आज के हालत का बयान अपने तरह से करती ये नये सुगढ़ कवि की कविता सचेत करने वाली कविता है, जिए परवाह है देश की , जनता की और सबसे ज्यादा इंसानियत की , संवेदना की कविता

महामारी में देश
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वे जो सोफे में धंसे हुए
रामायण देखकर भाव विह्वल हैं
वे जो खबरों से पैदा हुए डर के नशेड़ी हैं
वे जो गूगल पर रोज नया पकवान सर्च करते हैं
वे जो थाली बजाते हैं, दिये जलाते हैं
पुष्पवर्षा देख होते हैं आनंदित
वे जो अपने अपने घरों में रहते हुए
महामारी से महायुद्ध लड़ने का दावा करते हैं
वे सभी इसी महादेश में उपस्थित हैं
मगर मुझे उनमें देश दिखाई नहीं देता

दरअसल देश वहां है ही नहीं
देश कहीं और है

देश भागा जा रहा है सड़कों पर
पुलिस की लाठी से डरकर पटरियों पर रेंगता हुआ
जहां रबड़ और चमड़े की चप्पलें दम तोड़ चुकी हैं
जहां पांव के छाले अब छाले जैसे नहीं रहे
जहां दूरी हर दर्द पर भारी है
देश उन्हीं सड़कों और पटरियों पर है
कटता, मरता, भागता

देश रास्ते पर खड़े उस पेड़ के नीचे है
जिसके नीचे दौड़ती-भागती एक गर्भवती औरत
दर्द और थकान से चूर होकर गिरी थी
उसने अभी अभी बच्चा जना है
जहां की मिट्टी अब भी गीली और रक्तिम लाल है
देश वहीं है
दर्द से कराहता, खून से सना हुआ

देश मिट्टी से सनी उस हथेली में है
जो अभी एक नवजात को रास्ते के किनारे दफना आई है
और उसके खाली पालने को भविष्य के लिये
अपने साथ धकेले जा रही है
ये हथेली जब पोंछती है दो दर्दभरी आंखों की नमी
मिट्टी के निशान माथे पर छोड़ देती है
देश वहीं है मिट्टी में
पसीने, आंसू और खून से भीगा हुआ

देश मिट्टी की बनी उन कच्ची झोंपड़ियों में है
जिनके भीतर कई दिनों का ठंडा चूल्हा है
और देहरी के बाहर आग उगलती
पुलिस की लाठियां हैं
जिनकी दीवारें महामारी से तो नहीं दरकीं
मगर भुखमरी से ढही जा रही हैं
देश वहीं है उन झोंपड़ियों में
भय और भूख से लाचार

हर उस जगह
लंगड़ाता, डगमगाता हुआ मेरा देश है
जहां पसीना है, आंसू हैं, खून है
जहां भूख है, पीड़ा है, मृत्यु है।

अभिषेक ‘अंशु ‘

अशोक नगर गुना ( मध्यप्रदेश )

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