वरवरा राव

#क्रांतिकारी कवि #वरवर राव को #रिहा किया जाए । उनकी #नजरबंदी अन्याय है

डेस्क ( इंद्र राठौर)

भारत में यूरोपीय औपनिवेशिक दासता की जड़ें 1498 से पुर्तगाली नाविक वास्कोडिगामा के भारत आगमन के साथ ही पड़नी शुरू हो गई । जो आगे चलकर डच ब्रिटिश कंपनियों के माध्यम औपनिवेशिक दासता अर्थात् दोहरी सत्ता के किंवदंतियों से सैकड़ों वर्ष तक जकड़ा रहा । यह वह समय था जिसमें तात्कालीन रियासतों में सत्ता छीन जाने का भय चरम पर था पर कहीं-कहीं और किसी-किसी
रियासतों से इस पर विरोध का बिगुल भी फूटने लगा था । कहना न होगा कि ठीक इसके परस्पर ही जीवन मूल्यों और आजादी के प्रति ललक रखते आम जन में यह विरोध का भाव भी आकार लिया तथा उनके अनथक संघर्ष व प्रयत्नो से भारत स्वाधीन हुआ । तब से स्वतंत्र भारत में संघर्ष की इबारत का एक बड़ा इतिहास इसके पटल में अंकित है । आजाद भारत का स्वप्न जिन आंखों ने दीवानगी की हद तक ‘अपना भारत’ के रूप देखना स्वीकार किया उनके लिए चंद ही दिनों में सत्ता के दुरभिसंधियों से मोहभंग की स्थिति भी बनता ही ग‌या । आजाद भारत के लिए यह दुख की बात है कि महज 10 – 15 वर्ष में ही वह मोहभंग के त्रासद दौर से गुज़र अब तलक उबर नहीं पाया । आजाद भारत में मोहभंग का समय साठ के दशक का है । बताना न होगा इस कमोबेश मोह भंग ने जनता को आक्रमक होने बाध्य किया । जो नक्सलबाड़ी आंदोलन के उभार में शिद्दत से महसूस किए जा सकते हैं । इस आंदोलन का प्रभाव न सिर्फ कला के अन्य माध्यमों में दिखाई देता है बल्कि कविता में कहीं उससे और भी अधिक तथा प्रचुर मात्रा में दिखाई देता है । तेलगु कवि वरवर राव आजादी के उन्हीं दीवाने मतवालों में हैं । जो हर वक्त अपने जीवन को दबे , कुचले , शोषित , उत्पीड़ित जनता के संघर्ष में होम कर देते रहे हैं। वरवर राव मूल तेलगु कवि हैं पर भारतीय भाषाओं के प्रत्येक भाषा में सबसे अधिक स्वीकारे जाने वाले कवि हैं । आज वे 80 वर्ष की आयु को पार कर ग‌ए हैं और उस क्रूर तथा बर्बर तंत्र के अधीन जेल की सलाखों में हैं ; जिसके निर्माण में कभी सुभाष , भगत , आजाद , विस्मिल , खुदीराम , गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे युवाओं ने अपने प्राणों की आहुति दे दी थी । खैर ! वरवर राव कवि हैं , कविताएं लिखते हैं , और इस निस्पृह व्यवस्था प्रणाली से खासे नाराज हैं , तो स्वभाविक है विरोध की ही कविताएं लिखेंगे हैं । पर क्या यह सत्ता ब्रिटानी हूकूमत और इशारे पर चलने वाली सत्ता है ? जो असहमति बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर सकती ! कि संवैधानिक मूल्यों को ताक में रखकर आदमी के मूल अधिकारों और अभिव्यक्ति की आजादी को छीन लेना चाहती है !! कि राज्य अथवा गणतंत्र को एक छत्र औपनिवेशिक राज्य में पुनर्स्थापित करने की मंशा को अंतिम रूप देने की स्थिति में है !!! मैं फिर कह रहा हूं वरवर राव कवि हैं , कविता लिखते हैं । कहना न होगा कि ताकत और तंत्र सत्ता के अधीन मैनुपुलेट होते हैं फिर सत्ता इतनी डरी क्यों है इस कवि की कविता से । यह सत्ता कोढ़ और कायर सत्ता है जो संस्कृति कर्मियों से डरी हुई है । वरवर राव वो कवि हैं जो आजादी के अर्थ को जीवन्त बनाए रखने के लिए संवैधानिक मूल्यों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को लेकर हमेशा ही मुखर रहे हैं व विचारधारा को सर्वोपरि मानते हैं । श्रम साध्य लोगों के संघर्ष को अपना मान अपने जीवन की आहुति दी है । वे अपनी कविताओं में नव‌उदारवाद , बाजारवादी , वैश्वीकरण औद्यौगिक विसंगतियों से उपजने वाली भ्रामक विकास के चपेट में आने से प्रकृति के विनाश के प्रति आगाह करते हुए उसका तेज़ विरोध किया है । यहां साभार कविता कोश के मैं उस विचार और चेतना संपन्न कवि की कविता को उनके अविलंब रिहाई की मांग करते हुए प्रस्तुुुत कर रहा हूं । ताकि वरवर राव के कवि व्यक्तित्व और लेखन के बीच के अर्थवान चरित्र को समझा जा सके ।

