साहित्य में लिखना मेरे लिये राजनैतिक हस्तक्षेप है – डॉ हेमलता माहेश्वर

रायपुर। साहित्य अकादमी छत्तीसगढ़ संस्कृति परिषद की ओर से दो दिवसीय साहित्यिक कार्यक्रम ‘स्त्री-2023 सृजन और सरोकार’ के अंतर्गत दूसरे दिन सोमवार 20 फरवरी को शहर के न्यू सर्किट हाउस सिविल लाइंस स्थित कन्वेंशन हॉल में देशभर से आये रचनाकारों, समीक्षकों ने आज भी विचारोत्तेजक चर्चा जारी रखी । जिसमें स्त्री विमर्श से जुड़े विभिन्न मसलों पर ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में वक्ताओं ने अपने विचार रखे। शाम के सत्र में कविता पाठ ने भी दर्शकों को बांधे रखा।

पहले सत्र में 20 फरवरी सोमवार सुबह के सत्र में ‘साहित्य में स्त्री और स्त्री का साहित्य’ विषय पर रोहिणी अग्रवाल, हेमलता महिश्वर, प्रिया वर्मा,पूनम वर्मा और आशीष मिश्र ने अपनी बात रखी।
सत्र का संचालन करते हुए रश्मि रावत ने शुरुआत में कहा- पहले पुरुष के रचे साहित्य से स्त्रियां व्याख्यायित होती थीं, अब नया दौर है इसमें स्त्रियां रच रही हैं अपनी दुनिया का साहित्य।
आशीष मिश्र ने समकालीन कविता में स्त्री और स्त्री की समकालीन कविता पर वक्तव्य की शुरुआत की। उन्होंने आधुनिक स्त्री कविताओं को चार प्रस्थान बिंदुओं में बांट कर कहन के विषय के विकास को स्पष्ट करना चाहा। पूनम वासम ( बीजापुर) और जंसिता केरकेट्टा (झारखंड )की कविताओं में प्रकृति के स्त्री के साथ तारतम्य से जुड़े प्रतिमानों और संबंधों को उजागर करती कविताओं ने अपनी पहचान बनाई।
पूनम अरोड़ा ने स्त्री दृष्टि या पुरुष दृष्टि के बजाय स्त्री भाषा और पुरुष भाषा के अनुसार साहित्य के रचे जाने को ही महत्वपूर्ण बताया।
प्रिया वर्मा ने भारत में विक्टोरिया युग में प्रारंभ हुए स्त्री शिक्षा के समय के एक अच्छी स्त्री होने के मापदंडों को आज भी मध्यवर्ग की स्त्रियों में लागू होने की बात करते हुए ग्रामीण और शहरी स्त्रियों की अलग अलग समस्याओं का जिक्र किया।

साहित्य में लिखना मेरे लिये राजनैतिक हस्तक्षेप है – डॉ हेमलता माहेश्वर
दिल्ली की जामिया विवि की पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ हेमलता माहेश्वर ने स्त्री के रूप में लिखना साहित्य में एक राजनैतिक हस्तक्षेप मानते हुए हाशिये पर खड़े लोगों की अनसुनी आवाजों को सुनने के लिये साहित्य के लिये जरूरी बताया। पाली से हिंदी में विमल कीर्ति के अनुवाद आने के बाद सुमंगला माता जैसी कृतियों से स्त्री आवाजों को बाद में चिन्हित किया गया। फुले दंपति और डॉ भीमराव अंबेडकर के प्रयासों से महिलाओं के स्वरों को आवाज़ मिली।
आज जंसिता केरकेट्टा जैसे कवियों की रचनाओं में
मेरा गांव घर जिधर है
शासन की बंदूक उधर है
जैसे सवाल अब भी क्यों है।

