शाकिर अली की कविताएं
बस्तर अपने प्राकृतिक सौंदर्य, दुर्गम जंगलों और आदिम जनजातीय संस्कृति के लिए पिछली शताब्दी के पूर्वार्ध में मानवशास्त्रियो के आकर्षण का केंद्र रहा; और आजादी के बाद के दशकों में अपने समृद्ध खनिज संसाधनों के दोहन के लिए.वहीं शताब्दी का आखरी दशक 'नक्सलवाद' के उभार और प्रतिरोध के लिए चर्चित हुआ. यों ये सभी घटनाएं अलग-अलग जरूर प्रतीत होती हैं, मगर आपस मे सम्बद्ध हैं.बस्तर सहित तमाम जनजातीय क्षेत्रों की यह विडम्बना रही है कि ये प्राकृतिक संसाधनों से संम्पन होकर भी विपन्न रहे हैं. इनके सारे संसाधन 'महानगरों' के विकास के लिए उपयोग होते रहे हैं. अपने 'विकास' के लिए पर्यावरण को नष्ट कर चुकी शहरी सभ्यता के 'रक्षा' की 'जिम्मेदारी' बलात इन पर थोप दिया गया है.यों इस 'विकास' के चिन्ह अब इन क्षेत्रों में भी दिखाई देने लगे हैं.बस्तर के जनजातियों में प्रतिरोध की संस्कृति रही है, वे समय- समय पर अन्याय के के विरुद्ध आवाज़ उठाते रहे हैं; आज का प्रतिरोध भी उसी परंपरा का अंग है.मगर इस प्रतिरोध के अपने अंतर्विरोध भी हैं.शाकिर अली जी की कविताएं इन अंतर्विरोधों को उजागर करती हैं. बस्तर पर कविताएं लिखी जाती रही हैं; लिखी जा रही हैं.मगर बहुधा वे उसकी संस्कृति, सौंदर्य पक्ष और रोजमर्रा की जिंदगी को ही उद्घाटित करती रही हैं. जनजातियों के संघर्ष,नक्सलवाद और उससे निर्मित परिस्थितियां, पर्यावरण की तबाही, औद्योगिक लूट लगभग अछूते रह गए थे. ये पहली बार शाकिर जी की कविताओं में ही शिद्दत से उभर कर आये हैं.यह अकारण नही कि जब ये कविताएं पहली बार 'पहल' में प्रकाशित हुई थीं तब काफी चर्चित हुई थीं.आज संकलित होकर 'बचा रह जायेगा बस्तर' के रूप में आ जाने से पाठकों को आसानी से प्राप्त हो सकेंगी.
शाकिर जी अपनी नौकरी के दौरान काफी समय तक बस्तर में रहे हैं; और वहां घटित घटनाओं-दुर्घटनाओं को करीब देखा है.उनका संवेदनशील कविमन इनसे अछूता नही रह सका है, जिसकी परिणीति ये कविताएं हैं. ये छोटी-छोटी कविताएं एक ही 'केंद्रीय सम्वेदना' के इर्द-गिर्द घूमती प्रतीत होती हैं. वह है बस्तर की विडम्बना! एक खनिज और प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध क्षेत्र आज अपने निवासियों के खून से रंगा है! भाई-भाई से लड़ रहा है! " आदिवासियों को मिटाना कितना आसान होता है,/उन्हें एक दूसरे से लड़ा दो".व्यवस्था का चरित्र यह है कि "बस्तर में आई रेल/यहां से लूटकर के गई सारा कुछ/ लोगों को/लंगोटी में ही छोड़कर! या फिर "बस्तर के खनिज / पता नही किसका घर भर रहें हैं?".बस्तर की कला, सौंदर्य की बात क्या बस्तर के लोग ही आज "बस्तर आर्ट" बनकर रह गए हैं. इधर संघर्ष के लिए कोई सर उठाये तो 'जंगलवार' है, 'सलवा जुडूम' है, 'एनकाउंटर' है.जो 'हक की लड़ाई के लिए' दावा करते रहे हैं,उनका चरित्र भी आज छुपा नहीं है. वे 'हक की लड़ाई' के लिए निर्दोषों का खून बहा रहे हैं.स्कूलें बंद हैं. या तो उसे बंकर समझ कर ध्वस्त कर दिया गया है, या सर्चिंग पार्टी के लिए खाली करवा दिया गया है. कहीं शिक्षक की 'मुखबिर' समझ कर हत्या कर दी जाती है. हर तरफ हवाओं में एक बारूदी 'गंध' है.यहां टिफिन में खाना नही बम है! जीवन इस कदर असुरक्षित है कि किसी को पूरी तरह यकीन नही की वह सुरक्षित घर पहुंच जाएगा.पता नही कौन कब बारूदी सुरंग की चपेट में आ जाए;या कोई गोली भेदती निकल जाए! इन कविताओं में बार-बार बस्तर की समस्या के प्रति 'सरलीकरण' से बचने के लिए आगाह किया गया है.केवल दूर से देखकर 'बौद्धिक सहानुभूति' और 'निष्कर्ष' से स्कूल को बंकर समझने जैसी चूक होती है या फिर समस्या को एकांगी देखने की गलती. हकीकत यह है कि आदिवासी दोनो तरफ से मारे जा रहे हैं. उसकी चिंता किसे है? वे 'स्पेशल पुलिस ऑफिसर' हैं, भले वेतन दस हजार! वह भी पता नही कब तक. उनके 'विकास' के नाम पर जंगल काटे जा रहे हैं; 'शहरीकरण' किया जा रहा है,करोड़ो खर्च किया जा रहा है "लेकिन सब कुछ नष्ट कर/ क्या नवनिर्माण सम्भव है/बिना सर्वजन को साथ लिए? ये छोटी-छोटी कविताएं सहज ढंग से,बमगर गहरी व्यंजना लिए,अपनी बात कह रही हैं. पाठक सहजता से इनका अर्थ समझ लेता है, मगर इनकी व्यंजना देर तक ज़ेहन में गूंजती रहती है. यह कहने की जरूरत नही की इस 'विभीषिका' का चित्रण उसे( बस्तर)बचाने की बेचैनी और उससे गहरे प्रेम का ही परिणाम है.
कृति- बचा रह जायेगा बस्तर(कविता संग्रह)
लेखक-शाकिर अली
प्रकाशक-उद्भावना प्रकाशन, गाजियाबाद
मूल्य- 125 रुपये