिपी-छिपी ये फौजी टापें और बूटों की गूँजें आज खुलेआम हमारे देश के बहुत बड़े हिस्से को रौंद रही हैं। भारत की आज़ादी के बाद से ही साम्राज्यवाद की चाकरी में लगे भारतीय पूँजीवाद से आज के पूँजीपतियों की नव साम्राज्यवाद की दलाली अलग नहीं है। उसे पूर्व की निरंतरता में ही देखने की ज़रूरत है। यह निरंतरता दो युग कवियों की कविता में भी है। निराला ने जिस तरह नेहरु के वर्ग चरित्र को बखूबी पहचाना था, मुक्तिबोध भी वैसा ही पहचानते हैं। ’इस गगन में नहीं दिनकर/नहीं शशधर, नहीं तारा’की ’इस नगरी में चाँद नहीं है, सूर्य नहीं है, से कितनी समानता है!

मुक्तिबोध के अँधेरे समय में से छिटकती हुई कुछ रोशनी की किरणें भी हैं। वहाँ नीली झील है, जिसमें ’प्रतिपल काँपता अरुण कमल है, विक्षोभ की मणियाँ हैं, विवेक रत्न हैं, स्वर्णिम कमल की पंखुरियों जैसी धधकती ज्वालाएँ हैं और जनक्रांति का एक स्वप्न सही सलामत है। लेकिन आज हम भूमण्डल की स्वप्नहीन रात में हैं। समाजवाद का चमकता सितारा डूब चुका है। बर्बर पशु की तरह पूँजीवाद सभ्यता के जंगल में पुनः लौट चुका है। वह अपने सारे आदर्शों और मूल्यों का नकाब उलटकर आज बहुत ही नग्न, विकृत और आक्रामक स्वरूप में हमारे समक्ष उपस्थित है। सोवियत समाजवाद के साथ जिन श्रमिकों ने दुनिया में अपनी सत्ता स्थापित की, पूँजीवादी देशों में भी कार्य के आठ घंटे लागू करवाये और पारिवारिक, सामाजिक सुरक्षा प्राप्त की; आज वे श्रम की चक्की में अनवरत पिस रहे हैं। बेरोजगारी की विशाल फौज ने श्रम को मूल्यहीन बना दिया है। पूरी दुनिया भर में गरीबी और अमीरी के बीच अलंध्य खाई बढ़ती जा रही है। गरीबी को ख़त्म करने की जगह अमीरी को बढ़ाने पर बल दिया जा रहा है। एक तरफ अरबपतियों, खरबपतियों और उपभोग से अघाये लोगों की सीमित चमचमाती दुनिया है तो दूसरी तरफ शोषितों, वंचितों और विस्थापितों का फैलता साम्राज्य। पहले हम अँधेरे से लड़ते थे पर आज अँधेरा हमें अपने रंग में रंगता जा रहा है। पहले अँधेरा सुबह के साथ छँट जाता था पर आज वह दिन के उजाले में भी कायम है-“ इसीलिए आजकल दिन के उजाले में भी अँधेरे की साख़ है/इसीलिए संस्कृति के मुख पर/मनुष्य की अस्थियों की राख है/जमाने के चेहरे पर/गरीबों की छातियों का ख़ाक है”(मुक्तिबोध/’चाँद का मुँह टेढ़ा है/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-279)!! ऐसे श्रम विरोधी, जन विरोधी, मनुष्य विरोधी भयावह समय में जब अच्छे दिनों के छलावे से हमें कोई भी छल जाता है तब हमारे समय के क्रांतिकारी कवि नवारूण भट्टाचार्य का यह पूछना कितना सही लगता है कि “आज यहाँ तक कि अंधे भी/ब्रेल अक्षरों को छूकर समझ रहे हैं कि/प्रलय आ रहा है/पर तुम क्या कर रहे हो”?
मुक्तिबोध ने 1940-42 के आस-पास लिखित और ’तारसप्तक में संकलित ’पूँजीवादी समाज के प्रति’ कविता में पूँजीवाद की भोगवादी, सौन्दर्यवादी, प्रदर्शन तथा दिखावे की सजावटी और यथार्थ विरोधी संस्कृति की तीखी और तीव्र भर्त्सना करते हुए उसके प्रति अपार घृणा को ज़ाहिर किया था। लेकिन आज हम सामंती और पूँजीवादी संस्कृति के घालमेल से निर्मित एक ख़तरनाक कॉक्टेल संस्कृति के दौर में हैं। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के इस दौर में हमारी समावेशी संस्कृति की समृद्ध विरासत पर झाड़ू फेरकर एक संकीर्ण और विभाजनकारी राष्ट्रवादी विमर्श पैदा किया जा रहा है और राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता को गंभीर खतरे में डाल दिया गया है। इस राष्ट्रवाद में दलितों, आदिवासियों, चेतना सम्पन्न स्त्रियों और अल्पसंख्यकों के लिए कोई जगह नहीं है। उस पर तुर्रा यह है कि यह अपने-आप को सबसे बड़ा राष्ट्रवादी और देशप्रेमी कहने की अश्लील हिमाकत करता है। पिछड़ी हुई विचारधारा वाला, गाँधीजी की हत्या के लिए जिम्मेवार यह सहस्रमुखी संगठन आज इतना ताकतवर हो चुका है कि संविधान को चुनौती देने लगा है। उसके इशारे पर सारी लोकतांत्रित संस्थाओं को नष्ट-भ्रष्ट किया जा रहा है। भारतीय आज़ादी की लड़ाई और भारतीय राजनीति के हाशिए पर खड़े इस संगठन के ताकतवर होकर सत्ता के केन्द्र में आने के कारणों की समझ हमें मुक्तिबोध की कविताओं से मिलती है।
भारतीय समाज के आधुनिकीकरण की जिम्मेवारी जिन कन्धों पर थी, उन्होंने ईमानदारी से अपने दायित्व का निर्वहन नहीं किया। बुद्ध से लेकर कबीर और आज़ादी की लड़ाई तक भारतीय समाज को आधुनिक बनाने की जो कोशिशें हुईं, उसे आज़ादी के बाद मुल्तवी कर दिया गया। आज़ादी के बाद के शासक वर्ग ने जनता की पिछड़ी हुई चेतना को उन्नत बनाने की अपेक्षा उसे अपने पक्ष में इस्तेमाल किया। वामपंथी बुद्धिजीवियों ने भारतीय संस्कृति की जो तर्कमूलक, बौद्धिक व्याख्याएँ की उसे जन-जन तक पहुँचाया नहीं जा सका। किसी भी जीवंत संस्कृति में प्रगतिशील और प्रतिक्रियावादी दोनों तरह के तत्त्व मौजूद होते हैं। आवश्यकता यह होती है कि प्रतिक्रियावादी तत्त्वों की तीखी और निर्मम आलोचना की जाये और प्रगतिशील तत्त्वों को लेकर आगे बढ़ा जाये। स्वाधीनता आन्दोलन के समय से ही भारतीय समाज में एक पुनरूत्थानवादी, भाववादी, बुद्धि विरोधी विचारधारा सक्रिय रही, जो अतीत की सीमाओं, कमजोरियों और रूढ़ियों को नजरअंदाज करती थी और अविवेकी ढंग से भारतीय इतिहास की महानता का गुणगान गाती थी। वर्ण, जाति, धर्म और लिंग सम्बन्धी संकीर्णताओं को उसने अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल किया। बुद्धि की जगह आस्था को, विज्ञान की जगह अंधविश्वास को और मानवीय गुणों की जगह वर्ण और धर्म को महत्त्व दिया। कहा जाता है कि अतीत के जिन प्रश्नों की हम उपेक्षा करते हैं, वे वर्तमान में दूनी शक्ति के साथ हम पर आक्रमण करते हैं। भारत की महान् संस्कृति के जिन अन्तर्विरोधों की हमने उपेक्षा की, आज वही हमारे लिए घातक सिद्ध हो रहे हैं। अतीत की उन्हीं कंदराओं के अंधकार से निकलकर ये गिद्ध आज भारतीय जनता को दृष्टिहीन बनाने की कोशिश कर रहे हैं-“प्रतिष्ठित राज्य-संस्कृति के प्रभावी दृश्य/सुन्दर सभ्यता के तुंग स्वर्ण-कलश/सब आदर्श/उनके भाष्यकर्ता ज्ञानवान् महर्षि/ज्योतिर्विद्, गणितशास्त्री, विचारक, कवि,/सभी वे याद आते हैं।/प्रतापी सूर्य हैं वे सब प्रखर जाज्वल्य/पर, यह क्या/अँधेरे स्याह धब्बे सूर्य के भीतर बहुत विकराल/ धब्बों के अँधेरे विवर-तल में से/उभरकर उमड़कर दल बाँध/उड़ते आ रहे हैं गिद्ध/पृथ्वी पर झपटते हैं!/कि खायेंगे हमारी दृष्टियाँ ही वे (मुक्तिबोध/’अन्तःकरण का आयतन’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-146)”!