डॉ रोहिणी अग्रवाल ने भारतीय इतिहास में योगदान करने वाली महिलाओं का जिक्र करते हुए आज भी जेंडर आधार पर महिलाओं उपेक्षा का सामना करना पड़ता है।
साहित्य हो या क्रिकेट भारतीय स्त्रियों को प्रोत्साहन नही मिलता।
साहित्यिक जगत भी अपने समकालीन स्त्री रचनाकारों को कहाँ, कैसे दर्ज करता है ? 1882 की सीमान्तनी उपदेश जैसी किताबों को इतिहास से विलुप्त करके उसी समय में आयी ” बंग महिला” को सुविधाजनक होने के कारण दर्ज किया गया।
दोपहर 2 बजे ‘साहित्य में स्त्री दृष्टि क्या है..?’ इस विषय पर जयशंकर, प्रत्यक्षा,लवली गोस्वामी और प्रियंका दुबे दर्शकों से रूबरू हुए। इसमें प्रारंभ में अपनी बात रखते हुए जयशंकर ने रचनाकार के अंदर स्त्री और पुरुष दोनों की दृष्टि काम कर रही होती है जो हमे एक सर्जक के तत्व की ओर ले जाती है। इसका उदाहरण चोखेर बाली के रचयिता रवींद्रनाथ टैगोर, अन्ना केरेनना के लियो टालस्टाय की रचनाओं में देखा जा सकता है।
लवली गोस्वामी ने स्त्री दृष्टि को पुरुष से अलग बताते हुए कहा कि उसे संतान जनने की प्रक्रिया और ट्रांसजेंडर की जिंदगी के दुखों से वंचित रहने के कारण उसकी अभिव्यक्ति अलग होगी।जबकि स्त्री का रचा साहित्य सर्वकालिक समन्वित जेंडर की जरूरत और संवेदनाओं को अभिव्यक्त करेगा।
प्रत्यक्षा ने कहा कि अपनी रचना प्रक्रिया के दौरान रचनाकार अपने जेंडर से ट्रांसजेंड करके अधिक सटीकता से लिख पाता है।
बाहर और भीतर की दुनिया को उकेरने का काम स्त्री दृष्टि से किया जाता है जो बहुत महत्वपूर्ण सर्जना का कारण बनता है।
प्रियंका दुबे ने स्त्री जीवन में आज आये बदलाव का असर आज के साहित्य में कम ही दिखने की शिकायत करते हुए कहा स्त्री जीवन भर बेदखली या विस्थापन झेलती है और वही उसकी रचनाओं में अपनी जटिलताओं, परतों के साथ बहुत कम आ रहा है साहित्य में। उसकी सटीक अभिव्यक्ति के लिये हर स्तर पर रचनाकारों को खुद को भी विकसित करना होगा।

साहित्य अकादमी के अध्यक्ष ईश्वर सिंह दोस्त ने अंत मे हस्तक्षेप करते हुए प्रश्न उठाया कि , क्या हर स्त्री के पास स्त्री दृष्टि हो सकती है ?
क्या हर मजदूर के पास श्रमिक दृष्टि और दलित के पास दलित दृष्टि हो सकती है ?
शायद नही , भले ही उस दृष्टि को हासिल करना उसके लिये आसान होगा।
उन्होंने कहा की स्त्री के ऊपर मातृत्व की विचारधारा को जैसे लाद दिया जाता है उसी तरह प्रकृति की उपमा से जोड़ कर स्त्रीभाव को भी लाद दिया जाना , वैसी ही प्रक्रिया लगती है।पिछले कुछ सालों में साहित्य व आलोचना के स्थापित प्रतिमानों के सामने स्त्री लेखन ने बड़ी चुनौती पेश की है।

सोमवार का अंतिम सत्र काव्यपाठ के नाम रहा। जिसमें स्त्री रचनाकारों के साथ साथ पुरुष कवियों ने भी भागीदारी की। इस आयोजन में शाम 4:00 बजे कविता पाठ सत्र में देवी प्रसाद मिश्र, मृदुला सिंह, गिरिराज किराडू, श्रुति कुशवाहा, पूनम अरोड़ा, सुमेधा अग्रश्री,नेहल शाह, प्रिया वर्मा, रूपम मिश्र और लवली गोस्वामी ने अपनी रचनाओं का पाठ किया। लवली गोस्वामी ने कविता
” प्रेम में उतना डूबो,
जितना डूबती है नाव।”
से शुरुआत की और कई कविताएं फिर प्रवाहित होती चली गयी और श्रोताओं ने भरपूर आनंद उठाया। उनके बाद रूपम मिश्र ने अपनी देसज गंध वाली शानदार कविताएं सुनाई।

गिरिराज किराडू ने कहा-‘हत्या करने के विचार से उत्तेजित टीवी स्टूडियो को हर उस भाषा में बोलना आता था जिसमें अब तक बोलने और चुप रहने की कोशिश की थी मैंने’। नेहल शाह की रचनाओं में आजादी की बात थी। उन्होंने कहा-‘मैं सोचती रही आज़ादी है मुझे चुनने की रंग अपनी पसंद के किन्तु यह संभव न हुआ कभी।’ प्रिया वर्मा ने स्त्री अनुभूति पर कहा-‘क्या होता है अकेला होना जानने के लिए लेना पड़ा मुझे जन्म’। पूनम अरोड़ा ने कहा-‘तुम इतने बोधगम्य हो,जैसे समाधिस्थ बुद्ध के पास पड़ा एक कामनाहीन पत्ता।’
अंत में देवीप्रसाद मिश्र ने अपनी चर्चित कविताएं पढ़ी। देर शाम तक चले काव्य पाठ के बाद आयोजन का समापन हुआ।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here