इंद्र राठौर

 

चिन्ता

मैंने बम नहीं बाँटा था

न ही विचार

तुमने ही रौंदा था

चींटियों के बिल को

नाल जड़े जूतों से ।

रौंदी गई धरती से

तब फूटी थी प्रतिहिंसा की धारा

मधुमक्खियों के छत्तों पर

तुमने मारी थी लाठी

अब अपना पीछा करती मधुमक्खियों की गूँज से

काँप रहा है तुम्हारा दिल !

आँखों के आगे अंधेरा है

उग आए हैं तुम्हारे चेहरे पर भय के चकत्ते ।

जनता के दिलों में बजते हुए

विजय नगाड़ों को

तुमने समझा था मात्र एक ललकार और

तान दीं उस तरफ़ अपनी बन्दूकें…

अब दसों दिशाओं से आ रही है

क्रान्ति की पुकार ।

स्टील प्लांट
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हमें पता है
कोई भी गाछ वटवृक्ष के नीचे बच नहीं सकता ।

सुगंधित केवड़े की झाड़ियाँ
कटहल के गर्भ के तार
काजू बादाम नारियल ताड़
धान के खेतों, नहरों के पानी
रूसी कुल्पा नदी की मछलियाँ
और समुद्रों में मछुआरों के मछली मार अभियान को
तबाह करते हुए
एक इस्पाती वृक्ष स्टील प्लाण्ट आ रहा है ।

उस प्लाण्ट की छाया में आदमी भी बच नहीं पाएँगे
झुर्रियाँ झुलाए बग़ैर
शाखाएँ-पत्तियाँ निकाले बग़ैर ही
वह घातक वृक्ष हज़ारों एकड़ में फैल जाएगा ।

गरुड़ की तरह डैनों वाले
तिमिगल की तरह बुलडोजर
उस प्लाण्ट के लिए
मकानों को ढहाने और गाँवों को ख़ाली कराने के लिए
आगे बढ़ रहे हैं ।

खै़र, तुम्हारे सामने वाली झील के पत्थर पर
सफ़ेद चूने पर लौह-लाल अक्षरों में लिखा है —

“यह गाँव हमारा है, यह धरती हमारी है —
यह जगह छोड़ने की बजाय
हम यहाँ मरना पसन्द करेंगे” ।

