इधर अडानी ने पीएम केयर्स फंड में कोरोना से लड़ने के नाम पर अपना बहुप्रचारित दान दिया और उधर चुपचाप तमिलनाडु स्थित मुनाफा कमाने वाला कामराजार बंदरगाह उसके हवाले कर दिया गया।

राष्ट्रीय आपदाओं से निपटने के लिए पहले से ही एक राहत कोष है — प्रधानमंत्री राहत कोष। हालांकि इस कोष से न्यायपूर्ण आबंटन के तरीकों के बारे में सवाल उठते रहे हैं। यह सवाल पिछले साल और भी जोर-शोर से उठा था, जब केरल में आई भयानक बाढ़ से निपटने के लिए इस राहत कोष से तुरंत पैसे नहीं दिए गए और वहां की जनता को राज्य के सीमित संसाधनों के भरोसे छोड़ दिया गया था। लेकिन राज्य की वामपंथी मोर्चा सरकार की राजनैतिक इच्छा शक्ति, इस आपदा से लड़ने के लिए आर्थिक और मानवीय संसाधनों को जुटाने की उसकी पहलकदमी और पूरे देश की जनता के समर्थन के बल पर इस आफत का मुकाबला किया गया। कोरोना संकट से भी निपटने के लिए वहां की सरकार के आर्थिक पैकेज को पूरे भारत में सराहा जा रहा है।

लेकिन अब ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री राहत कोष नामक इस फंड को चुपचाप दफनाने की तैयारियां कर ली गई है। इस कोष पर आज तक किसी ने उंगली नहीं उठाई, क्योंकि कैग की जांच-पड़ताल के दायरे में आने के कारण इसकी पारदर्शिता पर किसी को शक नहीं है और देश की पूरी जनता के लिए स्वीकार्य कोष है।

सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार इस कोष में 3800 करोड़ रुपये जमा हैं। लेकिन जो खबरें छनकर आ रही है, उससे पता चलता है कि यह कोष खुद आपदाग्रस्त हो गया है। इस कोष के पास अब केवल 500 करोड़ रुपये हैं, क्योंकि 3300 करोड़ रुपयों का उपयोग डूबते बैंकों को बचाने के लिए कर लिया गया है — याने पूंजीपति बैंकों को बीमार बनाएंगे और उनसे वसूलने के बजाए बीमार बैंकों का इलाज सार्वजनिक आपदा कोष से किया जाएगा। शायद इसी बात को छुपाने के लिए एक नए कोष को पीएम केयर्स के नाम से लांच किया गया है।

लेकिन क्या ये वास्तव में भारत के लोगों के केअर के लिए है? यदि हां, तो इस बात का जवाब मिलना चाहिए कि इसे ट्रस्ट के रूप देकर केवल प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल के तीन भाजपाई मंत्रियों को ही क्यों शामिल किया गया है और इस ट्रस्ट में विपक्ष के किसी नेता और नागरिक समाज के प्रतिनिधियों को क्यों नहीं रखा गया है? यदि यह ट्रस्ट कैग की पहुंच के बाहर हैं, तो अंधभक्तों को छोड़कर बाकी देश की जनता के लिए इसकी क्या विश्वसनीयता है?

पुलवामा हमले के समय भी भारत के वीर नामक एक फंड को लांच किया गया था, इस हमले के पीड़ितों को मदद करने के नाम पर। देश की आम जनता ने इसमें हजारों करोड़ रुपयों का दान करके अपनी देशभक्ति का परिचय दिया है। लेकिन इस फंड की कोई पारदर्शिता नहीं है। इस हमले के दो साल बाद भी इस फंड का किस तरह उपयोग किया गया, इस फंड में कितने पैसे आये और गए है, इस तथ्य को सार्वजनिक न करके क्या वास्तव में संघी गिरोह अपनी देशभक्ति का परिचय दे रहा है? भारत के वीरों का नाम पर एकत्रित इस फंड में भी ऐसा क्या (घपला) हुआ है कि पारदर्शिता के बजाए गोपनीयता बरती जा रही है?