अपनी द्वन्द्वात्मक दृष्टि के कारण मुक्तिबोध भारत के महान सांस्कृतिक सूर्य के भीतर उन विकराल धब्बों को समय से बहुत पहले देख पा रहे थे, जो साम्प्रदायिक फासीवादी-ताकतों की शरणस्थली है। ये पुरातन पंथी, इतिहासग्रस्त ताकतें उसी के सहारे जनता की विवेक, बुद्धि को नष्ट कर रही हैं। यह आकस्मिक नहीं है कि नये ज्ञान-विज्ञान के पाठ्यक्रमों की जगह आज विश्वविद्यालयों में वैदिक गणित, ज्योतिष और कर्मकाण्ड पढ़ाने की वकालत की जा रही है। हमारे यहाँ अतीत में टेस्ट ट्यूब बेबी, प्लास्टिक सर्जरी और महाभारत में इन्टरनेट के होने की अनर्गल बातें प्रचारित-प्रसारित की जा रही है। यह सब सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों की ओर से हो रहा है। इन सबका उद्देश्य जनता की चेतना और दृष्टि को धुँधला बनाकर समय और समाज की वास्तविकता से उन्हें अनजान बनाये रखना है ताकि वे निर्बाध रूप से अपने शोषण और दमन का चक्र जारी रख सकें। ऐसे में जनता से जुड़े बुद्धिजीवी जो उनके षडयंत्र को उजागर करने की प्रक्रिया में शामिल हैं; उन्हें देशद्रोही, राष्ट्रद्रोही सिद्ध कर उनके चरित्र हनन का प्रयास किया जा रहा है। उन्हें नक्सल समर्थक या ’अरबन नक्सल’ कह कर जेल की सलाखों के भीतर डाला जा रहा है। यह बुद्धिविरोध अपने चरम पर तब पहुँच जाता है जब तर्कवादियों, बुद्धिजीवियों का वैचारिक मुकाबला न कर उनकी सुनियोजित हत्याएँ की जाती हैं। इस सब से विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटकर समाज में डर और दहशत का माहौल पैदा किया जा रहा है। गुण्डागर्दी, जेल और हत्याओं का सिलसिला यह सिद्ध करता है कि लोकतंत्र विरोधी ये फासीवादी ताकतें वैचारिक रूप से कितनी दरिद्र हैं। मुक्तिबोध ने समय से पहले इन फासीवादी ताकतों की भयावहता को अच्छी तरह से पहचान लिया था-“रामू जानता है कि पूँजीवादी शक्तियाँ/जन-जन की छाती पर बैठकर/शासन के चाकू से/विद्रोहिणी बुद्धि की त्रिकालदर्शी आँखों को काटकर/निकाल लेना चाहती है।/….पूँजीवादी शक्तियाँ भयंकर/जन-जन को दमन की फ़ासिस्ती भट्ठी में झोंककर/बनाया चाहती हैं वे/उनकी अस्थियों से श्वेत/आराम का फर्नीचर”,(मुक्तिबोध/’ज़िन्दगी का रास्ता’/मुक्तिबोध रचनावली : एक/पृ0-268, 269)।
मुक्तिबोध सिर्फ ’अँधेरे में’ ही नहीं, बल्कि अपनी दूसरी कविताओं में भी फासिज्म के खतरे के प्रति सचेत थे और उसके प्रति गंभीर रूप से चिंताग्रस्त भी। उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध में मानवीय आदर्शों, मूल्यों, सम्बन्धों को इन फासिस्ट शक्तियों के हाथों तार-तार होते हुए देखा था। फासिज्म की आक्रामकता से भारत उस समय अछूता नहीं था। हमारे देश की फासिस्ट शक्तियाँ उस समय भी हिटलर से प्रेरणा ले रही थीं। कुछ ने तो उससे मिलने का प्रयास भी किया था। जिन्ना ने तो बाद में देश को बाँटने का अभियान चलाया पर ये शक्तियाँ तो पूर्व से ही द्विराष्ट्रवाद के सिद्धान्त पर चल रही थीं। मुक्तिबोध ने मानवीय सभ्यता के शुभ, सुन्दर, कोमल और उज्ज्वल पक्ष को इन शक्तियों के कारण पराजित और संकटग्रस्त होते हुए देखा था। वे यह भी समझ रहे थे कि यह मनुष्य के शोषण, दमन का सबसे बर्बरतम् रूप है। इसके मूल में पूँजीवादी व्यक्तिवादिता के अहं का चरमोत्कर्ष है। दुर्भाग्यवश पूँजीवाद के बर्बर स्वरूप की वापसी के साथ आज भारत सहित पूरी दुनिया में अत्यन्त आक्रामकता के साथ दक्षिणपंथ फिर से सिर उठा रहा है। समस्त मानवीय सभ्यता के लिए यह खतरे की घंटी है। ऐसे समय में मुक्तिबोध के इन पंक्तियों के पुनर्पाठ की ज़रूरत है-“नव स्नेह का, सौन्दर्य का, विश्वास का/नीला समुन्दर लाँघकर/इस द्वीप में/काला पुराना दैत्य गुपचुप आ गया/यह ध्वंस का सहचर, बभुक्षित है अहं/जो शोषणों की सभ्यता का भूप है/मैं जानता हूँ,/आज के धुएँ भरे आकाश में/हैं स्याह ताकत के हवाई घूमते/मैं जानता हूँ यह सभी/मेरी पराजय याद है।/चारों तरफ फैली हुई इस सभ्यता की भी पराजय याद है। जिसमें कि स्वार्थों के बाँधे तालाब में/काले कमल काले अहं के खिल रहे/प्रतिपल विषैली रश्मियों के तेज में” (मुक्तिबोध/’पराजित हो चलूँ’/’आलोचना’/ सहस्राब्दी अंक 55/जुलाई-सितम्बर 2015/पृ0-22)। गरीबी, बेरोजगारी, विस्थापन, धर्मान्धता, साम्प्रदायिकता, घृणा, भीड़ की हिंसा की विषैली रश्मियों के तेज में काले कमल का खिलना हमारे समय की भयावह वास्तविकता है।
मुक्तिबोध ने अपनी एक महत्त्वपूर्ण कविता ’जमाने का चेहरा’ में फासीवाद का अत्यन्त ही डरावना चित्र खींचा है। इस कविता में बिजली की प्रचण्ड शक्ति के साथ फासीवादी ताकतें पूरी पृथ्वी का गरदन दबोचने को तत्पर हैं और शोषण, दमन से परेशान जनगण के चेहरे पर उसके राक्षसी दाँत गड़े हैं। उसकी संस्कृति हत्या, हिंसा और ख़ूनख़राबा की संस्कृति है-“अजीब उतरते हुए पैराशूट-पैराट्रूप/क्षितिज के चेहरे पर उभरा काला भाव एक/…..आँखों में उभरी है स्टेनगन/आसमानी बिजली का पीला प्रचण्ड/हाथ/बढ़ गया, बढ़ गया/धरती की गरदन को/मुट्ठी में भींचने,/जहरीली घनघोर लपटों की छाती पर/मृत्यु की गोद में/पृथ्वी को खींचने!!/……जनता के चेहरे पर/नात्सी मशीनी दाँत गड़ गये थे/संस्कृति के मुख पर/रूधिर की धाराओं का/गिर गया परदा” (मुक्तिबोध/’ज़माने का चेहरा’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-57, 58,59)!!
