धान के कटोरे के केंद्र में किसान- छत्तीसगढ़ की सियासत

शेखर नाग

‘धान का कटोरा’ के नाम से प्रसिद्ध छत्तीसगढ़ में चुनाव की सरगर्मियाँ अब अपने उफान पर है । प्रथम चरण की 20 सीटों के विधानसभा चुनावों के बाद दूसरे चरण की 70 सीटों पर तैयारियां चरम पर हैं। सभी राजनैतिक दल ख़ुद को औरों से ज़्यादा नैतिक और भरोसेमंद होने का दावा कर रहे हैं, हालांकि राजनैतिक दलों में कितनी नैतिकता बची है, यह बात किसी से छिपी नहीं है। देश में चुनाव पिछले कुछ दशकों से नैतिकता के मुद्दे पर कम भावनात्मक मुद्दे पर ज़्यादा लड़ा जा रहा है।

जनता के बुनियादी मुद्दे पीछे छूटते जा रहे हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ में विगत पांच वर्षों के चुनाव में खेती- किसानी का मुद्दा केंद्र में आया है, जो बहुत अच्छी बात है । ऐसे ही जनता से जुड़े मुद्दे पर ही चुनाव का फ़ैसला होने लगे तो यह जनता के लिए तो अच्छा होगा ही साथ ही राजनैतिक दलों को भी जनता के बुनियादी मुद्दे पर काम करने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। हालांकि स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर निकट भविष्य में ऐसी सम्भावनायें कम दिखती है । प्रश्न यह है कि छत्तीसगढ़ में खेती और किसान का मुद्दा प्रमुख कैसे बना ? छत्तीसगढ़ का कृषि प्रधान राज्य होना इसका एक प्रमुख कारण है । लेकिन राजनैतिक दल और सरकारें इसी एकमात्र कारण से इसे अपना प्रमुख मुद्दा नहीं बनाती हैं ?

तो फिर वो कौन से कारण हैं जिन्होंने खेत और किसान को प्रमुख मुद्दा बनाने के लिए इन राजनैतिक दलों को विवश किया ? राज्य के पिछले चुनाव यानी सन 2018 के चुनाव की बात करें तो इस चुनाव में कांग्रेस को इसी मुद्दे पर सत्ता प्राप्त हुई थी और उसके इस शासनकाल में खेती-किसानी और इससे संबंधित योजनाओ की गूंज लगातार बनी रही। गाँव और कृषि मुद्दे पूरे पांच साल चर्चा में रहे। इसलिए आज सभी राजनैतिक दलों के चुनावी घोषणा पत्रों में खेत और किसान प्रमुख बिंदू है। किसानों को अपने पक्ष में लाने के लिए एक से बढ़कर एक वादे किये जा रहे हैं क्योंकि सभी राजनैतिक दलों को लगने लगा है कि किसानों की समस्या को नज़रअंदाज़ करके सत्ता पाना बहुत मुश्किल है इसलिए सभी राजनैतिक दल ख़ुद को सबसे बड़ा किसान हितैषी साबित करने की होड़ में जी जान से जुटे हुये हैं। भले ही ये राजनैतिक दल भीतर से कितने ही किसान विरोधी क्यों न हो।

यह बात ग़ौरतलब है कि हर पांच साल में चुनाव का मुद्दा बदल जाता है फिर क्या कारण है कि इस वर्ष का चुनाव भी किसान के मुद्दे पर ही लड़ने को राजनैतिक दल बाध्य हैं ? इस बात का जवाब है देश के विभिन्न हिस्सों में पिछले पांच छह सालों से हो रहे किसान आँदोलन । हालांकि देश में सदियों से लगातार जनांदोलन होते रहे हैं । किंतु किसान आंदोलन की बात करें तो पिछले पांच छह वर्षो के भीतर हुए आंदोलन ने सत्ता को पूरी तरह झकझोर दिया है।

