बादल सरोज ( लेखक वामपंथी विचारकऔर किसान नेता  हैं और राजनीति में अर्धशतकीय पारी गुजार चुके हैं )

एक महीना पूरा हो गया – इस महीने भर में कश्मीरियों के साथ जो हुआ घटा उसका लेखाजोखा फिलहाल के लिए स्थगित कर दें तो भी खुद सरकार का डर भय हालात की असलियत की चुगली खा रहा है । झूठ का गहरा कुहासा खड़ा करने के लिए सारे संसाधनों, लगभग पूरे मीडिया को झोंकने, अनेक राजनीतिक दलों की बांह मरोड़कर उन्हें अपने इस घोर संविधान विरोधी और अलोकतांत्रिक कृत्य के चीयर लीडर्स के रूप में लाइन में लगाने और फर्जी राष्ट्रवाद के तड़के की धूम मचाने के बावजूद मोदी-शाह जुंडली और भाजपा सरकार डरी हुई है । असलियत छुपा रही है, सच से डर रही है । ये डर कितना गहरा है इसे समझने के लिए चार उदाहरण ही काफी हैं ।

01 ; देश के वरिष्ठ राजनेता और राष्ट्रीय दल सीपीआई(एम) महासचिव, जिन्हें महज दो साल पहले ही देश की संसद के सर्वश्रेष्ठ सांसद से नवाजा गया था, सीताराम येचुरी को दो दो बार श्रीनगर हवाईअड्डे पर ही रोक कर वापस भेज दिया जाता है । तीसरे प्रयत्न में सो भी सुप्रीमकोर्ट के हस्तक्षेप के बाद ही वे अपनी पार्टी की केंद्रीय समिति के सदस्य, चार बार से जम्मू और कशमीर की विधानसभा के सदस्य मोहम्मद युसुफ़ तारिगामी की सेहत का हाल जानने श्रीनगर पहुंच पाते हैं । गंभीर बीमारी के बावजूद बिना किसी वारंट के उन तारिगामी को नजरबंद करके रखा गया है जो कश्मीर में सीमा पार आतंकवाद के विरुध्द लड़ाई के ऐसे यौद्धा हैं जिन्होंने आतंकियों के हाथों अपने ससुर सहित आधा दर्जन परिवार जनों की शहादत देखी है ।

02 ; कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री की बेटी इल्तिज़ा मुफ्ती को अपनी माँ से मिलने के लिए सुप्रीम कोर्ट से इल्तिज़ा करनी पड़ती है । एक बेटी को उसकी मां से मिलने से रोकने के लिए सरकार के वकीलों की पूरी फौज खड़ी हो जाती है । अटॉर्नी जनरल और सॉलिसिटर जनरल तक बहस में अपनी पूरी दम लगा देते हैं । आखिर में चीफ जस्टिस को उन्हें बीच मे रोकना ही पड़ता है और माँ से बेटी की मुलाकात के लिए देश की सबसे बड़ी अदालत को एक असाधारण आदेश जारी करना पड़ता है ।

03 : कश्मीर के मौजूदा प्रसंग को उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ समझाने के लिए 24 सरल से छोटे छोटे सवाल जवाबों के साथ लोकजतन प्रकाशन अपने पूर्व संपादक जसविंदर सिंह की लिखी एक छोटी सी पुस्तिका जारी करता है । ग्वालियर में उस पुस्तिका ” धारा 370 ; सेतु या सुरंग ” को बेचते वरिष्ठ ट्रेड यूनियन नेता 74 वर्षीय शेख गनी को खुद पुलिस अधीक्षक के कहने पर पुलिस उठा लाती है और थाने में बिठा देती है । वामपंथी कार्यकर्ताओं के पहुंचने पर उन्हें छोड़ दिया जाता है, मगर अगले ही दिन अखबारों में पुलिस विज्ञप्ति से पता चलता है कि उन पर दो धर्मों के बीच साम्प्रदायिक द्वेष फैलाने की धारा 153 ए का मुकद्दमा दर्ज कर लिया गया है । बार बार पूछे जाने पर भी कोई पुलिस अधिकारी इस धारा के लगाए जाने का कारण नही बताता । सिर्फ ऊपर की ओर इशारा करके ऊपर वाले का हुकुम बता देता है । जबकि ऊपर किसी और की नही कांग्रेस के कमलनाथ के मुख्यमंत्रित्व वाली सरकार है ।