फासिज्म का मूल आधार कॉरपोरेटिज्म है। सत्ता जब आँख मूँदकर कॉरपोरेट शक्तियों के पक्ष में खड़ी हो जाती है तो स्वाभाविक है कि वह जन विरोधी फैसले लेगी। इससे जनसाधारण में गरीबी-बेरोजगारी फैलती है। सार्वजनिक सम्पत्तियों के साथ प्राकृतिक संसाधनों और जनता की सम्पत्तियों की भी लूट-खसोट शुरू हो जाती है। पिछले दिनों बड़े पैमाने पर सार्वजनिक उद्योगों का निजीकरण, किसानों की खेतिहर जमीनों का अधिग्रहण, आदिवासियों का विस्थापन इन्हीं कॉरपोरेट नीतियों का परिणाम था। इसके फलस्वरूप जनता में गुस्सा, आक्रोश बढ़ता है और जनप्रतिरोध की कारर्वाइयाँ शुरू होती हैं। फासिस्ट सत्ता इस जनप्रतिरोध को कुचलने के लिए एक ओर साम्प्रदायिकता, जातिवाद, गौ हत्या, मंदिर-मस्जिद को मुद्दा बनाकर जन एकता को तोड़ती है और जनता को मूल मुद्दों से भरमाती-भटकाती है तो दूसरी तरफ दमन के लिए सेना और अर्द्धसैनिक बलों का सहारा लेती है। आज पूरा का पूरा कश्मीर, पूर्वोत्तर भारत के साथ बंगाल, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, आन्ध्रप्रदेश का बहुत बड़ा आदिवासी इलाका सेना और अर्द्धसैनिक बलों के हवाले है। मुक्तिबोध ने ’अँधेरे में’ कविता में जिस सैन्य दमन और मार्शल लॉ का चित्र खींचा है वह आज हमारे देश की वास्तविकता है-“एकाएक मुझे भान होता है जग का/अख़बारी दुनिया का फैलाव,/फँसाव, घिराव, तनाव है सब ओर,/पत्ते न खड़कें/सेना ने घेर ली हैं सड़कें।/बुद्धि की मेरी रग/गिनती है समय की धकधक!/यह सब क्या है?/किसी जन-क्रांति के दमन-निमित्त यह/मार्शल लॉ है” (मुक्तिबोध/’अँधेरे में’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-331)!! कुछ लोगों को ’अँधेरे में’ के सैन्य दमन और मार्शल लॉ का यह चित्र अतिरंजित लगता है पर हमें नहीं भूलना चाहिए कि आज़ाद भारत की नेहरु सरकार ने पहली बार सेना का इस्तेमाल तेलंगाना के किसानों के संघर्ष को दबाने के लिए किया था। आज भी पूर्वोत्तर भारत मंद ’अफस्पा’ (आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट) जैसा जनविरोधी कानून लागू है। इसे समाप्त करने के लिए इरोम शर्मिला सोलह वर्षों तक ऐतिहासिक भूख हड़ताल करती रहीं। हाल-फिलहाल बड़े-बड़े सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी टेलीविजन की सार्वजनिक बहसों में हिस्सा लेकर अपने अंधराष्ट्रवादी रूझान से सरकारी नीतियों को प्रभावित करने लगे हैं। सरकारें अपने संकटों को टालने के लिए सेना का राजनीतिक इस्तेमाल करने लगी हैं। यह सब देश के लोकतंत्र के हित में नहीं है।
आज हम नव साम्राज्यवाद के आक्रामक दौर में हैं। पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में सोवियत संघ की चुनौती और शक्तियों का संतुलन समाप्त होते ही अमेरिकी नेतृत्व में साम्राज्यवादी शक्तियों ने संगठित और अधिक आक्रामक होकर तीसरी दुनिया के स्वाभाविक विकास को अवरूद्ध कर दिया। तीसरी दुनिया के अधिकांश देश राष्ट्रीय स्वाधीनता संघर्षों के बल पर, उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद से मुक्त होकर अपने स्वतंत्र विकास का मार्ग तलाश ही रहे थे कि भूमण्डलीकरण के नाम पर राष्ट्रीय राज्य की सीमाओं को बेमानी कर वहाँ के शासक वर्ग ने साम्राज्यवादी पूँजी के बेरोक-टोक प्रवेश की इजाजत दे दी। गैट समझौतों के तहत असमान व्यापार की शर्तें इन देशों पर लाद दी गईं। विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के दिशा-निर्देशों के अनुरूप इन देशों के विकास को नियंत्रित और दिशा निर्देशित किया जाने लगा। बड़ी-बड़ी दैत्याकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का प्रवेश इन देशों में शुरू हुआ। पहले किसी देश में प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित साम्राज्यवादी शक्तियाँ जिस तरह उस देश की जनता और संसाधनों को लूटने का जो कार्य करती थी, आज वही कार्य वह अपनी पूँजी के निर्यात के माध्यम से कर रही हैं।
भारत जैसे देश का दब्बू और कमजोर पूँजीपति वर्ग अकेले इस देश को लूटने में सक्षम नहीं था। अतः वह स्वेच्छा से साम्राज्यवादी पूँजी के साथ गठबंधन कर उसकी दलाली में जुट गया। तथाकथित राष्ट्रीय पूँजीपतियों में से आज कोई भी ऐसा नहीं है, जिसने साम्राज्यवादी पूँजी के साथ गठजोड़ न किया हो! हमारे देश की हर रंग की सरकारों ने साम्राज्यवादी पूँजी को बढ़ावा देने में उसके एजेन्ट की भूमिका का निर्वाह किया। आज यह खेल जितना खुला और स्पष्ट है, मुक्तिबोध के समय उतना स्पष्ट नहीं था, फिर भी उनकी भविष्योन्मुख दृष्टि भारतीय और साम्राज्यवादी पूँजी के गठजोड़ को बखूबी देख रही थी। वे भारतीय जननायकों को उनके हितरक्षक एजेन्ट और कुली-खलासी के रूप में देख रहे थे-,“साम्राज्यवादियों के/पैसों की संस्कृति/भारतीय आकृति में बँधकर/दिल्ली को/वाशिंगटन व लन्दन का उपनगर/बनाने पर तुली है!!/भारतीय धनतन्त्री/जनतन्त्री बुद्धिवादी/स्वेच्छा से उसी का कुली है!!/…..जन-राष्ट्र-लोकायन/जन-मुक्ति-आन्दोलन/के सिद्धहस्त विरोधी/ये साम्राज्यवादियों की पाँत में ही बैठे हैं,/शान्ति के शत्रुओं का प्राणायाम साधकर/जनता के विरूद्ध घोर अपराध कर,/फाँसी के फन्दे की रस्सी-से ऐंठें हैं (मुक्तिबोध/’ज़माने का चेहरा’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-77)!!
