याचिकाकर्ताओं के वकील प्रशांत भूषण तथा कपिल सिब्बल
सुप्रीम कोर्ट में राजनैतिक दलों को इलेक्टोरल बांड से चंदा दिए जाने के मामले में मोदी सरकार के द्वारा किये गए कंपनी अधिनियम, आर टी आई एक्ट, आयकर अधिनियम आदि में किये कानूनी संशोधन रद्द किए गए

अब इलेक्टोरल बांड अवैध घोषित, स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया को चुनाव आयोग को पूरा ब्यौरा देने का निर्देश

नई दिल्ली, सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बांड के मामलों में पांच सालों से चल रही सुनवाई के बाद विगत वर्ष नवंबर में अपना फैसला सुरक्षित रखा हुआ था जिसे कल 15 फरवरी को मुख्य न्यायधीश सहित 5 जजों की बैंच ने घोषित किया।

अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी है. कोर्ट ने अपने फैसले में साफ कहा कि इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि चंदा रिश्वत का जरिया भी बन सकता है जिससे सरकारी नीतियां प्रभावित हों. (Electoral Bonds) इससे पहले CJI ने साफ किया कि फैसले भले ही अलग-अलग हों लेकिन पूरी बेंच का निष्कर्ष एक ही है. कोर्ट ने इस पर विचार किया कि क्या दानकर्ता की जानकारी सूचना के अधिकार के तहत आती है?

कोर्ट ने कॉरपोरेट कंपनी पर इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए चंदा देने की निर्धारित सीमा को हटाने पर भी विचार किया है. पढ़िए सुप्रीम कोर्ट के फैसले की बड़ी बातें-

कोर्ट ने माना कि इलेक्ट्रोरल बॉन्ड स्कीम वोटर के जानने के अधिकार का हनन करती है. बेंच ने माना कि ये स्कीम वोटरों के आर्टिकल 19 (1) A का उल्लंघन करती है.
कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि इस स्कीम के जरिए ब्लैक मनी पर लगाम कसने की दलील देकर वोटरों के दलों की फंडिंग के बारे में जानने के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता.
इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि चंदा रिश्वत का जरिया भी बन सकता है.
कोर्ट ने कॉरपोरेट कंपनी पर इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए चंदा देने की निर्धारित सीमा को हटाने के सरकार के फैसले को मनमाना और गलत करार दिया. कोर्ट ने फैसला दिया कि इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम पर तुरंत रोक लगे.
कोर्ट ने SBI को निर्देश दिया है कि वह खुलासा करे कि किस राजनीतिक पार्टी को इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए कुल कितना चंदा दिया गया है. SBI ये जानकारी EC को देगा. चुनाव आयोग 31 मार्च तक पूरी जानकारी वेबसाइट पर डालेगा. अभी तक जिन राजनीतिक दलों ने बॉन्ड को कैश नहीं कराया, वे बैंक को वापस देंगे.
इससे पहले राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता लाने के लिए पार्टियों को दिए जाने वाले दान के विकल्प के रूप में इस योजना को पेश किया गया था. हालांकि कांग्रेस नेता जया ठाकुर, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी CPM और NGO एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की गई. (Electoral Bonds) सुनवाई पूरी कर चीफ जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ ने पिछले साल दो नवंबर को फैसला सुरक्षित रख लिया था. इस संविधान पीठ में जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस बी. आर. गवई, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा शामिल हैं.

वोटर का हक Vs दानकर्ता की गोपनीयता
इससे पहले संविधान पीठ ने तीन दिन तक सरकार और याचिकाकर्ता पक्ष की दलीलों को सुना था. कोर्ट में पूरी बहस चंदे के बारे में वोटरों के जानने के हक बनाम चंदा देने वाले दानकर्ता की पहचान गोपनीय रखने की दलीलों पर केंद्रित रही. सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस ने कहा कि हम इस स्कीम को लाने के पीछे सरकार की मंशा पर संदेह नहीं कर रहे हैं. हम भी नहीं चाहते कि कैश के जरिए चंदा देने की पुरानी व्यवस्था फिर लौटे. हम चाहते हैं कि मौजूदा स्कीम की खामियों को दुरुस्त करके बेहतर किया जाए.

