-राम पुनियानी

      मोदी-2 सरकार काफी शक्तिशाली है. उसे न केवल खासी संख्या में सांसदों का समर्थन प्राप्त है वरन विपक्ष बहुत कमज़ोर और बंटा हुआ है. यही कारण है कि सरकार जनभावनाओं की परवाह किये बगैर, धड़ल्ले से संघ-भाजपा के हिन्दू राष्ट्रवाद के एजेंडे को लागू कर रही है. पहले उसने तीन तलाक पर रोक लगाई और फिर धारा 370 को हटाया. इन सफलताओं से उत्साहित हो अब वह संघ के एजेंडे के अन्य बिन्दुओं को लागू करने का प्रयास कर रही है.

 पिछले दिनों  हिंदी दिवस के अवसर पर बोलते हुए, भाजपा अध्यक्ष और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने साफ़ कर दिया कि उनकी पार्टी हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देना चाहती है. शाह ने कहा कि, “देश की एक भाषा होनी आवश्यक है जो दुनिया में देश का प्रतिनिधित्व कर सके…देश में सबसे ज्यादा बोली जानी वाली हिंदी, भारत को एक करने वाली भाषा हो सकती है….हिंदी हमारे प्राचीन दर्शन, संस्कृति और हमारे स्वाधीनता संग्राम की स्मृतियों को सहेजने वाली  भाषा है, इस भाषा को यह राष्ट्र समझता है, अगर हिंदी को हमारे स्वाधीनता संग्राम से बाहर कर दिया जाया तो उस संघर्ष की आत्मा की गुम हो जाएगी.” उन्होंने ट्वीट किया कि, “मैं देश के सभी नागरिकों से अपील करता हूं कि हम अपनी-अपनी मातृभाषा के प्रयोग को बढ़ाएं और साथ में हिंदी भाषा का भी प्रयोग कर बापू और सरदार पटेल के देश की एक भाषा के स्वप्न को साकार करने में योगदान दें.”

शाह के शब्द चतुराईपूर्ण थे और इरादा साफ़ था – अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषाओं को परे धकेलो और हिंदी को महत्व दो. शाह के असली इरादे को भांप कर दक्षिण भारत के कई नेताओं – एम. के. स्टालिन, शशि थरूर, पिनराई विजयन और कमल हासन – ने खुल कर उनके कथन का विरोध किया. उन सभी ने कहा कि शाह, दक्षिणी राज्यों पर हिंदी थोपना चाहते हैं. विजयन ने कहा, “वह भाषा (हिंदी), बहुसंख्यक भारतीयों की मातृभाषा नहीं है. हिंदी पर लादना, उन्हें गुलाम बनाने के समान है.” कमल हासन ने अपना एक वीडियो अपलोड किया है जिसमें वे अशोक स्तम्भ और संविधान की उद्देशिका के बगल में खड़े दिख रहे हैं. वे कहते हैं कि “भारत 1950 में अनेकता में एकता के वादे के साथ गणतंत्र बना था और अब कोई शाह, सुल्तान या सम्राट इससे इनकार नहीं कर सकता. हम सभी भाषाओं का आदर करते हैं परन्तु हमारी मातृभाषा हमेशा तमिल होगी…हमारी भाषा की लड़ाई बहुत बड़ी होगी….”

हमारा देश भाषागत, सांस्कृतिक, धर्मिक और नस्लीय विविधताओं से भरा हुआ है. हमारा स्वाधीनता संग्राम इस विविधता को प्रतिबिंबित करता था. इन सारी विविधताओं के बावजूद, लोगों ने एक होकर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई लड़ी और साथ ही एक-दूसरे की समृद्ध धार्मिक और भाषागत विरासत का सम्मान भी किया. भारत के एक राष्ट्र बनने के स्वप्न की अभिव्यक्ति सभी भाषाओं में हुई. अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के साथ, हिंदी भी भारतीय समाज का दर्पण है. यद्यपि अंग्रेजी, मूलतः प्रशासन की भाषा के रूप में देश में आयी परन्तु वह भारतीय संस्कृति का हिस्सा बन गयी और आज वह भारतीय समाज और उसके सपनों को उतना ही प्रतिबिंबित करती है जितनी कि कोई भारतीय भाषा.