मुक्तिबोध 1950-57 में ही साम्राज्यवादी और भारतीय पूँजी के इस अपवित्र गठजोड़ को साफ-साफ देख रहे थे। वे यह भी देख रहे थे कि भारतीय नेतृत्व वर्ग किस तरह से उन्हें प्रश्रय दे रहा है। इस वास्तविकता को वक्त रहते अगर समझा और भारतीय जनता को समझाया गया होता तो नब्बे के दशक के बाद के साम्राज्यवाद की आक्रामकता के प्रति उसे सचेत किया जा सकता था। इस साम्राज्यवाद की सफलता का राज यही है कि उसने हमारे बीच के ही मनमोहन सिंह, चिदम्बरम, रघुराम राजन या इन्दिरा नूई को अपनी ही जनता के विरूद्ध खड़ा कर दिया -“हमीं में से विदेशी-सा/हमारे बीच का ही एक/नव-साम्राज्यवादी…/लोभ के आवेश में आकर/उजाड़े जा रहा है ज़िन्दगी की बस्तियाँॅ/पददलित मानव- मूल्य/हैं आक्रान्त आत्माएँ/तुम्हें क्या चाहिए/पिस्तौल या वायलिन” (मुक्तिबोध/’उस दिन’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0,पृ0-388)!!
भारत में जब से भूमण्डलीकरण की नीतियाँ लागू हुई हैं, देश की सार्वजनिक सम्पत्तियों और प्राकृतिक संसाधनों की लूट-खसोट और डाकेजनी से भारत के बड़े पूँजीपतियों और कॉरपोरेट घरानों की पूँजी में असाधारण वृद्धि हुई है। लूट का कुछ टुकड़ा पाकर उच्च मध्यवर्ग का एक हिस्सा भी समृद्धि के चारागाह में अघाया फिरता है। उसे हर तरफ हरा-भरा ही दिखता है। दूसरी तरफ जन साधारण की स्थिति बद से बदतर हुई है। चमचमाते और जगमगाते हुए विश्व बाजार से उसे निष्कासित कर दिया गया है। लाखों किसानों, आदिवासियों की उपजाऊ जमीन का जबरन अधिग्रहण कर हमारी चुनी हुई सरकारों के द्वारा कॉरपोरेट घरानों को दे दिया गया। पिछले पन्द्रह-बीस वर्षों में विश्व बाजार के दुश्चक्र में फँसकर चार लाख किसानों ने भूमण्डलीकरण की बलि बेदी पर अपनी कुर्बानी दी। मजदूरों से जुड़े सारे श्रम कानूनों की धज्जियाँ उड़ायी गयी। वेतन जाम, छँटनी की असह्य पीड़ा के लम्बे दौर से उन्हें गुजरना पड़ा। ज़रूरत के अनुसार उन्हें काम पर रखा गया और ज़रूरत खत्म होते ही इस्तेमाल की गयी वस्तुओं के खोखे की तरह फेंक दिया गया। नौकरीपेशा लोगों से बुढ़ापे का पेंशन छीना गया। स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण के कारण बीमार होने पर गरीबों के पास मरने के सिवा और कोई चारा नहीं है। शिक्षा खरीद-फरोख्त और मुनाफे का व्यवसाय बन गया है। डीजल, पेट्रोल और बिजली की बढ़ती कीमतों और मँहगाई की मार से जनता त्रस्त रहती है। वस्तुओं और सेवाओं पर अप्रत्यक्ष करों का बोझ उसके कंधों पर ही डाला जाता है। यह त्रस्त दीन-हीन जनता उब कर सरकारें तो बदल देती हैं पर जनविरोधी नीतियाँ पूर्ववत् जारी रहती हैं। उनके जीवन में कोई तब्दीली नहीं आती। असह्य है इस जनसाधारण की वेदना। खून की आखिरी बून्द तक उसे निचोड़ा जाता है। इस निरीह, दयनीय जन का जैसा करुण और त्रासद बिम्ब मुक्तिबोध की कविता में मिलता है, वैसा समकालीन कविता में अन्यत्र दुर्लभ है-“जनता को ढोर समझ/ढोरों की पीठ भरे/घावों में चोंच मार/रक्त-भोज, मांस-भोज/करते हुए गर्दन मटकाते दर्प भरे कौओं- सा/भूखी अस्थि-पंजर शेष/नित्य मार खाती-सी/रँभाती हुई अकुलाती दर्दभरी/दीन मलिन गौओं-सा/शब्दों का अर्थ जब।/दुनिया को हाट समझ जन-जन के जीवन का /मांस काट,/रक्त-मांस विक्रय के/प्रदर्शन की प्रतिभा का/नया ठाठ/शब्दों का अर्थ जब/नोच-खसोट, लूट-पाट” (मुक्तिबोध/’शब्दों का अर्थ जब’/मुक्तिबोध रचनावली : दो, वही0, पृ0-39) यह किसी जीवंत देश का नहीं विस्तीर्ण कत्लगा़ह का घृणित बिम्ब है, जहाँ कसाई सत्ता अपने समस्त कौशल से भरे बाजार में अपनी ही जनता के रक्त, मांस का व्यापार करती है। इसलिए इसके आकाश में मुक्तिबोध को उड़ते हुए चील और गिद्ध दिखाई देते हैं-“देखता हूँ, जीवन का यह दृश्य कि वही/उभर आती है, मरी हुई गाय की, गिद्धों की,/उड़ती चीलों की/वीरानी की तसवीर” (मुक्तिबोध/’कहते हैं लोग-बाग’/ मुक्तिबोध रचनावली : एक/वही0, पृ0-284)।
हमारे वर्तमान समय में बौद्धिक ऊष्मा, प्रखरता और तेजस्विता की कमी अखरती है। एक खास तरह का बौद्धिक ठंडापन समाज की जड़ता को भंग कर पाने में अक्षम है। ज्ञान और बुद्धि की गरिमा जन मन से तम, भ्रम, भय को दूर कर उसे मुक्ति के मार्ग की ओर प्रेरित करने में है। वह किसी कर्महीन, निष्क्रिय और शून्य वातावरण में पैदा नहीं होता। वह जूझते, लड़ते और संघर्ष करते हुए विकसित होता है। यह किसी गहरी पीड़ा और उद्विग्न कर देने वाली चिन्ता की कोख से जन्म लेता है। सूर्य के प्रकाश की तरह झूठ और असत्य के कुहरे को छिन्न-भिन्न कर यह दबे-छुपे सत्य को अनावृत कर देता है। स्वार्थ इसके तेज को ख़त्म कर देता है और भय से इसकी धार कुंद हो जाती है। एक तरफ ज्ञान हमारी संवेदना को व्यापक बनाता है तो दूसरी तरफ संवेदना से रहित ज्ञान शुष्क और नीरस होकर मात्र बुद्धिविलास बन जाता है। मुक्तिबोध इसीलिए ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान की अवधारणा विकसित करते हैं।