कवि
________________
जब एक डरा हुआ बादल

न्याय की आवाज का गला घोंटता है

तब खून नहीं बहता

आंसू नहीं बहते

बल्कि रोशनी बिजली में बदल जाती है

और बारिश की बूंदें तूफान बन जाती हैं।

जब एक मां अपने आंसू पोछती है

तब जेल की सलाखों से दूर

एक कवि का उठता स्वर

सुनाई देता है।

एक हाथ और दूसरा हाथ
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केरल के तंकमणी गाँव की घटनाओं पर 22.2.1987 के इलेस्ट्रेटिड वीकली में छपे वेणु मेनन के लेख के प्रति आभार सहित

दरवाज़े को लात मार कर खोला है

और घर में घुस कर

जूड़ा पकड़ कर मुझे खींचा है

मारा है । दी हैं गन्दी गालियाँ…

निर्वस्त्र किया है और क्या कहूँ !

छिपाने के लिए अब बचा ही क्या है

मै मुँह खोलूँ ?

उस का अत्याचार

शहद में डूबी मधुमक्खी की तरह

हृदय को सालता जख़्मी कर रहा है मुझे ।

अधिकार के बल से

उसके मुँह में भरी शराब की गन्ध

मेरे चेहरे की घुटन

टूटी चूड़ियों का तल्ख़ अहसास

पेट के भीतर से खींच कर

ख़ून थूकने पर भी नहीं जाता ।

अगर मैं छिपाऊँ यह सब

उसकी पाशविकता को छिपाने जैसा होगा ।

जो भी कहा जाए

यह संसार पवित्र करार दी गई भावना है ।

यह कोई सम्वेदना नहीं

ना ही मानाभिमान की चर्चा है ।

हॄदय और स्वेच्छा पर किया गया

दुराक्रमण है ।

सारी बातें कह डालने पर

और रोने से

हवा में बिखरने वाले पराग की तरह

दिल का बोझ हल्का हो जाता है

और नहीं कहने से

समस्त शरीर को जला देती है वेदना ।

देखती हूँ मनुष्यों को

पति को

बच्चों को

आस-पड़ोस में बसने वाले स्त्री-पुरुषों को

जानती हूँ सभी को

यही मेरे मानवीय सम्बन्धों का तत्त्व है ।

उस रात मेरी आँखों पर

चमगादड़ की तरह झपटी

खाकी अंधेरी जुगुप्सा को…

मनुष्य के आँसू भी नहीं धो सकते ।

शायद प्रतिकार में उबलता हुआ

रक्त ही धोएगा इसे ।

यह सावित्री का अनुभव है

ज़रूरी नहीं,

एलिअम्मा पतिहीन होने पर भी बेसहारा है

ऎसा नहीं है ।

आज यह केरल का तंकमणी गाँव

हो सकता है और

समाचार-पत्रों में अप्रकाशित

गोदावरी के आदिवासियों की

झोपड़ियों का झगड़ा हो सकता है ।

पल्लू पकड़ कर जाती हुई

हाथ को काट लेने वाली

शालिनी को देख कर

यह कहने के लिए इकट्ठे हुए हैं हम

कि नहीं करेंगे अब

किसी से भी

दुश्शासन रूपी अन्धकार को

खंडित करने की प्रार्थना…

यह मिस्समां की पुत्री शालिनी

बन चुकी है हमारे लिए अब स्त्री-साहस का प्रतीक ।

मूल्य
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हमारी आकांक्षाएँ ही नहीं