भारत के वीर फंड के अनुभव को देखते हुए पीएम केयर्स पर किस तरह विश्वास किया जा सकता है कि इसका सदुपयोग होगा और कोरोना से लड़ने के लिए ही होगा? मोदी सरकार को यह स्पष्ट करना चाहिए कि एक पारदर्शी प्रधानमंत्री राहत कोष के होते हुए कैग की पहुंच के बाहर वाले, संघ-भाजपा नियंत्रित किसी अन्य फंड को लांच करने की जरूरत क्यों है? वह भी तब, जबकि स्वास्थ्य का सवाल संविधान की समवर्ती सूची में है और इसलिए ऐसा करने से पहले राज्य सरकारों को भी विश्वास में लिया जाना चाहिए था। किसी आपदा में प्रधानमंत्री राहत कोष से राज्यों को उनकी मदद करना केंद्र सरकार की संवैधानिक बाध्यता होती है, लेकिन भाजपा-नियंत्रित ट्रस्ट द्वारा एकत्रित राशि को राज्यों को देने की कोई बाध्यता इस सरकार के पास नहीं रहेगी। क्या मोदी सरकार वास्तव में अपनी इस जिम्मेदारी से बचना चाहती है और आम जनता से एकत्रित धन को अपनी मर्जी के अनुसार, बिना किसी पारदर्शिता के, खर्च करने की ताकत हासिल करना चाहती है? मोदी सरकार के व्यवहार से तो ऐसा ही लग रहा है और इसके हमारे देश के संघवाद और केंद्र-राज्य संबंधों के लिए घातक परिणाम होंगे।

अब इस पीएम केयर्स फंड में वर्तमान में राहत कोष में उपलब्ध फंड से भी ज्यादा फंड इकट्ठा करने की तैयारियां की जा रही है, जबकि इस फंड की वैधता पर ही प्रश्नचिन्ह खड़े हो रहे हैं। कोरोना महामारी से निपटने के नाम पर तमाम सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों का एक दिन का वेतन जबरदस्ती काटा जा रहा है, सैनिक और अर्ध-सैनिक बलों, व्यवसाय करने वाले लोगों और कॉर्पोरेट जगत से इस फंड में दान की अपील की जा रही है। भाजपा और संघ परिवार द्वारा देश के हर परिवार से सौ रुपये अपनी स्वेच्छा से दान करने की अपील पर यदि देश के आधे परिवार भी अपनी देशभक्ति दिखाते हैं, तो इससे ही इस फंड में भाजपा डेढ़ से दो हजार करोड़ रुपये इकट्ठा हो जाने की उम्मीद कर रही है।

कोरोना से लड़ने का मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार का रिकॉर्ड जगजाहिर है। दिसम्बर 2019 में जब इसके विश्वव्यापी महामारी बनने की घोषणा हो चुकी थी, हम अपने देश से जीवन रक्षक चिकित्सा सामग्रियों का निर्यात करके कार्पोरेटों को मुनाफा कमाने का मौका दे रहे थे और यह मौका उन्हें 24 मार्च 2020 तक तब तक दिया गया, जब तक हमारे देश में इसने देशव्यापी महामारी का रूप नहीं ले लिया। जनवरी अंत में जब हमारे देश में कोरोना संक्रमण का पहला मामला सामने आया, तब भी सरकार की प्राथमिकता में ट्रम्प की भारत यात्रा को सफल बनाना ही था। जब पूरा देश महामारी से लड़ रहा है, पूरे देश को एक खुले जेल में तब्दील कर दिया गया है, हमारे संसाधनों का उपयोग इस महामारी से लड़ने के बजाए इसराइल से हथियार खरीदने में किया जा रहा है। जिस अनियोजित तरीके से लॉक-डाऊन किया गया, उसने 1947 के दौर की अफरा-तफरी की याद ताजा कर दी है।

अब इस मुद्दे का पूरी तरह से सांप्रदायिकरण करने की कोशिश की जा रही है और मार्च में हुई तबलीगी जमात की बैठक को इसके बहाने के तौर पर निशाने पर लिया जा रहा है। इस महामारी से निपटने के संबंध में तमाम स्वास्थ्य संबंधी चिंताएं पृष्ठभूमि में धकेलने की कोशिश की जा रही है। आम जनता में इस महामारी के बारे में जागरूकता फैलाने और चिकित्सा-विज्ञान के सहारे इसका मुकाबला करने के लिए उसको तैयार करने के बजाए उससे ताली-थाली, शंख और घंटे बजवाये गए हैं और ध्वनि कंपन के सहारे महामारी भगाने के वैदिक विज्ञान का प्रचार किया गया है। अब प्रधानमंत्री ने अंधेरे में प्रकाश फैलाकर कोरोना भगाने का टोटका दिया है। भक्तगण इसमें हमारे वेदों में छुपे प्रकाश विज्ञान की खोज भी करेंगे। इधर आम जनता मास्क, दस्ताने, साबुन और सैनिटाइजर तक से वंचित तो है ही, चिकित्सक तक व्यक्तिगत सुरक्षा कवच (पीपीई) के बिना काम करने को मजबूर है और उनके मौत के मुंह मे जाने का सिलसिला शुरू हो चुका है।