भारतीय समाज के पिछड़ेपन का बहुत बड़ा कारण यह है कि यहाँ ज्ञानियों और बुद्धिजीवियों का जीवन और कर्म से कोई वास्ता नहीं है। जन-जीवन से आवयवयिक रूप से जुड़ाव नहीं है। इसीलिए उनमें बौद्धिक मौलिकता का तेज न होकर उधार के विचारां का बासीपन है। यहाँ बुद्धि जन-जीवन की भट्ठी से तपकर निकलने की जगह स्वार्थ और सत्ता सुख की चाहत में शोषक, शासक वर्ग से नाभि-नाल बद्ध है। ऐसे बुद्धिजीवियों का न तो जन-जीवन के समक्ष उत्पन्न गंभीर प्रश्नों से कोई सम्बन्ध होता है और न ही उनके समक्ष उत्पन्न चुनौतियों से। ऐसे मूढ़ सिर्फ ज्ञानी और बुद्धिजीवी होने का भ्रम रचते हैं। ऐसे बुद्धिजीवियों के प्रति मुक्तिबोध ने ठीक ही कहा है-“रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्ध ये सब लोग/नपुंसक भोग-शिरा-जालों में उलझे,/प्रश्न की उथली-सी पहचान/राह से अनजान/वाक् रूदन्ती”। ऐसे बुद्धिजीवियों की बुद्धि जनता को मुक्त करने की जगह उसे उत्पीड़ित करने का साधन बन जाती है। सत्ता के हाथों अपनी बुद्धि को बेच देने वाले ऐसे बुद्धिजीवियों के प्रति मुक्तिबोध की कविता के भीतर अपार गुस्सा और घृणा का भाव है। उन्होंने इन्हें कृतदास कहा है। इनकी तुलना गटर में रहने वाले केंकड़े, जंगल के सियारों और उद्धवस्त मुहल्लों में जमीन सूँघने वाले श्वानों से की है-“जंगली श्रृगाल सौ बुद्धि-भ्रष्ट/निर्बोध प्राणियों को खा जाते या देते हैं महाकष्ट/विश्वास-स्नेह अभिशापग्रस्त/स्वार्थान्ध सभ्यता की प्राचीरों के पथरीले तल समीप/की भूमि खोद/औ’ नरम-नरम मिट्टी निकालकर एक ओर/गह्वर-गह्वर में करते हैं आराम श्वान/ये रोज शाम/उद्धवस्त मुहल्लों की जमीन सूँघते हुए/फिरते रहते चिर- उदरम्भरि ये कामचोर-/अवसरवादी ये बुद्धिमान” (मुक्तिबोध/’साँझ रँगी ऊँची लहरों में’/मुक्तिबोध रचनावली : एक/वही0, पृ0-336)!!
मुक्तिबोध अपने दौर के और आज के समकालीन कवियों से इसलिए भिन्न हैं कि उनमें बौद्धिक तटस्थता और ठण्डेपन की जगह ज्ञान का गहरा तनाव है। उनका हृदय समुद्र की लहरों की तरह उद्वेलित होकर पछाड़ खाता है। अन्तर्मन किसी ज्वालामुखी की तरह धधकता है। जनवेदना इतनी प्रचण्ड और वेगवान है कि उसके आगे कोई अवरोध टिक नहीं पाता। हर ज्ञानात्मक और बौद्धिक निष्कर्ष को उनमें अपने चरित्र में उतारने की विकलता है। हमारे दौर के तथाकथित ज्ञानियों, बुद्धिजीवियों, लेखकों, कलाकारों को मुक्तिबोध के इस ज्ञानात्मक तनाव, आन्तरिक उद्वेलन, जनवेदना की प्रचण्डता और व्यक्तित्व की विकलता से बहुत कुछ सीखने की ज़रूरत है।
अस्मिताओं और सभ्यताओं के संघर्ष पर बल देकर वर्ग संघर्ष को वैश्विक स्तर पर झुठलाने के प्रयत्न जारी हैं। ऐसे में मुक्तिबोध के सचेत, सक्रिय और तीक्ष्ण वर्गीय बोध से जुड़ना आश्वस्तकारी है। यह वर्गीय बोध ही हमारी प्रतिबद्धता को तय करता है। इसलिए उन्होंने अपनी कविता में सीधे-सीधे पूछा था-“किस ओर हो तुम, अब/सुनहले उर्ध्व-आसन के/निपीड़क पक्ष में, अथवा/कहीं उससे लूटी-टूटी/अँधेरी निम्न-कक्षा में तुम्हारा मन,/कहाँ हो तुम” (मुक्तिबोध/’चकमक की चिनगारियाँ’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-237)? उसका जवाब भी वे अपनी कविता में ही देते हैं। संसार के महान प्रतिभाओं की तरह उन्होंने भी साधारण में असाधारणता को देखते हुए स्वीकार किया कि “पेटों की आँतों में न्यूनों की पीड़ा है/छाती के कोषों में रहितों की बीड़ा है” (मुक्तिबोध/’मैं तुम लोगों से दूर हूँ’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-219)। एक बुर्जुआ समाज में जिन शोषित, उत्पीड़ित और वंचित लोगों से घृणा की जाती है, मुक्तिबोध की आत्मा में उनके लिए अपार स्नेह है। उनकी विश्वदृष्टि को यह शोषित और सर्वहारा वर्ग ही तय करता है। उसी के नजरिये से वे दुनिया को देखते हैं और अपने सम्बन्धों की प्राथमिकता तय करते हैं-“उनका जो तुम्हारे द्वारा गर्हित हैं/किन्तु वे मेरी व्याकुल आत्मा में बिम्बित हैं, पुरस्कृत हैं/इसीलिए, तुम्हारा मुझ पर सतत आघात है” (वही0, पृ0-219)!! उन्हें पता था कि ये प्राथमिकताएँ, प्रतिबद्धताएँ और आस्थाएँ उन्हें दरिद्र बनायेंगी और दुःख-दैन्य ही देगी पर उन्होंने उन्हें त्यागा नहीं।
मुक्तिबोध के समग्र लेखन के मूल में मार्क्सवाद की गहरी समझ है। उन्होंने मार्क्सवाद को आत्मसात् किया था। वे जानते थे कि पूँजीवादी शोषण के केन्द्र में व्यक्ति का स्वार्थ है। यह स्वार्थकेन्द्रित शोषण मनुष्य को अमानवीय और आत्महीन बनाता है। शोषण की अतिशयता ही किसी सभ्यता के विनाश का कारण बनती है-“शोषण की अति मात्रा/स्वार्थों की सुख- यात्रा,/जब-जब सम्पन्न हुई,/आत्मा से अर्थ गया, मर गयी सभ्यता,” (मुक्तिबोध/’एक स्वप्न कथा’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-268)। वर्गीय शोषण पर आधारित व्यवस्था को समाप्त करना ही क्रांति है। इस क्रांति को जनता ही संभव बनाती है। सरल-सहज, भोली-भाली जनता ही सचेत और संगठित होकर भावी समाज को जन्म देती है-“मिट्टी के लोंदे में किरणीले कण-कण/गुण हैं,/जनता के गुणों से ही संभव/भावी का उद्भव”। पूँजीपति वर्ग समाज के इस आमूल परिवर्तन का घोर विरोधी होता है। मध्यवर्ग का चरित्र प्रायः ढुलमुल होता है। स्वार्थ और समझौता इसे रीढ़हीन बना देता है। हमेशा शोषित, उत्पीड़ित, पददलित लोग ही आगामी समाज के सच्चे शिल्पकार होते हैं। मुक्तिबोध ने साफ-साफ कहा है,“ ज़िन्दगी का रास्ता/पूँजीवादी दानवों औ’ मध्यवर्गी नपुंसक मानवों/की वंचना-नगरी से छिटक कर/टूटे-फूटे घरोंवाली सील खायी/गलियों के अँधेरे में/रहनेवाले आगामी युगों के स्रष्टाओं/के चौराहों पर मिलता है,” (मुक्तिबोध/’ज़िन्दगी का रास्ता’/मुक्तिबोध रचनावली : एक/पृ0-277)। लेकिन इन साधारण जनों, सर्वहारा लोगों को सचेत बनाने में चेतनशील मध्यवर्ग की भी बहुत जरूरत होती है। इसलिए मुक्तिबोध गहरे आत्म संघर्ष के बल पर खुद को व्यक्त्विन्तरित कर निम्न वर्ग से अपने-आपको जोड़ते हुए स्वीकार करते हैं, “मैं कनफटा हूँ हेठा हूँ,/शेब्रेलेट डाज के नीचे लेटा हूँ/तेलिया लिवास में पुरजे सुधारता हूँ,” (मुक्तिबोध/’मैं तुम लोगों से दूर हूँ’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-220)। जन जीवन से जुड़ाव की यह तीव्र और सघन आकांक्षा एवं वर्गान्तरण का प्रयास ही मुक्तिबोध की कविता को विलक्षण बनाता है। अपनी एक अन्य कविता में भी वे स्वीकार करते हैं कि मध्यवर्ग की मुक्ति निम्न वर्ग के लक्ष्यों से जुड़कर ही होगी। एकीकृत लक्ष्यों को पाने के क्रम में ही उसके भीतर गुणों का विकास होगा-“तुम्हारी मुक्ति उनके प्रेम से होगी।