कभी-कभार हमारे भय भी वक़्त होते हैं ।

द्वेष अंधेरा नहीं है

तारों भरी रात

इच्छित स्थान पर

वह प्रेम भाव से पिघल कर

फिर से जम कर

हमारा पाठ हमें ही बता सकते हैं ।

कर सकते हैं आकाश को विभाजित ।

विजय के लिए यज्ञ करने से

मानव-मूल्यों के लिए लड़ी जाने वाली लड़ाई

ही कसौटी है मनुष्य के लिए ।

युद्ध जय-पराजय में समाप्त हो जाता है

जब तक हृदय स्पंदित रहता है

लड़ाइयाँ तब तक जारी रहती हैं ।

आपसी विरोध के संघर्ष में

मूल्यों का क्षय होता है ।

पुन: पैदा होते हैं नए मूल्य…

पत्थरों से घिरे हुए प्रदेश में

नदियों के समान होते हैं मूल्य ।

आन्दोलन के जलप्रपात की भांति

काया प्रवेश नहीं करते

विद्युत के तेज़ की तरह

अंधेरों में तुम्हारी दृष्टि से

उद्भासित होकर

चेतना के तेल में सुलगने वाले

रास्तों की तरह होते हैं मूल्य ।

बातों की ओट में

छिपे होते हैं मन की तरह

कार्य में परिणित होने वाले

सृजन जैसे मूल्य ।

प्रभाव मात्र कसौटी के पत्थरों के अलावा

विजय के उत्साह में आयोजित

जश्न में नहीं होता ।

निरन्तर संघर्ष के सिवा

मूल्य संघर्ष के सिवा

मूल्य समाप्ति में नहीं होता है

जीवन-सत्य ।

वसन्त कभी अलग होकर नहीं आता
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वसन्त कभी अलग होकर नहीं आता

वसन्त कभी अलग होकर नहीं आता

ग्रीष्म से मिलकर आता है ।

झरे हुए फूलों की याद

शेष रही कोंपलों के पास

नई कोंपलें फूटती हैं

आज के पत्तों की ओट में

अदृश्य भविष्य की तरह ।

कोयल सुनाती है बीते हुए दुख का माधुर्य

प्रतीक्षा के क्षणों की अवधि बढ़कर स्वप्न-समय घटता है ।

सारा दिन गर्भ आकाश में

माखन के कौर-सा पिघलता रहता है चांद ।

यह मुझे कैसे पता चलता

यादें, चांदनी कभी अलग होकर नहीं आती

रात के साथ आती है ।

सपना कभी अकेला नहीं आता

व्यथाओं को सो जाना होता है ।

सपनों की आँत तोड़ कर

उखड़ कर गिरे सूर्य बिम्ब की तरह

जागना नहीं होता ।

आनन्द कभी अलग नहीं आता

पलकों की खाली जगहों में

वह कुछ भीगा-सा वज़न लिए

इधर-उधर मचलता रहता है ।

सीधी बात
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लक़ीर खींच कर जब खड़े हों

मिट्टी से बचना सम्भव नहीं ।

नक्सलबाड़ी का तीर खींच कर जब खड़े हों

मर्यादा में रहकर बोलना सम्भव नहीं

आक्रोश भरे गीतों की धुन

वेदना के स्वर में सम्भव नहीं ।

ख़ून से रंगे हाथों की बातें

ज़ोर-ज़ोर से चीख़-चीख़ कर छाती पीटकर

कही जाती हैं ।

अजीब कविताओं के साथ में छपी

अपनी तस्वीर के अलावा

कविता का अर्थ कुछ नहीं होता ।

जैसे आसमान में चील

जंगल में भालू

या रखवाला कुत्ता

आसानी से पहचाने जाते हैं

जिसे पहचानना है

वैसे ही छिपाए कह दो वह बात

जिससे धड़के सब का दिल

सुगन्धों से भी जब ख़ून टपक रहा हो

छिपाया नहीं जा सकता उसे शब्दों की ओट में ।

ज़ख़्मों को धोने वाले हाथों पर

भीग-भीग कर छाले पड़ गए

और तीर से निशाना साधने वाले हाथ

कमान तानने वाले हाथ

जुलूस के लहराते हुए झण्डे बन गए ।

जीवन का बुत बनाना

काम नहीं है शिल्पकार का

उसका काम है पत्थर को जीवन देना ।

मत हिचको, ओ, शब्दों के जादूगर !