सुप्रीम कोर्ट में क्यों गया मामला
याचिकाकर्ताओं की ओर से वकील प्रशांत भूषण, कपिल सिब्बल, शादान फरासत और निजाम पाशा ने दलीलें रखीं. उन्होंने कहा था कि चुनावी बॉन्ड के माध्यम से राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे के सोर्स का पता नहीं चलता. अगर वोटरों को चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के आपराधिक अतीत, उनकी चल-अचल संपत्ति के बारे में जानकारी रखने का हक है तो उन्हें यह भी जानने का हक है कि किसी राजनीतिक पार्टी को किसी कॉरपोरेट कंपनी से कितना चंद मिला, लेकिन ये स्कीम उनके मूल अधिकारों का हनन करती है.

‘सत्तारूढ़ पार्टी को सबसे ज्यादा चंदा’
याचिकाकर्ताओं की ओर से तर्क रखा गया था कि साल 2016-17 और 2021-22 के बीच 7 राष्ट्रीय और 24 क्षेत्रीय पार्टियों को इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए कुल 9188.35 करोड़ का चंदा मिला है. इनमें से अकेले बीजेपी को 5,271.9751 करोड़ का चंदा मिला. कांग्रेस को 952.2955 करोड़, वहीं AITC को 767.8876, NCP को 63.75 करोड़ रुपये का चंदा चुनावी बॉन्ड के जरिए मिला.

‘सरकार को घूस देने का जरिया’
याचिकाकाकर्ताओं ने कहा कि इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए 99% से ज्यादा चंदा सत्तारूढ़ पार्टियों को मिला है. ये सत्तारूढ़ पार्टियों को घूस देने का जरिया बन गया है. (Electoral Bonds) यह घूस जाहिर तौर पर सरकार की नीतियों और फैसलों को प्रभावित करती है. सरकारी ठेके, लीज, लाइसेंस के तौर पर कंपनियों को फायदा पहुंचना सुनिश्चित करके सरकार कहीं ज्यादा चंदा इस एवज में वसूल सकती है. ये लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ है क्योंकि ये राजनीतिक दलों में असमानता को बढ़ावा देती है.

‘चुनाव आयोग और RBI को भी एतराज’
याचिकाकर्ताओं की ओर से कहा गया था कि चुनाव आयोग और आरबीआई भी इस स्कीम को लेकर ऐतराज जाहिर कर चुके हैं. इस स्कीम के जरिए संभावना बनती है कि सिर्फ राजनीतिक दलों को चंदा देने के लिए ही शेल कंपनियां बनाई जाएं. विदेशी कंपनियां चाहें तो अपनी सहायक कंपनियों के जरिए इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए चंदा दे सकती हैं. सरकार चाहे तो SBI और जांच एजेंसियों के जरिए दानकर्ता की जानकारी हासिल कर सकती है, पर वोटर नहीं.

सुप्रीम कोर्ट के अहम सवाल

– सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने इस स्कीम पर सवाल उठाते हुए कहा कि इसमें गोपनीयता सीमित ही है.

– इस स्कीम के चलते विपक्षी दलों को नहीं पता चल पाएगा कि कौन सत्तारूढ़ पार्टी को चंदा दे रहा है, पर सत्तारूढ़ पार्टी अपनी जांच एजेंसियों के जरिए ये पता करा सकती है कि कौन उन्हें या विपक्षी पार्टियों को चंदा दे रहा है.

– कोर्ट ने ये भी सवाल किया कि जब हरेक पार्टी को पता है कि चंदा देने वाला कौन है, फिर सिर्फ वोटर को इस जानकारी से वंचित रखने का क्या औचित्य है? वोटर को क्या ये जानने का हक नहीं है किस पार्टी को किसने चंदा दिया.

– कोर्ट ने कॉरपोरेट कंपनी पर चुनावी बॉन्ड के जरिए चंदा देने की निर्धारित सीमा को हटाने पर भी सवाल किया. दरअसल, पहली व्यवस्था के मुताबिक कोई भी कंपनी पिछले 3 साल के अपने शुद्ध मुनाफे के वार्षिक औसत का 7.5% से ज्यादा चंदा राजनीतिक दलों को नहीं दे सकती थी, लेकिन अब इलेक्टोरल बॉन्ड के लिए इस बाध्यता को खत्म कर दिया गया है.