04 ; दो दर्जन से अधिक सामाजिक कार्यकर्ता मध्यप्रदेश के राज्यपाल को ज्ञापन देकर उनका ध्यान भोपाल में रहकर पढ़ रहे दो हजार कश्मीरी छात्र छात्राओं में फैले अवसाद की ओर ध्यान दिलाते हैं । उनसे आग्रह करते हैं कि वे जम्मू कश्मीर के राज्यपाल के जरिये इन छात्रों की बातचीत कश्मीर में रह रहे उनके परिवारजनों से करवा दें । महीने भर से इन दोनों के बीच न कोई संवाद हुआ है नाही फीस और दीगर खर्चों के लिए कोई पैसा ही आ पाया है । अभी तक राज्यपाल लालजी टण्डन की तरफ से कोई रेस्पॉन्स नही आया है ।

स्वतंत्र भारत मे यह सचमुच की अजीबोगरीब स्थिति है । अपने ही देश के एक पूरे प्रदेश को जेलखाने में तब्दील करके रख दिया गया है । देश भर में फैले कश्मीरी अपने ही मुल्क में अजनबी परदेसी बना दिये गए हैं । भारत के संविधान में यकीन करके उसी के दायरे में अपनी मुश्क़िलों के हल ढूंढने के हामी सारे राजनेता या तो जेल में हैं या घरों में नजरबंद कर दिए गए हैं । करीब एक करोड़ हिंदुस्तानी महीने भर से टेलीफोन, अखबार, टीवी, इंटरनेट से कटे हुए हैं । एक पूरा सूबा महीने भर से, कभी सरकार और फौज तो कभी खुद के आव्हान पर बन्द और ठहरा हुआ पड़ा है । कुल जमा 73 साल की आजादी में इससे मिलता जुलता कोई भी दूसरा उदाहरण नही है । एक 18-19 महीने की इमर्जेंसी जरूर है जो 1975 में लगी थी । मगर मौजूदा निज़ाम के समग्र रवैये के मुकाबले वह इमरजेंसी भी कहीं नही लगती । आज कुल हालात उससे भी बदतर है । गुणात्मक रूप से ज्यादा खतरनाक और सांघातिक है ।

कश्मीर एक प्रवृत्ति का प्रस्फुटन, एक बड़े और ज्यादा निर्मम इरादे का प्राक्कथन है । संविधान को नकारना, लोकतंत्र को रौंदना, मीडिया को अस्तबल में बांधकर नागरिक आजादी को खत्म करना भारत के लिए – सिर्फ कश्मीर नही, पूरे भारत के लिए – चिंता और फिक्र की बात है । भारतीय संविधान सिर्फ कुछ विद्वान और नेकनीयत भारतीयों की मेधा और विवेक का नतीजा नही था – वह भारत की अनगिनत विविधताओं की स्वीकारोक्ति था । यह अहसास था कि एकता की कायमी इन विविधताओं को समुचित सम्मान और स्थान देकर ही बनाये रखी जा सकती है । साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के कुत्सित इरादे से संविधान और लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और बराबरी की समझदारी की जड़ों में मट्ठा डालने के नतीजे सिर्फ यहीं तक नही रुकेंगे । अंततः यह राष्ट्रीय एकता को भी कमजोर करेंगे । इसलिए कश्मीर में लोकतंत्र बहाली और विलय के वक़्त किये गए करार पर कायम रहने की मांग उठाने वाले जब ऐसा कर रहे होते हैं तब वे सिर्फ कश्मीरियों के लिये ऐसा नही कर रहे होते, पूरी देश की हिफाजत में खड़े हो रहे होते हैं ।

बहरहाल जो चल रहा है वैसा हमेशा नही चल सकता । देश के आर्थिक आकाश पर मंडराते मन्दी के घने काले बादलों को कश्मीर के नाम पर फैलाये जा रहे उन्माद की आड़ में नही छुपाया है सकता । अब तक का ज्ञात इतिहास बताता है कि ऐसी स्थितियों में एक आशंका और एक संभावना निहित होती है । आशंका यह कि जिन हुकूमतों के पास अवाम की बुनियादी समस्याओं के समाधान नही होते वे तानाशाही का रास्ता अख्तियार करते हैं । सारे संस्थान हड़प लिए जाते हैं । आवाज बन्द कर दी जाती है । फासिज्म इसका ही एक रूप होता है – जिसके सारे गुण मौजूदा सरकार के पितृ संगठन आर एस एस के मनसा वाचा कर्मणा में है । संभावना यह कि दलगत राजनीति से ऊपर उठकर लोकतांत्रिक ताकते एकजुट होकर मैदान में उतरती हैं और जिस जनता को उसके अज्ञान के लिए कोसा जाता है वह खुद अपनी कलम दवात लेकर उतरती है और हुक्कामों के हिज्जे सुधार कर पूरी वर्तनी ही बदल देती है ।
आने वाले दिन इन दोनों के – आशंका और संभावना के – बीच रस्साकशी के होंगे । और कवि मुक्तिबोध के शब्दों में खुद से पूछना होगा कि ; तय करो किस ओर हो तुम !!

● बादल सरोज

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here