(हेमंत कुमार झा)
वैश्वीकरण, जैसा कि विचारकों के एक बड़े वर्ग का मानना है, भले ही इतिहास की तार्किक गति है लेकिन अपनी प्रकृति में ही यह वंचित विरोधी है। कोरोना संकट ने इस धारणा को और पुष्ट किया है। वैश्वीकरण की सहजात प्रवृत्ति के रूप में उदारीकरण सामने आया जिसमें पूंजी और व्यक्तियों के अंतरदेशीय प्रवाह को अबाध बनाने के लिये राष्ट्र-राज्य की सीमाओं को शिथिल करने पर जोर दिया जाता है।
तकनीक के अकल्पनीय विकास और राष्ट्र-राज्य की सीमाओं के शिथिलीकरण ने पूंजी को जो गतिशीलता दी उसने कारपोरेट को विश्व नागरिक बना दिया और उसे यह सुविधा भी दी कि वह किसी देश में स्थापित अपनी कंपनी में किसी अन्य देश के कुशल पेशेवर को नियुक्त कर सकता है। इसके लिये देशों ने वीजा नियमों में ढील दी, प्रवासी नियमों में बदलाव किये।
ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में ऊंची योग्यता हासिल कर चुके भारतीय युवाओं के लिये उदारीकरण ने संभावनाओं के नए द्वार खोले। कंपनियों ने ऊंची पगार पर उन्हें विभिन्न देशों में नियुक्त किया। नई सदी आते-आते विश्व ग्राम की अवधारणा, जो वैश्वीकरण के विचार से जन्मी है, धरातल पर आ गई। अब दुनिया एक गांव बन चुकी थी, लेकिन उनके लिये, जो साधन सम्पन्न थे।
वंचित तबकों के लिये ज़िंदगी अब भी एक चुनौती थी जिन्हें बिहार या यूपी के किसी गांव से रोजगार के लिये दिल्ली या मुम्बई जाने में भी नरक से गुजरना पड़ता था। जब आप एक देश से दूसरे देश में पूंजी और व्यक्तियों के प्रवाह को अबाध बनाते हैं तो बीमारियां भी उतनी ही आसानी से किसी व्यक्ति को वाहक बना कर एक देश से दूसरे देश आ सकती हैं।
कोरोना ऐसे ही रास्ते से भारत आ गया।
जो बड़े लोग विदेशों से भारत आने तक कोरोना के वाहक बने, उनमें से अनेक ने आपराधिक गैर जिम्मेदारी का परिचय दिया। शुरुआत में भारत सरकार ने भी लापरवाही बरती जिसने इन लोगों को एयरपोर्ट से अपनी-अपनी जगहों पर बिना उचित जांच के जाने दिया। किसी कुनिका मैडम का किस्सा तो अब सब जानते हैं जो कोरोना संक्रमित होने के बावजूद विदेश से भारत आकर पार्टियां करती रही। कितने और लोग विदेशों से आए और बिना जांच करवाए न जाने कहाँ गायब हो गए।
नतीजा, देखते ही देखते कोरोना भारत के लिये शताब्दी का सबसे बड़ा संकट बन कर सामने आ खड़ा हुआ। बड़े लोग तो फिर भी अपने पैसों और प्रभाव के बल पर इलाज करवा लेंगे। आगे उनकी रोग प्रतिरोधक शक्ति और उनकी आयु जाने कि वे बच जाएं या कूच कर जाएं।
लेकिन, ये निरपराध श्रमिक तो बेवजह बुरे फंसे।
कोरोना संकट को लेकर जिस सरकार ने शुरू में लापरवाही बरती उसने संकट गहराता देख आनन फानन में लॉक डाउन की घोषणा कर डाली। निर्णय लेने वालों ने महानगरों में दिहाड़ी मजदूरी करने वाले लाखों लोगों के बारे में क्या सोचा यह वे ही बेहतर जानते होंगे। उन्हें एक दो दिनों की मोहलत दी जा सकती थी, उनके लिये स्पेशल ट्रेनें और बसें चलाई जा सकती थीं। आखिर, वे भी इस देश के उतने ही अधिकार संपन्न नागरिक हैं जितने वे, जिनके लिये एयर इंडिया के विमान आज भी चक्कर लगा रहे हैं।
आज देश देख रहा है कि उन निरपराध गरीब मजदूरों के साथ सरकार ने कैसा बर्ताव किया और नियति कैसा खेल खेल रही है। उनका रोजगार छिना, उनके बाल बच्चों के जीवन यापन पर संकट छाया और सबसे त्रासद यह कि अपने गांव लौटने के लिये भी उन्हें अवसर नहीं मिला। जब तक उनकी फैक्ट्रियों में काम बंद होता, जब तक वे गठरी समेट गांव की राह लेते, तब तक ट्रेनों को रद्द करने का सिलसिला शुरू हो चुका था जो फिर पूरी तरह बंद ही हो गया।
देश विभाजन के समय लोगों का काफिला बिस्तर-बक्सा थामे, बच्चे को कंधे पर उठाए पैदल चलता गया था अनजाने भविष्य की राह पर। उसके सात दशकों बाद फिर यह दृश्य आम है।
भूख से लड़ते, थकान से जूझते उन मजलूमों के लिये चूड़ा गुड़ या रोटी भात की व्यवस्था की कौन कहे, लॉक डाउन तोड़ने के अभियोग में पुलिस उन पर लाठियां बरसा रही है। आखिर, सरकारी आदेश जो है।
कांवड़ लेकर दौड़ने वालों की सेवा में खड़ी रहने वाली धर्मनिष्ठ भारतीय आत्माएं सड़कों पर बेहाल उन अभिशप्त लोगों के लिये कहीं नजर नहीं आ रहीं। धर्म और पुण्य कार्य की ऐसी परिभाषाएं जिन पुस्तकों में लिखी हैं उन्हें बंगाल की खाड़ी या अरब सागर में नहीं, सीधे हिन्द महासागर में फेंकने का वक्त आ गया है।
दुर्भाग्य से अगर महामारी पर नियंत्रण पाने में देर हुई और संक्रमण बढ़ता जाएगा, जिसकी प्रबल आशंका है, तो इसके सबसे बड़े शिकार वंचित तबके के वही लोग होंगे जिनकी सहायता के लिये आज न भारतीय रेल है न परिवहन निगम की बसें। कितने लोग बिना उचित जांच और इलाज के कोरोना के ग्रास बनेंगे, कोई नहीं बता सकता। आखिर, आज भी मलेरिया और टीबी से इसी समुदाय के लोग सबसे अधिक मरते हैं।
वैश्वीकरण और उदारीकरण के अपने लाभ भी हैं और अपनी हानियाँ भी हैं। तो…जो लाभ हैं वह अभिजात तबका अपनी झोली में समेट ले जा रहा है और जो हानियाँ हैं वे वंचित तबकों के लिये अभिशाप बन रही हैं।
जब कोई समुदाय, भले ही वह संख्या में कितना भी बड़ा हो, नीति निर्धारण की प्रक्रिया में हाशिये पर चला जाता है तो वह सिर्फ विकास की मुख्य धारा से ही बाहर नहीं होता है, उपेक्षा और फ़ज़ीहत उसकी नियति बन जाती है।
अभिजात हितों से संचालित राजनीति में भ्रमित वोटर मात्र बन कर रह जाना कितनी क्रूर नियति को आमंत्रित करना है, यह इन वंचितों की हालत देख कर समझा जा सकता है।