– चीफ जस्टिस ने कहा कि कंपनियों के चंदे को सीमित करने के पीछे की वाजिब वजह थी. कंपनी होने के नाते आपका काम बिजनस करना है, चंदा देना नहीं और इसके बावजूद आप चंदा देना चाहते हैं तो ये छोटा ही होना चाहिए, लेकिन अब 1% मुनाफा कमा कर रही कंपनी भी एक करोड़ चंदा दे सकती है.

सरकार की दलील
सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा था कि इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम चुनाव में ब्लैक मनी के इस्तेमाल को रोकने के लिए लाई गई है. इस स्कीम के जरिए ये सुनिश्चित किया गया है कि राजनीतिक दलों को बैंकिंग माध्यम के जरिए सिर्फ सही तरीके से कमाया गया पैसा ही पहुंचे. (Electoral Bonds) सरकार ने काले धन पर लगाम लगाने के लिए डिजिटल पेमेंट को बढ़ावा देने जैसे जो दूसरे कदम उठाए हैं, उनमें से ये भी एक अहम कदम है.

‘पहले चंदा कैश में होता था’
एसजी तुषार मेहता ने कहा कि इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम का मकसद पारदर्शिता और दानकर्ताओं के हितों के बीच संतुलन कायम करना है. जब तक इसके जरिए चंदा देने की व्यवस्था नहीं थी, चंदा देने वाले राजनीतिक मुश्किलों से बचने के लिए कैश चंदा देने को मजबूर थे लेकिन अब गोपनीयता होने के चलते वह इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए चंदा दे सकते हैं.

‘दानकर्ता के हितों की सुरक्षा जरूरी’
एसजी तुषार मेहता ने कहा कि कोर्ट को सरकार की मंशा देखनी चाहिए. (Electoral Bonds) सरकार नहीं चाहती कि उसे राजनीतिक दलों को चंदा देने वाले दानकर्ताओं का पता चले. हरेक पार्टी को यह तो पता होता ही है कि उसे किसने चंदा दिया, लेकिन गोपनीयता दूसरी पार्टी के दानकर्ताओं के बारे में होनी जरूरी है ताकि दानकर्ता को परेशानी नहीं हो. अगर सत्तारूढ़ पार्टी को यह पता चलता है कि किसी दानकर्ता ने चंदा विपक्षी पार्टी को दिया है तो यह उसके लिए ,उसके कारोबार के लिए मुश्किल की वजह बन सकती है. तुषार मेहता ने अपना उदाहरण देते हुए कहा कि इस स्कीम के पीछे मकसद ये है कि अगर तुषार मेहता कांग्रेस को चंदा दे रहे तो ये बात सत्तारूढ़ बीजेपी को न पता चले ताकि उन्हें कोई परेशानी न झेलनी पड़े.

कोर्ट की इजाजत के बाद ही दानकर्ता की जानकारी
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि अगर जांच एजेंसियां भी दानकर्ता की जानकारी चाहती हैं तो ये कोर्ट के आदेश के बाद ही संभव है. अगर किसी को व्यापक जनहित में चंदा देने वाले दानकर्ता की जानकारी चाहिए भी तो इसके लिए कोर्ट जाने का रास्ता खुला है, पर किसी की उत्सुकता शांत करने के लिए दानकर्ता की निजता के हनन की इजाजत नहीं दी जा सकती.

‘सबको समान चंदा नहीं मिल सकता’
वोटर के जानने का हक के सवाल पर एसजी तुषार मेहता ने दलील रखी थी कि वोटर इस आधार पर वोट नहीं देता कि किस पार्टी को किससे कितना फंड मिला है. (Electoral Bonds) वोटर पार्टी की विचारधारा, काबिलियत और नेतृत्व को देखकर वोट देता है. इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम में कुछ कमियां हो सकती हैं लेकिन दूर करने की कोशिश लगातार की जा रही है, लेकिन ये हकीकत है कि हरेक पार्टी को समान चंदा नहीं मिल सकता, उन्हें ज्यादा चंदा पाने के लिए अपने स्तर को उठाना होगा. एक औसत भारतीय वोटर फिर चाहे वो कॉरपोरेट हो या अशिक्षित, सोच-समझकर फैसला लेता है. हो सकता है कि वह साल 2013 में सत्तारूढ़ पार्टी को चंदा ना दे क्योंकि वो जानता है कि अगले साल 2014 से किसकी हवा चलने वाली है.

इस फैसले को इस साल का सबसे महत्वपूर्ण फैसला माना जा रहा है।

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