“अर्णब गोस्वामी जैसे लोगों से अदालतों के जरिए नहीं बल्कि राजनीतिक ताकत से निपटना होगा। अदालत पर गुर्राने से काम नहीं चलेगा कि इस तरह के घृणित शख्स को गिरफ्तारी से बचने की मोहलत क्यों दे दी गई?”

मीडिया में अंधभक्ति के जरिए सियासत ने ही भारत में एक तरह की उद्धंड और विभाजनकारी पत्रकारिता को जन्म दे दिया है। यही विष वमन समाज में ठेठ गांवों की चौपाल और शहरों व कस्बों के ड्रॉइंग रूम तक मको दूषित करने का काम कर रहा है। उसके अवतार के तौर पर अर्णब गोस्वामी उसका मुखौटा मात्र हैं। राजनीतिक दुष्प्रचार को टीवी स्टूडियो से कोरोना कारावास भुगत रहे लोगों तक पहुंचाने वाले का काम टीवी चैनलों के एंकर कर रहे हैं। इनमें से अधिकतर पत्रकार के भेष में पिछले छह साल के मोदी शासन काल में पल्लवित पुष्पवित हुए हैं।

टीवी चैनल झूठ के एजेंडे और बीजेपी के लंबे चौड़े प्रचार तंत्र व झूठ पर सच का मुलम्मा चढ़ाकर सूचनाओं, घटनाओं को तोड़ मरोड़ रहे हैं। ये लोग भारत के लिखे पढ़े आवाम को सूचनाओं से अनपढ़ और उनके मन मस्तिष्क को विषैला बनाने का काम कर रहे हैं।

ताजा मामले में कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणियों के लिए सर्वोच्च अदालत से भले ही अर्णब गोस्वामी को राहत मिल गई हो लेकिन विशेषज्ञ मानते हैं कि जिस तरह से देश के पूरे तंत्र का तानाबाना रातोंरात सक्रिय किया गया है उसे देखकर लगता यही है कि अभी खेल खत्म नहीं बल्कि शुरू हुआ है। चूंकि पालाघर क्षेत्र में दो साधुओं व उनके वाहन चालक की हत्या को लेकर देश में सामाजिक विभाजन का जहर फैलाने की समूची योजना पर पानी फिर गया इसलिए एजेंडा बदलने को कुछ तो करना था, सो मोदी की सत्ता को अपने दम पर चुनौती दे रही सोनिया गांधी को ही सॉफ्ट टारगेट के तौर पर तलाशा गया।

मीडिया समीक्षक प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी कहते हैं, “अर्णब गोस्वामी केंद्र की मोदी सरकार, बीजेपी, आरएसएस के घृणित एजेंडे का निमित्त मात्र है असल मुद्दा यह है कि कि आजकल मोदी सरकार को पाकिस्तान का एजेंडा चलाए बगैर जीना पड़ रहा है। अच्छी बात तो यह है कि हर रोज हेल्थ मिनिस्ट्री की ब्रीफिंग जो तब्लीगी जमात पर केंद्रित होती थी बंद करनी पड़ी क्योंकि लोगों को लग गया कि मोदी सरकार कोरोना से नहीं बल्कि नफरत फैलाने का कैंपैन चला रही है।”

क्या अर्णब गोस्वामी को सुप्रीम कोर्ट से मिली राहत से उनके झूठ के दुष्प्रचार पर स्थायी तौर पर कोई पर्दा डाल जाएगा और उनके फैलाए गए झूठ व सोनिया गांधी के खिलाफ उगले गए राजनीतिक व विषैले दुपष्प्रचार को इससे बढ़ावा नहीं मिलेगा? इस सवाल को मीडिया व सामाजिक क्षेत्र के लोग आने वाले वक्त में एक बड़ी लड़ाई का आधार मानते हैं। वरिष्ठ पत्रकार व लेखक रामशरण जोशी कहते हैं, “अर्णब गोस्वामी जैसे लोगों से अदालतों के जरिए नहीं बल्कि राजनीतिक ताकत से निपटना होगा। अदालत पर गुर्राने से काम नहीं चलेगा कि इस तरह के घृणित शख्स को गिरफ्तारी से बचने की मोहलत क्यों दे दी गई?”

टीवी चैनलों को सत्ता पक्ष का भौंपू बनने व विपक्षी नेताओं के खिलाफ विषवमन करने की खतरनाक स्थिति पर मीडिया विशेषज्ञ भौंचक हैं। जाने माने पत्रकार व विदेशनीति मामलों के विशेषज्ञ शास्त्री रामचंद्रन अर्णब गोस्वामी का नाम भी लेना नहीं चाहते। वृहद फलक पर अपनी बात रखते हुए कहते हैं, “असल में धर्म व सांप्रदायिकता फैलाकर सत्ता प्रतिष्ठानों पर विभाजनकारी दलों व नेताओं को बिठाने का काम अगर मीडिया के नाम पर कुछ तत्वों ने अपने हाथ में ले लिया है तो समझो देश में लोकतंत्र के लिए सबसे बड़े खतरे की घंटी बज चुकी है। ऐसे लोग अगर पत्रकारिता के पेशे को कलंकित करेंगे तो देश में जोकुछ पत्रकार बचे हैं उन्हें ही आगे आकर देश को बताना होगा कि घृणा और नफरत फैलाने वाले यह अमुक शख्स को पत्रकार कहकर संबोधित करना ही समाज व देश के लिए घातक होगा।”

वस्तुतः कोरोना से निटपने में मोदी सरकार की पूरी तैयारियों की सच्चाइयों से एक एक करके पर्दा उठता जाना मोदी सरकार की सबसे बड़ी विफलता साबित हुई। जितनी बड़ी महामारी उतनी ही बड़ी रणनीति सूचनाओं को रोकने के लिए समर्थक टीवी चैनलों व कॉरपोरेट मीडिया का इस्तेमाल कर अपनाई गई।

क्या मोदी सरकार कोरोना को उपचार और इस महामारी से जुड़ी जानकारियों को छिपाकर इतनी बड़ी जंग को जीत पाएगी? इस पर कई विशेषज्ञों को गहरा संशय है। उनका कहना है कि सरकार को सूचनाओं का प्रवाह रोकने के बजाय उसे और प्रभावी बनाना चाहिए। वरिष्ठ मीडिया समीक्षक व लेखक सुधीश पचैरी कहते हैं।- सूचनाओं को जितना छिपाने की कोशिशें होंगी उतनी वे किसी न किसी तौर पर बाहर निकलेंगी। पचौरी कहते हैं, “अच्छी और बुरी पत्रकारिता हर दौर में हुई है। सूचनाओं को रोकने की कोशिशें देश ने पहले भी देखीं हैं, लेकिन इसके बाद और भी अखबार व पत्रिकाएं निकलीं और देश में अच्छी पत्रकारिता का स्वर्णिमकाल आया। सरकार के पक्ष में झूठी व मनगढ़ंत खबरों को परोसने की कोशिशें एक अस्थायी फेस है तथा जैसे ही यह दौर खत्म होगा लोग सच्ची, ईमानदार व तथ्यपरक पत्रकारिता पर ही भरोसा करेंगे।”

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