जहाँ राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन सभी भाषाओं का सम्मान करता था वहीं सांप्रदायिक ताकतों की सोच अलग थी. मुस्लिम साम्प्रदायिकतावादी, ‘उर्दू, मुस्लिम, पाकिस्तान’ के नारे के साथ आगे आये तो हिंदी राष्ट्रवादियों ने ‘हिंदी, हिन्दू, हिंदुस्तान’ का नारा बुलंद किया. पाकिस्तान का निर्माण, अविभाजित भारत के मुस्लिम बहुसंख्या वाले इलाकों को मिलाकर हुआ परन्तु उस देश बहुत भाषागत विविधता थी. मुस्लिम लीग उर्दू को देश की राष्ट्रभाषा बनाने पर आमादा थी. इस जिद के कारण, पूर्वी पाकिस्तान देश से अलग हो गया और बांग्लादेश अस्तित्व में आया, जिसकी मुख्य भाषा बंगाली है.

यह दिलचस्प है कि हमारे संविधान निर्माता इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि, “नागरिक की इच्छानुसार, देवनागरी या फारसी लिपि में लिखित हिन्दुस्तानी, देश की राष्ट्रभाषा के रूप में संघ की प्रथम राजभाषा होगी. अंग्रेजी ऐसे अवधि तक, जो संघ द्वारा निर्धारित की जाये, द्वितीय राजभाषा होगी.” त्रिभाषा फार्मूले में अंग्रेजी, हिंदी और क्षेत्रीय भाषा सभी विद्यार्थियों को सिखाई जानी थी. सन 1960 के दशक में, दक्षिणी राज्यों पर हिंदी थोपने का प्रयास किया गया था जिसका इतना कड़ा विरोध हुआ कि नीति का क्रियान्वयन रोक देना पड़ा. नयी शिक्षा नीति में हिंदी को अनिवार्य बनाने की बात कही गयी है.

अक्सर कहा जाता है कि हिंदी, बहुसंख्यक भारतीयों की भाषा है. ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि हिंदी 25 प्रतिशत भारतीयों की मातृभाषा है और करीब 44 प्रतिशत लोगों का कहना है कि वे हिंदी जानते हैं. बहुत पहले, सन 1940 के दशक में, जब कांग्रेस सरकार तत्कालीन मद्रास प्रान्त (अब तमिलनाडू) में शासन में आई तब वहां हिंदी का प्रयोग बढ़ाने का प्रयास किया गया. इसका विरोध पेरियार रामासामी नायकर ने किया था. उन्होंने ‘तमिलनाडू तमिलों के लिए’ का नारा दिया और आरोप लगाया कि हिंदी, आर्यों द्वारा द्रविड़ संस्कृति पर हमला करने का हथियार है.

भाषा के जटिल मुद्दे का क्या समाधान हो? देश में अंग्रेजी, हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं – तीनों का अलग-अलग स्तरों पर अलग-अलग अनुपात में प्रयोग हो रहा है. जहाँ हिंदी को दक्षिणी राज्यों में लोकप्रिय बनाने के प्रयास हो रहे हैं वहीं दक्षिण भारत की भाषाओं का हिंदी पट्टी में प्रसार करने की कोई कोशिश नहीं हो रही है. हिंदी आज निश्चित रूप से दक्षिणी व अन्य राज्यों में पहले से अधिक बोली और समझी जाती हैं. परन्तु यह सरकारी स्तर पर हिंदी को लादने से नहीं हुआ है. यह हुआ है हिंदी फिल्मों, टीवी सीरियलों और हिंदी के विकास लिए काम कर रही संस्थाओं की बदौलत.

उर्दू को देश पर लादने की कोशिश ने पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए थे. भारत अब तक भाषा के मामले में संतुलन बनाये रखने में सफल रहा है. अमित शाह पूरे देश को एकसार बनाने की बात कर रहे हैं. हमें उम्मीद है कि सरकार समझदारी और परिपक्वता से काम करेगी और देश की भाषा नीति के निर्धारण में दक्षिणी राज्यों की भावनाओं और संवेदनशीलताओं का ख्याल रखा जायेगा.

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