अंतराष्ट्रीय महिला दिवस पर फिल्में भी देखी और परिचर्चा भी हुई

रायपुर  8 मार्च 2020 ( इंडिया न्यूज रूम )  संकेत फ़िल्म सोसायटी एवं छत्तीसगढ़ मीडिया एवं एंटरटेनमेंट की ओर से आयोजित कार्यक्रम में समाज के विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाओं तथा युवतियों ने भागीदारी की.

कार्यक्रम की शुरुआत तथा संचालन  करते हुए ऋचा ने कहा अंतराष्ट्रीय महिला दिवस के इतिहास का जिक्र करते हुए आज महिला दिवस के नाम पर ग्लैमर और दिखावा बढ़ गया है, महिलाओं के मूल मुद्दों जैसे “समान मजदूरी तथा निर्धारित काम के घंटे “ पर जिन  मुद्दों  पर ये शुरू हुआ था उन पर कोई बात नही करता. जागरूकता की बेहद जरूरत है जिससे महिलाओं की स्थिति में सकारात्मक सुधार हो सके.

इसके बाद महिलाओं और समाज के इन मुद्दों पर केंद्रित फिल्मों से शुरुआत की गई, जिसमें ‘जूस’ , ’दे कॉल मी बिदेशिनी’ , “अ वूमेन चेंज नेम इन ऐज 45” , ‘गुमनाम साहस’ एवं “होम एन्ड द वर्ल्ड व्हेन गल्स गो आउट” का प्रदर्शन किया गया.

  फिल्मों के बाद महिलाओं के मुद्दों पर विस्तृत बातचीत करते हुए कथाकार तथा छत्तीसगढ़ महाविद्यालय की प्राध्यापक उर्मिला शुक्ला ने अधिसंख्य भारतीय पुरुष समाज आज भी 18 वीं सदी की मानसिकता में जी रहे हैं जबकि विकास क्रम में महिलाओं ने 21 वीं  सदी में होने के कारण वैसी ही अपेक्षा पुरुष समाज से भी की है. संवेदनशीलता का सबक जब तक परिवारों में नही दिया जाएगा समाज में अपराध में कमी नही होती दिखाई देगी. उन्होंने कहा कि बेटों को हमने अभी तक हाथों पर उठाए रखा है जिन्हें अब बेटियों के बराबर जमीन पर उतारने की जरूरत है, मानसिकता को बदलने की जरूरत है, ज्यादातर पुरुष अभी भी अठारहवीं सदी की मानसिकता में चल रहे हैं, समाज में ये बदलाव लाने की जिम्मेदारी महिलाओं की ही है. स्त्री के विरोध को पुरुष सह नही पाते लेकिन वे अपने स्वार्थ के पूरे होते तक ही अपनी पत्नी , बेटी , बहनों का सम्मान करते हैं।जैसे ही उनके स्वार्थ पूरे नही होते उसे स्त्री सबसे गलत लगती है.

समता कालोनी के लाइफ वर्थ हास्पिटल  के सभा कक्ष में आयोजित  चर्चा में भागीदारी करते हुए फिज़ा ने छपाक फ़िल्म का जिक्र किया तथा संवेदनशील मुद्दा होने के बावजूद उस फिल्म को मुख्यधारा की मिडिया द्वारा नज़र अंदाज करने, के कारण ज्यादातर युवा वर्ग द्वारा उसे न देखने का मुद्दा उठाया. जबकि महिलाओं के प्रति समाज के एक बड़े हिस्से की मनःस्थिति को दर्शाने वाली वो फिल्म बेहतरीन सन्देश देती है.

        रायपुर  के पंडरी इलाके के महिलाओं की स्वसहायता समूह संचालक, गुलाबी गैंग की अध्यक्ष नसीमा बानो ने अपने अनुभवों से बताया कि महिलाओं को संगठित करके शराब के खिलाफ आंदोलन चलाने से न केवल अपराध नियंत्रित हुए बल्कि महिलाओं का आत्मविश्वास और उनकी आय बढ़ाने के लिये भी काम किया जा सका. कार्यक्रम में विचार रखते हुए शिक्षा जगत से जुड़ी  नीता यदु ने कहा कि लड़कियों को उनकी इच्छा के अनुसार अवसर देने से समाज में सकारात्मक बदलाव आ रहा है. एक सवाल उठाया गया कि समाज को बदलने के लिए ये असर क्या फिल्मों से कुछ पॉजिटिव सकारात्मक फर्क आ रहा है. बच्चे पर करियर का दबाव खुद पेरेंट्स का है आर्थिक कारणों से बच्चों का खुद पर भी होता है जिसका तनाव जीवन पर बढ़ रहा है.

भारतीय खाद्य निगम में प्रबंधक के पद पर कार्यरत अर्चना बौद्ध ने महिलाओं के प्रति कार्यालयीन परिसरों में भेदभाव को ले कर अपनी बात रखी. सामाजिक आर्थिक क्षेत्र के पिछड़े वर्गों में भी महिलाओं के प्रति संवेदनशील व्यवहार न होने के प्रति चिंता दर्शायी.

शीतल केडिया ने स्त्रियों के प्रति पढ़े लिखे समाज में भी सही नजरिया नही होने को दुखद बताते हुए घरों में लड़कों को अधिक से अधिक संवेदनशील बनाने पर जो दिया. अभी का युवा कारपोरेट कल्चर से प्रभावित है उसे समाज के बदलाव के बजाय सिर्फ मौज मस्ती पर जोर है.

अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन में कार्यरत श्रीदेवी ने महिलाओं द्वारा तमाम ऊंचाइयों को छूने के बाद भी उनके प्रति नज़रिया नही बदलने पर दुख व्यक्त किया गया. महिलाओं को शिक्षा और रोजगार पर ध्यान देते हुए खुद को मजबूत बनाने पर जोर दिया, उन्होंने कात्यायनी की कविता के पाठ के द्वारा महिलाओं का आह्वान किया.

युवा राबिया द्वारा काव्यपाठ किया गया, जिसमे दुर्गा की शक्ति समेटे होने के बावजूद स्त्री को उसका अधिकार नहीं मिलने पर चिंता व्यक्त की गयी. वर्तमान समाज में महिलाओं की  हालत को दर्शाया गया था , स्त्रियों के प्रति दोहरे मानदंडो पर प्रश्न उठाया गया.  डॉ महिमा मित्तल  के  द्वारा प्रारम्भ  में  अतिथियों का स्वागत किया गया . फ़िल्म सोसायटी के शेखर नाग ने फिल्मों को सामाजिक परिवर्तन और आंदोलन से बदलाव का बहुत सशक्त माध्यम बताया, अंत मे आभार प्रदर्शन  छत्तीसगढ़ मीडिया एंड एन्टरतेन्मेंट के संचालक पी सी रथ ने  किया तथा महिला दिवस के अवसर पर संगोष्ठी में फ़िजा, रोजा, राबिया तथा अन्य युवाओं की इस भागीदारी को महत्वपूर्ण बताया. महिला दिवस के अवसर पर महिलाओं के मूल मुद्दों पर बहस छेड़ने से ही समाज में बदलाव की प्रक्रिया को तेज किया जा सकता है, महिलाओं का एक दिन सिर्फ सम्मान किये जाने से ये बदलाव नहीं आएगा.

 

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