(आलेख : बादल सरोज)
एक कहावत है कि गिद्ध को सपने में भी लाशों के ढेर नजर आते हैं। भेड़ियों की बरात गाँव बसाकर नहीं लौटती। ठीक इसी तर्ज पर इन दिनों, कोरोना आपदा के इतने बड़े संकट के समय भी, बर्बरता के अग्रदूत और अँधेरे के पुजारियों का आचरण है।

अहमदाबाद से गुजरात भर और इंदौर से भोपाल होते हुए पूरे मध्यप्रदेश को हॉटस्पॉट बनाते हुए कोरोना का संक्रमण देश भर में तेजी से फ़ैल रहा है। जांच, रोकथाम और इलाज में सरकार पूरी तरह विफल और नाकामयाब साबित हुयी है। अब इन जाहिर उजागर अपराधों को छुपाना है, तो कोरोना को धर्म की टोपी पहनाना और उसकी जाति तय करना ही रास्ता बचता है – वही कर रहे हैं। पूरा मीडिया इसी काम में लगा है – भाजपा और आरएसएस इसी जहर को फैलाने में जुटी है।

इस धतकरम में ये अकेले नहीं हैं। ये जिनके क्लोन हैं, वे डोनाल्ड ट्रम्प भी यही कर रहे हैं। उन्होंने कोरोना को पहले चीनी वायरस बताया, फिर मैक्सिको और दुनिया से आने वाले प्रवासियों का वायरस बताया। बचाव के लिए कदम एक भी नहीं उठाया। पड़ोसी पाकिस्तान में वहां के कठमुल्ले इसे अहमदिया वायरस बता रहे हैं। हमारे यहाँ इसे टोपी पहनाई जा चुकी है।

30 जनवरी को पहला मरीज आने के काफी पहले ही केरल सरकार उपाय शुरू कर चुकी थी और जिस तरह उसने संक्रमण को थामा, उसकी चर्चा आज दुनिया भर में है। मगर इधर मोदी बजाय हवाई यात्रा रोकने या कोई और कदम उठाने के 24-25 फरवरी को नमस्ते ट्रम्प की मजमेबाजी में लगे थे। नतीजा सामने हैं – आज वे तीनो शहर इससे बुरी तरह प्रभावित हैं, जहां ट्रम्प के साथ हजारों की भीड़ आयी और बाकी हजारों को संक्रमित कर गयी। जहँ जहँ पाँव पड़े ट्रम्पन के/ तहँ तहँ बंटाढार !!

भीड़ की ऐसी जमावटें और भी हुईं – बीच लॉकडाउन में हुईं। मध्यप्रदेश में सरकार गिराने की तिकड़म के बाद हजारों की भीड़ में भाजपा ने जश्न मनाया। इंदौर में थाली बजाने भारी भीड़ जलूस लेकर निकल आयी। अयोध्या में आदित्यनाथ हुजूम बनाकर रामलला को लेकर कहीं और बैठाने निकल पड़े। कर्नाटक के सिध्दालिंगेश्वर के मेले में बीसियों हजार की भीड़ इकट्ठा कर ली गयी – यह सब लॉकडाउन के बीच हुआ। मगर एक ख़ास एजेंडे के तहत सारा ठीकरा दिल्ली के निज़ामुद्दीन मरकज़ की तब्लीगी जमात पर फोड़ कर कोरोना को टोपी पहनाई जा रही है।

यकीनन कोरोना के बीच इतने लोगों का तब्लीगी जमात के नाम पर इकट्ठा होना हद दर्जे की गैरजिम्मेदारी थी – मगर सवाल यह है कि इस बेवकूफी की इजाजत किसने दी? यह वाली तब्लीगी जमात मुम्बई में होनी थी। वहां इसके आयोजन की अनुमति देने से महाराष्ट्र सरकार ने साफ़ मना कर दिया। फिर दिल्ली में इसके आयोजन की अनुमति किसने दी? मलेशिया और इंडोनेशिया जहां कोरोना फैला था, वहां के प्रतिनिधियों को वीसा किसने दिया? इसी मोदी-शाह सरकार ने! अब उसी जमात के बहाने बेहद तेजी से हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण किया जा रहा है। यह करें गली में क़त्ल, बैठ चौराहे पर रोयें वाला मामला है।