/कि तद्गत लक्ष्य में से ही/हृदय के नेत्र जागेंगे,/व जीवन लक्ष्य उनके प्राप्त/ करने की क्रिया में से/उभर ऊपर/विकसते जायेंगे निज के/तुम्हारे गुण/कि अपनी मुक्ति के रास्ते/अकेले में नहीं मिलते,” (मुक्तिबोध/’चकमक की चिनगारियाँ’/मुक्तिबोध रचनावली :दो/वही0, पृ0-235)। मुक्तिबोध जब भारत की साधारण जनता को सम्बोधित करते हैं तो उसके लिए उनके भीतर से गहरा प्रेम, स्नेह और अपनापा का भाव उमड़ता है। उनकी कविताओं में जनसाधारण के लिए गहरी आत्मीयता का भाव है।
मुक्तिबोध जैसे ईमानदार व्यक्ति के लिए समाजवाद का संघर्ष दुहरा संघर्ष था, अपने-आप से भी और समाज से भी। यह लड़ाई दुतरफा है। बिना अपने-आप को बदले समाज को बदलने का प्रयास अधूरा होगा। इसलिए मुक्तिबोध के यहाँ आत्म संघर्ष और आत्मालोचना का स्वर प्रबल हैं। विवेक के तीखे रन्दे और वसूला से वे निरन्तर अपने-आप को छीलते हैं। अपनी कमज़ोरियों और सीमाओं को स्वीकार करते हैं। खुद अपने-आप से खिन्न और अप्रसन्न रहते हैं। अपने-आप से खिन्नता और अप्रसन्नता ही हमें आन्तरिक बदलाव के लिए मजबूर करता है। वे कहते हैं-,“फिर भी, मैं अपनी सार्थकता में खिन्न हूँ/ निज से अप्रसन्न हूँ/इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए/पूरी दुनिया साफ़ करने के लिए मेहतर चाहिए/वह मेहतर मैं हो नहीं पाता“ (मुक्तिबोध/’मैं तुम लोगों से दूर हूँ,’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0,पृ0-219)। अपनी कमियों का स्वीकार और आत्मालोचन की यह प्रवृत्ति आज दुर्लभ है। व्यक्तिगत स्तर पर भी और राजनीतिक, सामाजिक स्तर पर भी। हमारी वामपंथी पार्टियों ने भी अतीत और वर्तमान में कई गंभीर भूलें की हैं पर आज भी वे आत्मालोचन के लिए तैयार नहीं हैं। मुक्तिबोध हमें इसके लिए तैयार करते हैं।
भूमण्डल की इस स्वप्नहीन रात में मुक्तिबोध की कविताओं में रचे गये मानवीय मुक्ति के महास्वप्न के सक्रिय और विराट बिम्ब हमें बेहद आकर्षित और प्रेरित करते हैं। मुक्तिबोध का समय समाजवाद के सपने का समय था लेकिन आज वह स्वप्न टूटकर विखर चुका है। यह सच है कि आज भी समाजवाद मानवीय सभ्यता का आगामी भविष्य है पर मुक्तिबोध के लिए वह स्वप्न जितना करीब रहा होगा, आज हमारे लिए उतना ही दूर है। किसी भी व्यक्ति, जाति या राष्ट्र के लिए स्वप्न का होना बहुत जरूरी है। सपने हमें बन्धन से मुक्ति और सीमा से असीम की ओर उछालते हैं। पाश ने ठीक ही कहा था-’सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना’। आज हम इसी खतरनाक दौर में हैं। मुक्तिबोध और हमारे सपनों के बहुत सारे संगी-साथी आज दुःस्वप्नों की स्थिति को अंगीकार कर चुके हैं। वर्तमान के कीचड़ में वे इस तरह से धँसे हैं कि मानवता का सुन्दर भविष्य उनकी आँखों से ओझल है। हमारे समय के बहुत सारे हमारे अपने लोग आज दुश्मनों के खेमे के सिपहसालार हैं। उनकी प्राथमिकताएँ और प्रतिबद्धताएँ बदल चुकी हैं। ऐसे में मुक्तिबोध की ये पंक्तियाँ पढ़कर लगता है कि उन्होंने अपने समय के लिए नहीं, हमारे समय की पीड़ाओं को आत्मसात कर लिखा था-“लोगों, एक जमाने में/तुम मेरे ही थे/बहुत स्वप्नद्रष्टा चिन्तक थे कवि थे/क्रांतिकारी रवि थे!!/अब कहाँ गये वे स्वप्न/उन्हें किस कचरे के ढीह में/यत्नपूर्वक जला दिया/उदरम्भरि बुद्धि के मलिन तेल में/स्वयं को गला दिया धातु-सा।/इस विषम जगत्/के शोषित पथ/की करुणाओं से जब आत्मा/में गर्भधारण हुई/व सत्य-भ्रूण उन्मुक्त विकसने लगा/कि तब,/तुम लज्जित थे।/तुम भ्रूण अवैधानिक समझ/उसको इरादतन गिरा दिया,” (मुक्तिबोध/’भविष्य-धारा’/ मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-115, 16)। दुनिया भर के शोषितों, उत्पीड़तों की आह से समाजवाद के स्वप्न ने आकार लिया था। लेकिन व्यक्तिगत स्वार्थ और निर्बन्ध उपभोग की स्याह इच्छाओं ने मानवीय सभ्यता के भविष्य की भू्रण हत्या कर दी। इसका अभिशाप आज विश्व जनगण के सिर के ऊपर शैतान की तरह मँडरा रहा है।
मुक्तिबोध इस सत्य से परिचित थे कि ’कभी अकेले में मुक्ति नहीं मिलती, यदि वह है तो सबके साथ है’। इसलिए उन्होंने सामूहिक, समग्र जनक्रांति का सुन्दर और क्रियाशील बिम्ब रचा। वे अपनी भुजाओं के आयुध से जन शत्रुओं से लगातार लड़ना चाहते हैं। क्रांति उनके लिए कोई छोटा-मोटा क्षुब्ध परिवर्तन न होकर व्यक्ति और समाज का सम्पूर्ण रूपान्तरण है। यह व्यक्ति और समाज को आमूल-चूल बदल देने वाली परिघटना है। ’क्रांति पूरी एक परिणति का नाम’ है। यह बाह्य और आन्तरिक दारिद्र से एक साथ मुक्ति का प्रयास है। हृदय पर इसका प्रभाव बहुत गहरा होता है। मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो ’तेज धार गहरे धँसते लोहे के हल चल पड़ते हैं, हृदय की धरित्री पर’। यह कुछ लोगों, बुद्धिजीवियों और नेताओं के वश की बात नहीं। सम्पूर्ण जनता क्षुब्ध, संगठित और सक्रिय होकर इसमें अपनी भूमिका निभाती है। इसमें सत्य की ज्वाला, बुद्धि का तेज, आत्मा की तड़प, हृदय से उठती गहरी वेदना, नये जीवन का स्वप्न और संकल्प एक साथ घुलमिल जाते हैं। छोटे से छोटे, साधारण और महत्त्वहीन लोग भी क्रांति की आभा से चमकने लगते हैं। युगों-युगों से बहती वेदना की नदियों का जल पीकर वे खुद को व्यक्त्विन्तरित करते हैं। बच्चे, बड़े, बूढ़े सभी एक साथ दुश्मन पर टूट पड़ते हैं-“राह के पत्थर-ढोकों के अन्दर/पहाड़ों के झरने/तड़पने लग गये/मिट्टी के लोंदे के भीतर/भक्ति की अग्नि का उद्रेक/भड़कने लग गया।