मी टू अभियान कितना सफल , जरुरी और कितना निरर्थक ?
कैलाश सैनी की प्रस्तुति
MeToo – सभ्य समाज की उस पोल को खोल रहा है जहां एक सफल महिला, एक सफल और ताकतवर पुरुष पर आरोप लगाकर अपनी सफलता अथवा असफलता का श्रेय मीटू को दे रही है. यानी अगर वो आज सफल है तो इस ‘सफलता’ के लिए उसे ‘बहुत समझौते’ करने पड़े. और अगर वो आज असफल है, तो इसलिए क्योंकि उसने अपने संघर्ष के दिनों में ‘किसी प्रकार के समझौते’ करने से मना कर दिया था. अब भारत में मी टू की शुरुआत करने का श्रेय पूर्व अभिनेत्री तनुश्री दत्ता को जाता है जिन्होंने 10 साल पुरानी एक घटना के लिए नाना पाटेकर पर यौन प्रताड़ना के आरोप लगाकर उन्हें कठघरे में खड़ा कर दिया. इसके बाद तो ‘मी टू’ के तहत रोज नए नाम सामने आने लगे. पूर्व पत्रकार और वर्तमान केंद्रीय मंत्री एम जे अकबर, अभिनेता विवेक अग्निहोत्री , नाना पाटेकर , आलोक नाथ, रजत कपूर, गायक कैलाश खेर, फिल्म प्रोड्यूसर विकास बहल, लेखक चेतन भगत, गुरसिमरन खंभा, फेहरिस्त काफी लम्बी है.यह बात सही है कि हमारा समाज पुरुष प्रधान है और एक महिला को अपने लिए किसी भी क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ता है.
लेकिन यह संघर्ष इसलिए नहीं होता कि ईश्वर ने उसे पुरुष के मुकाबले शारीरिक रूप से कमजोर बनाकर उसके साथ नाइंसाफी की है बल्कि इसलिए होता है कि पुरुष स्त्री के बारे में उसके शरीर से ऊपर उठकर कभी सोच ही नहीं पाता. लेकिन इसका पूरा दोष पुरुषों पर ही मढ़ दिया जाए तो यह पुरुष जाति के साथ भी नाइंसाफी ही होगी क्योंकि काफी हद तक महिला जाति स्वयं इसकी जिम्मेदार हैं.इसलिए नहीं कि हर महिला ऐसा सोचती है कि वह केवल अपनी प्रतिभा और मेहनत के बल पर सफल नहीं हो सकतीं किन्तु इसलिए कि जो महिलाएं बिना प्रतिभा के सफलता की सीढ़ियां आसानी से चढ़ जाती हैं वो इन्हें हताश कर देती हैं. इसलिए नहीं कि एक भौतिक देह जीत जाती है बल्कि इसलिए कि एक बौद्धिक क्षमता हार जाती है. इसलिए नहीं कि शारीरिक आकर्षण जीत जाता है बल्कि इसलिए कि हुनर और कौशल हार जाते हैं. इसलिए नहीं कि योग्यता दिखाई नहीं देती बल्कि इसलिए कि देह से दृष्टि हट नहीं पाती.
आज जब मी टू के जरिए अनेक महिलाएं आगे आकर समाज का चेहरा बेनकाब कर रही हैं तो काफी हद तक कटघरे में वे खुद भी हैं. क्योंकि सबसे पहली बात तो यह है कि आज इतने सालों बाद सोशल मीडिया पर जो ‘सच’ कहा जा रहा है उससे किसे क्या हासिल होगा? अगर न्याय की बात करें तो सोशल मीडिया का बयान कोई सुबूत नहीं होता जो इन्हें न्याय दिला पाए या फिर आरोपी को कानूनी सज़ा. हां आरोपी को मीडिया ट्रायल और उससे उपजी मानसिक और सामाजिक प्रतिष्ठा की हानि की पीड़ा जरूर दी जा सकती है. लेकिन क्या ये महिलाएं जो सालों पहले अपने साथ हुए यौन अपराध और बलात्कार पर तब चुप रहीं इनका यह आचरण उचित है? नहीं, ये तब भी गलत थीं और आज भी गलत हैं. क्योंकि कल जब उनके साथ किसी ने गलत आचरण किया था उनके पास दो रास्ते थे. उसके खिलाफ आवाज उठाने का या चुप रहने का, तब वो चुप रहीं.आज भी उनके पास दो रास्ते थे, चुप रहने का या फिर मी टू की आवाज़ में आवाज़ मिलाने का, और उन्होंने अपनी आवाज उठाई. वो आज भी गलत हैं. क्योंकि सालों तक एक मुद्दे पर चुप रहने के बजाय अगर वो सही समय पर आवाज उठा लेतीं तो यह सिर्फ उनकी अपने लिए लड़ाई नहीं होती बल्कि हजारों लड़कियों के उस स्वाभिमान की रक्षा के लिए लड़ाई होती जो उन पुरुषों को दोबारा किसी और लड़की या महिला के साथ दुराचार करने से रोक देता. लेकिन इनकी चुप्पी ने उन पुरुषों का हौसला बढ़ा दिया. उस समय उनकी आवाज इस समाज में एक मधुर बदलाव ला सकती थी लेकिन आज जब वो आवाज़ उठा रही हैं तो वो केवल शोर बनकर सामने आ रही हैं. वो कल भी स्वार्थी थीं, वो आज भी स्वार्थी हैं. कल वो अपने भविष्य को संवारने के लिए चुप थीं आज शायद अपना वर्तमान संवारने के लिए बोल रही हैं. यहां यह समझना जरूरी है कि यह नहीं कहा जा रहा ये महिलाएं गलत बोल रही हैं बल्कि यह कहा जा रहा है कि गलत समय पर पर बोल रही हैं. अगर सही समय पर ये आवाजें उठ गई होतीं तो शायद हमारे समाज का चेहरा आज इतना बदसूरत नहीं दिखाई देता. केवल पुरुषों को दोष देने से काम नहीं चलेगा. गीता में भी कहा गया है कि अन्याय सहना सबसे बड़ा अपराध है.

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