इतने गंभीर संकटकाल में भी “हम” और “वे” का विभाजन किया जा रहा है। किसी देश की जनता में फूट डालकर उसे कमजोर करने के लिए उसके दुश्मन देश अरबों रूपये खर्च करते हैं – हमारे यहां यह काम खुद सरकार और सरकार में बैठी पार्टी कर रही है। हम और वे का चक्र जब एक बार अगर शुरू हो जाता है, तो वहीँ तक नहीं रहता — बहुत नीचे तक जाता है। यह मनुष्य को लिंचिंग मॉब की भीड़ बना देता है। ऐसी पागल वहशी भीड़ जो पहलू खान, अख़लाक़ और पालघर तथा अयोध्या के साधुओं बीच अंतर नहीं करती। अभी पिछले महीने ही महापलायन के समय पूरी दिल्ली में बिहारियों को गालियां दी जा रही थीं। यूपी के मेहनतकशो को कोसा जा रहा था – अब हिन्दू-मुस्लिम का खेल खेला जा रहा है।

मगर क्या ये यहीं तक रुकेंगे? नहीं! मुसलमान इनके टैक्टिकल टारगेट हैं – कार्यनीतिक निशाने। इनकी स्ट्रेटेजी – रणनीति कुछ और है और उसका नाम है हिंदुत्व – वह हिंदुत्व, जिसका हिन्दू धर्म से कोई रिश्ता नहीं है। हिंदुत्व मतलब वह जिसे सावरकर ने कॉइन किया था और उन्हींने कहा था कि “इसका हिन्दू धर्म की परम्पराओं या मान्यताओं से कोई संबंध नहीं है। यह राज करने की एक प्रणाली है।” हिंदुत्व मतलब मनुस्मृति का म्यूटेड फिजिकल वर्शन।

कोरोना के बीच कोरोना के बहाने पिछले कई दिनों से मनुस्मृति के चारण और सावरकरी हिंदुत्व वालों ने एक नई मुहिम छेड़ दी है। इसकी शुरुआत हाथ मिलाने और गले मिलने के तिरस्कार से हुयी – नमस्ते और चरणस्पर्श के माहात्म्य तक पहुँची और अब छुआछूत और पर्दाप्रथा के गौरवगान तक आ गयी है। संघी आई टी सैल कोरोना प्रोटोकॉल का हवाला देते हुए धड़ल्ले से कह रही है कि भारत में जो छुआछूत थी, वह कितनी सही थी! एक दूसरे को न छूने की कुप्रथा कितनी महान थी!! आज पूरी दुनिया उसे अपना रही है। मास्क का उदाहरण देते हुए कह रहे हैं कि मुंह ढांकने की, घूंघट डालने की पर्दा प्रथा कितनी महान थी।

यह मुहिम यहीं तक नहीं रुकने वाली – यह आगे बढ़कर उस जमाने की महानता के भी गुणगान करेगी, जिसमे शूद्रों और अवर्णों को अपने गले में कटोरा लटका कर और अपने पीछे झाड़ू बांधकर चलने को कहा जाता था। ताकि वे यदि थूकें तो कटोरे में ही थूकें और जहां जहां उनके पाँव पड़े उन जगहों को कमर में बंधी झाड़ू साफ़ करती जाए। ताज्जुब मत कीजियेगा, यदि इसे वे “सेनीटेशन” की महान प्राचीन परम्परा बताने लगें – और उसे लागू करवाने के लिए पिल पड़ें। इनका असली एजेंडा उसी मध्ययुग के अन्धकार वाले समय की वापसी है, और कुछ नहीं।

यह तय है कि ये जो आज कोरोना का धर्म तलाश रहे हैं, कल उसकी जाति तय करेंगे और हर मौके का इस्तेमाल अपनी आपराधिक मनुस्मृति को लागू करने के लिए करेंगे। लिहाजा कोरोना से बचने, कोरोना के असर से पीड़ित त्रस्त मानवता की मांगों को लेकर लड़ने के साथ-साथ मनुस्मृति के इस म्यूटेटेड फिजिकल वर्शन से भी लड़ना होगा। ठीक यही मुहिम जारी है।

(बादल सरोज पाक्षिक ‘लोकजतन’ के संपादक और अ. भा. किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)

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