कुछ चिकित्सा विशेषज्ञों के दावों के विपरीत केंद्र सरकार यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि हमारे देश में यह महामारी अब सामुदायिक संक्रमण के चरण में पहुंच चुकी है। लेकिन यह तथ्य है कि पिछले पांच दिनों में संक्रमितों की संख्या दुगुनी हो चुकी है और आगे भी इसकी रफ्तार कम होने की संभावना नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन इस देश की बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था को देखते हुए पहले ही 30000 मौतों का अनुमान लगा चुका है। लेकिन मोदी सरकार के व्यवहार से ऐसा लगता नहीं है कि वह इस आंकलन के प्रति कतई चिंतित है। यदि चिंतित होती, तो इस महारोग से लड़ने के दक्षिण कोरिया के रास्ते पर अमल करती, जिसने अपने देश के प्रत्येक नागरिक के शरीर में इस घातक वायरस के होने या न होने का पता लगाने के लिए एक व्यापक जांच अभियान छेड़ दिया था और उसे अपने देश को लॉक-डाऊन करने की भी जरूरत नहीं पड़ी। लेकिन हमारे देश में कोरोना संक्रमण का पता लगाने के लिए जांच का अनुपात दक्षिण कोरिया से 241 गुना कम है — याने यदि दक्षिण कोरिया में संक्रमण का पता लगाने 241 लोगों की जांच की गई थी, तो हमारे देश में इसकी तुलना में केवल एक ही व्यक्ति की जांच की जा रही है, जबकि आबादी में हम उससे 25-26 गुना बड़े हैं।स्पष्ट है कि जांच की इस रफ्तार से इस महामारी पर काबू पाना संभव नहीं है और हजारों नागरिकों का अकाल मौत मरना भी तय है। लेकिन इन मौतों की और इस संकट के कारण अर्थव्यवस्था की बर्बादी का भी उसे किसी जिम्मेदार सरकार की तरह अहसास नहीं है या फिर वह उस अमेरिकी रास्ते का अनुसरण करना चाहती है, जो अर्थव्यवस्था की बहाली के लिए तो युवाओं से काम लेना चाहती है और अर्थव्यवस्था पर बोझ समझकर वृद्धों की मौत की कामना करती है। यह 21वीं सदी के पूंजीवाद का ऐसा विद्रूप चेहरा है, जिसने 20वीं सदी के पूंजीवाद की भयावहता को भी पीछे छोड़ दिया है, जिसके खिलाफ पहले लेनिन के नेतृत्व में रूस में और फिर दूसरे विश्व युद्ध के बाद पूर्वी यूरोप के देशों में और फिर चीन में माओ के नेतृत्व में वहां की जनता ने इसे उखाड़ फेंका था।

21वीं सदी का नीरो जलते रोम को देखकर बांसुरी नहीं बजाता, वह पूंजी के ढेर पर बैठकर अट्टहास करता है। उसकी संतुष्टि केवल इतने से ही नहीं होती, वह पूरे देश की संपत्ति को अपने नियंत्रण में कर लेना चाहता है। इस प्रक्रिया में अपने लोकतांत्रिक होने का दिखावा करते हुए वह सबसे ज्यादा अलोकतांत्रिक होता है। वह लोकतंत्र, कानून-कायदों, संविधान का पूरा-पूरा उपयोग सत्ता की ताकत के अपने हाथों में केंद्रीकरण और सार्वजनिक धन पर अपने व्यक्तिगत नियंत्रण के लिए करता है। इसके लिए वह जनता की समस्याओं को राष्ट्रवाद की खाल ओढ़ाता है और एक हिस्से को दूसरे हिस्से के खिलाफ — गांवों को शहरों के खिलाफ, मध्यम वर्ग को असंगठित मजदूरों के खिलाफ और हिंदुओं को मुस्लिमों के खिलाफ — खड़ा करता है, ताकि समस्याओं को हल करने में उसकी असफलता और उसकी बेईमानी पर कोई सवाल खड़े न कर सके। वह उसके अंधविश्वास और पिछड़ी चेतना का भरपूर उपयोग करता है। जनता जब तक उसकी चालों को समझती है, तब तक वह बर्बाद हो चुकी होती है।

जब तक जनता यह समझेगी कि पीएम केयर्स फंड उसके लिए नहीं, कोरोना से लड़ने के नाम पर एकत्रित उसके धन पर व्यक्तिगत नियंत्रण स्थापित करने और उसका कहीं और दुरुपयोग करने की साजिश है, तब तक कोरोना उसे लील चुका होगा, बचे लोग बर्बाद हो चुके होंगे। पीएम केयर्स का अडानी के डोनेशन से जो संबंध बन रहा है, उससे साफ है कि यह फंड मोदी और परजीवी पूंजीवाद के कॉर्पोरेट पालकों के केअर के लिए ही बनाया जा रहा है, न कि कोरोना से लड़ने के लिए; क्योंकि कोरोना से लड़ने के लिए देश में एक ही फंड काफी है — और वह है, पीएम रिलीफ फंड!

(लेखक वामपंथी कार्यकर्ता और छत्तीसगढ़ किसान सभा के प्रांतीय अध्यक्ष हैं।)
sanjay.parate66@gmail.com
(मो) 094242-31650

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