जो जैसा है, वैसा कह दो

ताकि वह दिल को छू ले ।

औरत
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ऐ औरत !

वह तुम्हारा ही रक्त है

जो तुम्हारे स्वप्न और पुरुष की उत्कट आकांक्षाओं को

शिशु के रूप में परिवर्तित करता है ।

ऎ औरत !

वह भी तुम्हारा ही रक्त है

जो भूख और यातना से संतप्त शिशु में

दूध बन कर जीवन का संचार करता है ।

और

वह भी तुम्हारा ही रक्त है

जो रसोईघर में स्वेद

और खेत-खलिहानों के दानों में

मोती की तरह दमकता है ।

फिर भी

इस व्यवस्था में तुम मात्र एक गुलाम

एक दासी हो

जिसके चलते मनुष्य की उद्दंडता की प्राचीर के पीछे

धीरे-धीरे पसरती कालिमा

तुम्हारे व्यक्तित्व को

प्रसूति गृह में ढकेल कर

तुम्हें लुप्त करती रहती है ।

इस दुनिया में हर तरह की ख़ुशियाँ बिकाऊ हैं

लेकिन तुम तो सहज अमोल आनन्दानुभूति देती हो,

वही अन्त्तत: तुम्हें दबोच लेती है ।

वह जो तुम को

चमेली के फूल अथवा

एक सुन्दर साड़ी देकर बहलाता है,

वही शुभचिन्तक एक दिन उसके बदले में

तुम्हारा पति अर्थात मलिक बन बैठता है ।

वह जो एक प्यार भरी मुस्कान

अथवा मीठे बोल द्वारा

तुम पर जादू चलाता है ।

कहने को तो वह तुम्हारा प्रेमी कहलाता है

किन्तु जीवन में जो हानि होती है

वह तुम्हारी ही होती है

और जो लाभ होता है

मर्द का होता है ।

और इस तरह जीवन के रंगमंच पर

हमेशा तुम्हारे हिस्से में विषाद ही आता है ।

ऐ औरत !

इस व्यवस्था में इससे अधिक तुम

कुछ और नहीं हो सकतीं ।

तुम्हें क्रोध की प्रचंड नीलिम में

इस व्यवस्था को जलाना ही होगा ।

तुम्हें विद्युत-झंझा बन

अपने अधिकार के प्रचंड वेग से

कौंधना ही होगा ।

क्रान्ति के मार्ग पर क़दम से क़दम मिलाकर आगे बढ़ो

इस व्यवस्था की आनन्दानुभूति की मरीचिका से

मुक्त होकर

एक नई क्रान्तिकारी व्यवस्था के निर्माण के लिए

जो तुम्हारे शक्तिशाली व्यक्तित्व को ढाल सके ।

जब तक तुम्हारे हृदय में क्रान्ति के

रक्ताभ सूर्य का उदय नहीं होता

सत्य के दर्शन करना असम्भव है ।

(बैंजामिन मालेस की याद में) __________________

जब प्रतिगामी युग धर्म

घोंटता है वक़्त के उमड़ते बादलों का गला

तब न ख़ून बहता है

न आँसू ।

वज्र बन कर गिरती है बिजली

उठता है वर्षा की बूंदों से तूफ़ान…

पोंछती है माँ धरती अपने आँसू

जेल की सलाखों से बाहर आता है

कवि का सन्देश गीत बनकर ।

कब डरता है दुश्मन कवि से ?

जब कवि के गीत अस्त्र बन जाते हिं

वह कै़द कर लेता है कवि को ।

फाँसी पर चढ़ाता है

फाँसी के तख़्ते के एक ओर होती है सरकार

दूसरी ओर अमरता

कवि जीता है अपने गीतों में

और गीत जीता है जनता के हृदयों में ।

– वरवर राव

इन्द्र  राठौर के फेसबुक पोस्ट से साभार

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