/धूल के कण में/अनहद नाद का कम्पन/ख़तरनाक!!/मकानों की छत से/गाडर कूद पड़े/धम से!/घूम उठे खम्भे/भयानक वेग से चल पड़े हवा में।/दादा का सोंटा भी करता है दाव-पेंच,/गगन में नाच रही कक्का की लाठी।/यहाँ तक कि बच्चे की पेमें भी उड़तीं,/तेजी से लहराती घूमती/मुन्ने का सलेट-पट्टी!/एक-एक वस्तु या एक-एक प्राणाग्नि-बम है,/ये परमास्त्र हैं, यम हैं।/शून्याकाश में से होते हुए वे/अरे, अरि पर ही टूट पड़े अनिवार” (मुक्तिबोध/’अँधेरे में’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-352)।
एक अन्यायी, अत्याचारी शासक वर्ग कभी स्वेच्छा से अपनी सत्ता का परित्याग नहीं करता। वह ताकत के बल पर जन विद्रोह और जनक्रांति के दमन का हर संभव प्रयत्न करता है। अतः जनता को भी मजबूर होकर शस्त्र उठाना पड़ता है। इसलिए उपर्युक्त पंक्तियों की तरह अपनी अन्य कई कविताओं में मुक्तिबोध ने जनता के सशस्त्र संघर्ष का उत्साहजनक चित्र खींचा है-“मुझे मालूम,/अनगिन सागरों के क्षुब्ध कूलों पर/पहाड़ों-जंगलों में मुक्तिकामी लोक-सेनाएँॅ/भयानक वार करतीं शत्रु-मूलों पर/व मेरे स्याह बालों में उलझता और/चेहरे पर लहरता है/उन्हीं का अग्नि-क्षोभी धूम” (मुक्तिबोध/’चकमक की चिनगारियाँ/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-239)!! मुक्तिबोध के कलावादी प्रशंसक उनके सशस्त्र संघर्ष में विश्वास और समाजवाद के स्वप्न के बारे में चर्चा करने से कतराते हैं। वे आधे मुक्तिबोध को स्वीकार करते हैं और आधे के बारे में चुप्पी साध लेते हैं।
युगों-युगों से पीड़ा और दर्द के समुन्दर में डूबते-उतराते लोगों की वेदना और बेचैनी को आत्मसात करने के बाद मुक्तिबोध के अन्तर्मन में एक सुन्दर समाज का स्वप्न पलता है। उनका समस्त द्वन्द्व, तनाव, बेकली और संघर्ष इसी स्वप्न को साकार करने के लिए है। उन्हें उस दिन की प्रतीक्षा है जब शोषण के विकराल बोझ के भीतर दबे तमाम व्याकुल और बेचैन लोग अपनी समस्त जीवनी शक्ति को संचित कर उसे उलटकर गर्व के साथ उठ खड़े होंगे। शताब्दियों के दुखों के अंधकार के भीतर से क्रांति की आग भड़केगी। जन-मन के अतल में उमड़ता-घुमड़ता क्षोभ बेहिसाब दबावों को ध्वस्त करता हुआ ज्वालामुखी की तरह फूट पड़ेगा-“मेरे देश भारत में,/पुरानी हाय में से/किस तरह से आग भभकेगी,/उड़ेंगी किस तरह भक् से/हमारे वक्ष पर लेटी हुई/विकराल चट्टानें/व इस पूरी क्रिया में से/उभरकर भव्य होंगे, कौन मानव गुण?/……. समस्या एक-/मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में/सभी मानव/सुखी, सुन्दर व शोषण-मुक्त/कब होंगे” (मुक्तिबोध/’चकमक की चिनगारियाँ’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-240, 43)?
मुक्तिबोध के द्वारा उठाया गया यह मौलिक प्रश्न कि ’मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में/सभी मानव/सुखी, सुन्दर व शोषण मुक्त कब होंगे’?-आज भी हमारे समक्ष मुँह बाये खड़ा है। उनके समतामूलक समाज का स्वप्न अभी साकार किया जाना शेष है। हम मानवीय सभ्यता के अत्यन्त ही संकटग्रस्त समय में हैं, जहाँ मनुष्य विरोधी ताकतें मानवीय सभ्यता के रथ के चक्के को विपरीत दिशा में ठेल रही है। जो भी सुखद, शुभ और सुन्दर है, उसे दानवी शक्तियाँ अपने खूनी पंजे में जकड़ती जा रही हैं। संघर्ष की जगह सहनशीलता और समर्पण बढ़ा है। क्रांतिकारी ताकतें असंगठित हैं और प्रतिक्रियावादी ताकतें एकजुट और आक्रामक। हमारे असंख्य लोगों के जीवन में दुःख जड़ होकर ठहर गया है लेकिन कुछ उपभोग से अघाये हुए लोग अट्टाहास कर रहे हैं। ऐसे समय में हमें अपनी भूमिका तय करनी है। जनविरोधी, मनुष्यविरोधी बाढ़ में बहने से अपने को रोके रखना है। बुद्धि की तीक्ष्णता और धार को कुंद होने से बचाना है। हृदय का दायरा संकुचित न होने देना है। इस संकट के दौर में यही हमारे साधन और हथियार हैं-“तुम्हारे पास, हमारे पास,/सिर्फ़ एक चीज है-/ईमान का डण्डा है,/बुद्धि का बल्लम है,/’अभय की गेंती है/हृदय की तगारी है-तसला है/नये-नये बनाने के लिए भवन/आत्मा के,/मनुष्य के,” (मुक्तिबोध/’कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-289)। इसके साथ ही हमें अपनी कमजोरियों को स्वीकार करना है। अपनी आत्मालोचना की पीड़ा से गुजरना है। अपने विश्लेषणों, निष्कर्षों, कार्यनीतियों और रणनीतियों पर पुनर्विचार करना है। मानवीय सभ्यता को अगले पड़ाव तक ले जाने की जिम्मेवारी जिन मार्क्सवादी और समाजवादी लोगां के कंधों पर थी, उनकी भूमिका के संदर्भ में मुक्तिबोध की ये पंक्तियाँ आत्मालोचन का अवसर प्रदान करती है-“ठीक है कि हम भी तो दब गये,/हम जो विरोधी थे/कुओं-तहखानों में कैद-बन्द,/लेकिन, हम इसलिए/मरे कि ज़रूरत से/ज्यादा नहीं, बहुत-बहुत कम/हम बाग़ी थे” (मुक्तिबोध/’एक भूतपूर्व विद्रोही का आत्म-कथन’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-137)!!
