संकाय (फैकल्टी) को उपस्थिति दर्ज करने की अनिवार्यता को ले कर दिल्ली उच्च न्यायालय में अर्चना प्रसाद की याचिका पर कोर्ट ने जेएनयू प्रशासन की ओर से जारी नोटिफिकेशन पर रोक लगा दी
नईदिल्ली.सोमवार, 14 जनवरी को दिल्ली उच्च न्यायालय ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) प्रशासन की ओर से जारी नोटिफिकेशन पर रोक लगा दी, जिसमें संकाय (फैकल्टी ) को उपस्थिति दर्ज करना अनिवार्य किया गया था। इस नोटिफिकेशन के अनुसार किसी शिक्षक ने अगर समय पर अपनी उपस्थति नहीं दर्ज की तो उसकी छुट्टी के अनुरोध या उनके प्रस्तावों पर विचार नहीं किया जाएगा, भले ही वह विदेश में किसी शैक्षिणिक सम्मेलनों और सेमिनारों में शामिल होना हो, किसी भी सूरत में उनका छुट्टी का अनुरोध स्वीकार नहीं किया जाएगा।
जेएनयू के शिक्षक काफी लंबे समय से उप-कुलपति के अनिवार्य उपस्थति के निर्णय के खिलाफ संघर्ष कर रहे थे। उनका कहना था कि शिक्षण कोई सरकारी बाबू का काम नहीं है कि ऑफिस में बैठकर किया जाए। शिक्षण एक शोध का विषय है जिसके लिए लगातार सेमिनार और सम्मेलन में जाना होता है। ऐसे में न्यायालय का ये फैसला जेएनयू के शिक्षकों के लिए एक बड़ी जीत है। साथ ही शिक्षा और शोध के के हित में है। ये शिक्षकों के लंबे आंदोलन और क़ानूनी संघर्ष का ही परिणाम है कि प्रशासन को अपने अनिवार्य उपस्थिति के फैसले को वापस लेना पड़ेगा।
इस पूरे मामले में तब एक बड़ा विवाद खड़ा हुआ जब जेएनयू प्रशासन ने उन शिक्षकों को छुट्टी देने से इंकार करना शुरू कर दिया जो अपनी उपस्थिति को दर्ज नहीं कर रहे हैं और अपने छात्रों के उपस्थिति रिकॉर्ड भी जमा नहीं कर रहे थे। शिक्षकों का आरोप है कि प्रशासन ने उन्हें तब भी छुट्टी देने से इंकार कर दिया जब उन्होंने विदेश में अपने शोध पेपर प्रस्तुत करने के लिए हफ्तों पहले आवेदन किया था।
दिल्ली उच्च न्यायलय के न्यायमूर्ति सुरेश कैत ने 13 नवंबर, 2018 के जेएनयू प्रशासनिक अधिकारियों के नोटिफिकेशन जिसको जेएनयू के एक शिक्षक ने चुनौती दी थी, पर जेएनयू प्रशासन से जवाब तलब किया है।
कोर्ट इस मामले को लेकर 3 मई को अगली सुनवाई करेगा । नोटिफिकेशन को प्रोफेसर अर्चना प्रसाद ने चुनौती दी थी, वे जेएनयू के असंगठित क्षेत्र और श्रम अध्ययन सेंटर में फैकल्टी हैं, उन्हें 6-16 दिसंबर, 2018 से दक्षिण अफ्रीका में एक सम्मेलन में भाग लेना था और इसके लिए उन्होंने पिछले साल 9 अक्टूबर को छुट्टी का आवेदन भेजा दिया था, लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन ने 13 नवंबर के नोटिफिकेशन का हवाला देते हुए उनके आवेदन को अस्वीकार कर दिया था। अर्चना प्रसाद ने फिर 13 दिसबर को छुट्टी के लिए आवेदन किया जब उन्हें 21 दिसंबर से 25 जनवरी तक एक कार्यक्रम के लिए द सैम मोयो अफ्रीकन इंस्टीट्यूट फॉर एग्रेरियन स्टडीज से निमंत्रण मिला था। इसके बाद उन्होंने 20 से 27 जनवरी तक छुट्टी के लिए आवेदन किया परन्तु इसे 2 जनवरी को “अनिवार्य उपस्थिति के नियमों का पालन नहीं करने” के आधार पर खारिज कर दिया गया, जिसे उन्होंने कोर्ट में चुनौती दी।
जेएनयू प्रशासन के फैसले को चुनौती देते हुए शिक्षक अर्चना प्रसाद के वकील मानव कुमार साह ने बताया कि उन्होंने कोर्ट से अपील की कि वो 13 नवंबर के नोटिफिकेशन को रद्द करे। उन्होंने कहा कि प्रसाद की छुट्टी एक वैध और जरूरी शैक्षणिक उद्देश्य के लिए थी। इसे केवल अनिवार्य उपस्थति के आधार पर खारिज़ नहीं किया जा सकता है।
जेएनयू प्रशासन कि तरफ से उपस्थित वकील ने कोर्ट में कहा कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और जेएनयू के नियमों के अनुसार शिक्षकों की उपस्थिति अनिवार्य है, जबकि अर्चना प्रसाद ने अपनी याचिका में इसे भेदभावपूर्ण और अवौध बताते हुए कहा कि प्रशासन इसे अपनी सत्ता को कायम रखने और मनमाने तरीके से कार्य करने के लिए प्रयोग कर रहा है। सुनवाई के बाद कोर्ट ने जेएनयू प्रशासन के नोटिफिकेशन पर रोक लगाते हुए इसे तीन दिन के भीतर हल करने को कहा।
प्रोफेसर अर्चना प्रसाद ने संवाददाता से बात करते हुए कहा की कोर्ट का ये निर्णय शिक्षक समुदाय के लिए एक बड़ी जीत है। उन्होंने कहा की प्रशासन अपनी अधिसूचना के बाद से शिक्षको के साथ पूरी तरह से असहयोग कर रहा था जिस कारण शिक्षक किसी प्रकार के शोध पेपर पूरा नहीं कर पा रहे थे। यह सीधे तौर पर उच्च शिक्षा पर हमला था। उन्होंने यह भी कहा कि जेएनयू प्रशासन का यह कहना कि यूजीसी का नियम है कि शिक्षकों को रोज उपस्थति दर्ज करनी पड़ेगी, यह पूरी तरह से गलत है। ऐसा कोई भी नियम नहीं है।
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विचार और विमर्श दिल्ली उच्च न्यायालय ने प्राध्यापकों की उपस्थिति दर्ज करने की बाध्यता पर...