देश और समाज में आमूल-चूल परिवर्तन और क्रांतिकारी बदलाव हमेशा सचेत और सक्रिय जनता के माध्यम से ही संभव है पर जनसाधारण में भी कई तरह की कमजोरियाँ और बुराईयाँ होती हैं। ऊँच-नीच, जाति, वर्ण, धर्म, सम्प्रदाय कई तरह के दुर्गुणों से वह लिथड़ी होती है। छद्म चेतना और अंधविश्वास से घिरी होती है। इस जन जीवन में गहरे पैठकर इन तमाम गंदगियों और कचरों को साफ किये बिना, उनमें फँसे मनुष्यों को उससे बाहर निकाले बिना, किसी सभ्य और सुन्दर समाज का निर्माण संभव नहीं है। मुक्तिबोध इसीलिए अपनी कई कविताओं में मेहतर की भूमिका अपनाना चाहते हैं। सचेत मध्यवर्ग को यह भूमिका अपनानी ही होगी। दूसरी तरफ अन्याय और अत्याचार पर आधारित सभ्यता की अपनी बंदिशें, क्रूरताएँ, यातनाएँ और मकड़जाल हैं। इनसे भी मुक्ति के लिए उन्हें प्रेरित करना है। यह संघर्ष दुतरफा है। जनता की कमजोरियों से भी और सत्ता के शोषण, दमन और यातनाओं से भी। इस संघर्ष के लिए सचेत और प्रतिबद्ध मध्य वर्ग को अपने जीवन को समिधा बनाना होगा। अपने समस्त मध्यवर्गीय संस्कारों से मुक्त होकर जन-जीवन के गहरे अंधकार में उतरकर उन्हें चेतना से दीप्त करना होगा-“बीच सड़क में खुला है एक अँधेरा छेद,/एक अँधेरा गोल-गोल/वह निचला-निचला भेद,/जिसके गहरे-गहरे तल में/गहरा गन्दा कीच।/उनमें फँसे मनुष्य…../घुसो अँधेरे जल में/-गन्दे जल की गैल/स्याह भूत से बनो, सनो तुम/मेन होल से मनों निकालो मैल/काल अग्नि के बनो प्रचण्ड हविष्य/जबकि सभ्यता एक अँधेरी/भीम भयानक जेल-/तोडो़ जेल, भगाओ सबको, भागो खुद भी,” (मुक्तिबोध/’भविष्यधारा’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-123)!! यह संक्रमण का काल है। संवेदनशील चिन्ता-ग्रस्त और बेचैन लोगों को धीरज रखने की जरूरत है। पक्षियों द्वारा अंडों को सेने की तरह। भविष्य के गर्भस्थ चूजे अभी काल के कड़े और कठोर खोल में कैद हैं। ऐसे समय में मुक्तिबोध की कविताएँ हमें सीख देती हैं कि हम धैर्य के साथ व्यापक और उपेक्षित जन-जीवन से अपना सम्बन्ध और सम्पर्क बनायें रखें। हमें जीवन के चमकते रत्न वहीं मिलेंगे। उन्हीं के भीतर और बाहर का सम्पूर्ण सर्वेक्षण कर हम अपनी बुद्धि और ज्ञान को सम्पन्न करें, जिसके आलोक में भविष्य के सचेत, सकर्मक और दृढ़ प्रतिज्ञ लोग आगे बढ़ेंगे-“ओ नागात्मन्/ संक्रमण-काल में धीर धरो,/ईमान न जाने दो!!/तुम भटक चलो,/इन अन्धकार- मैदानों में सर-सर करते!!/शत उपेक्षिता भूमि में फिँके/चुपचाप छिपाये गये/शुक्र, गुरु, बुध, मंगल/कचरे की परतों-ढँके तुम्हें मिल जायेंगे!!/खोदो, जड़ मिट्टी को खोदो!/ओ भू-गर्भशास्त्री,/भीतर का बाहर का/व्यापक सर्वेक्षण कर डालो,” (मुक्तिबोध/’ओ काव्यात्मन् फणिधर’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-184)।
कुल मिलाकर मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो उनकी कविताएँ ज़िन्दगी की कोख से जनमा हुआ नया इस्पात है, जिससे बेहतर इन्सान और एक सुन्दर समाज का ढाँचा खड़ा किया जा सकता है। आज झूठ के इस फैलते साम्राज्य में ’सत्य से सत्ता के युद्ध’ के विरूद्ध उनकी कविता में चमचमाते आयुधों की कमी नहीं है। उन्हें विश्वास है कि ’ज़िन्दगी बुरादा है तो बारूद बनेगी ही’। इस अँधेरी रात के जंगल में आग के फूल अवश्य खिलेंगे। उनकी कविताओं में युगों से बहती मनुष्य की वेदना नदियों की एक-एक लहरों का लेखा-जोखा होने के साथ-साथ मानव मुक्ति के शिलालेख भी हैं। धरती के भीतर बहती धारा के तल में चमकते पत्थरों और द्युतिमान मणियों से लेकर जंगल, पठार, पहाड़, समुद्र से लेकर ब्रह्माण्ड के नेब्युलाओं तक उनकी कविता का प्रसार है। उन सबके भीतर और बाहर का व्यापक सर्वेक्षण है।
समकालीन कविताएँ अपने शिल्प में पुनः नई कविता की कटी-छँटी, बनी-सँवरी कविताओं की ओर लौट रही हैं। उनमें जीवन द्रव्य और जीवन राग की कमी है। मुक्तिबोध ने नई कविता को जिस तरह मध्यवर्गीय और नगरीय बोध के दायरे से बाहर निकाला और लम्बी कविता के जटिल शिल्प को विकसित किया, उससे प्रेरणा लेकर समकालीन कविताएँ अपनी जड़ता को भंग कर सकती हैं। मुक्तिबोध की भाषा वजनदार पत्थर की तरह है जो चोट करती है, दिल की गहराई में उतरती है, खुद को और विरोधियों को लहूलुहान करती है और आकाश के सघन अंधकार में रोशनी की सूराख बनाती है। उनके गैर पारंपरिक बिम्ब धरती के गर्भ से निकले अनगढ़ तप्त रत्नों की तरह रश्मियाँ बिखेरते हैं। उनकी कविता में यथार्थ के विकट अनुभव, तीक्ष्ण और धारदार विचार, विकल जनवेदना, दिमाग की नसों को दरका देने वाला तनाव, जन साधारण के प्रति गहरी श्रद्धा और आस्था एवं रातों की नींद और दिन का चैन उड़ा देने वाले स्वप्न आपसी अन्तर्क्रिया से एक ऐसा सान्द्र जीवन द्रव्य तैयार करते हैं जो हमें पूरी तरह रूपान्तरित कर देता है। हमारी दुनिया बहुत बड़ी हो जाती है। ये कविताएँ हमारी आन्तरिक शान्ति को विनष्ट कर हमें गहरे रूप में उद्वेलित करती हैं। वह धोबी के कपड़े की तरह हमें भिगोती है, पछीटती है और सत्य की रोशनी में वक्त की रस्सी पर सूखने को डाल देती है।

सियाराम शर्मा

7/35, इस्पात नगर, रिसाली,
भिलाई नगर,
जिला-दुर्ग (छत्तीसगढ़)
पिन-490006
Mob. No- 09329511024
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