पाँच छह वर्ष पूर्व इसकी शुरुवात महाराष्ट्र से हुई थी । अखिल भारतीय किसान सभा के नेतृत्व में महाराष्ट्र के किसानों ने मीलों पदयात्रा कर सत्ता की नींद हराम कर दी थी। इस आंदोलन को महानगर तक पहुँचने के कारण गोदी मीडिया के इलेक्ट्रॉनिक चैनलों को भी कव्हरेज देना पड़ा था । इसके बाद तो देश के अधिकतर हिस्सों में किसान आंदोलन की सुगबुगाहट तेज़ होती गई । तामिलनाडु और पांडिचेरी के किसानों के दिल्ली धरने का गोदी मीडिया द्वारा मज़ाक भी बनाया जाता रहा।
इसके बाद तीन वर्ष पहले हुए चार काले कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ दिल्ली केंद्रित किसान आंदोलन नें तो सत्ता को पूरी तरह झिंझोड़ दिया। किसान आंदोलन को शुरुवात में भाजपा सरकार बहुत ही हल्का आंक रही थी । इस आंदोलन को बदनाम करने की बहुत कोशिशें भी होती रही । किसानों को कभी नक्सली तो कभी खालिस्तानी और कभी आतंकवादी कहकर बदनाम करने की नाकाम कोशिशें की गई । लेकिन किसान आंदोलन के जुझारू संगठनों की एका, समर्पित किसानों और ईमानदार नेतृत्व ने अपने दृढ़ निश्चय और शांतिपूर्ण , सतर्क, अनुशासित आंदोलन से सत्ता की नींद उड़ा दी और सत्ता को किसानों के आगे झुकना ही पड़ा। किसानों ने अपने वैचारिक प्रतिबद्धता और ईमानदारी से अपने ऊपर लगाये जा रहे सारे आरोपो को झूठा साबित कर केंद्र सरकार के किसान विरोधी चेहरे को पूरी दुनियाँ के सामने उजागर कर दिया । पूरी दुनियाँ से किसान आंदोलन को समर्थन मिलने लगा और यह किसान संघर्ष ऐतिहासिक और पूरी दुनियाँ के लिए प्रेरणादायी बन गया । सैकड़ों किसानो ने अपने प्राणों के बलिदान से यह साबित कर दिया कि सड़क संसद से बड़ी होती है । क्योंकि संसद के निर्वाचितों को सड़क ही चुनती है और जब ये निर्वाचित बहरे हो जाते हैं , जनता की आवाज़ नहीं सुनते हैं तो जनता अपने संघर्षों से सत्ता को भी भयभीत कर देती है । सत्ता-सरकारें अमूमन जनविरोधी होती है । यह जनांदोलन ही है जो इन्हें जनता के लिए थोड़े बहुत अच्छे कार्य करने के लिए बाध्य करती है । जनांदोलन जनता की सबसे बड़ी ताक़त होती है । जनांदोलन ही सरकारों पे लगाम लगाये रखती है ,अन्यथा ये बेलगाम घोर जनविरोधी होने में तनिक भी देर न करें । हालांकि यह ध्यान देने वाली बात है कि सरकारें जो थोड़े बहुत अच्छे कार्यो का ढिंढोरा पीटते हैं, उसमें भी कारपोरेट हित के चोर दरवाज़े पहले से खोल लिए जाते हैं । इनके नीति निर्माता अफसरशाह, सलाहकार इस कार्य में बहुत माहिर होते है।

इन कार्यों के ये सफ़ेद हाथी हैं, लेकिन इसके बावजूद भी व्यवस्था जनता से बहुत भय खाती है । क्योंकि हर व्यवस्था में जनता ही असली नायक होती है । जनता की पलटन से व्यवस्था और सरकारें थरथर कांपती है। हालांकि सरकारें यह दिखाने का ढोंग करती है कि उसे इन सब की परवाह नहीं , पर सच्चाई यह है सरकारें भीतर से बहुत भयभीत होती है । ज्यों ज्यों वह और ज़्यादा भयभीत होती है उसकी क्रूरता बढ़ती जाती है । जितनी क्रूरता बढ़ती है वह उतनी ही भयभीत होती जाती है और अन्त में अपने ही भय और क्रूरता से उसका अंत हो जाता है । किसान आंदोलन ने ऐसा ही भय सरकार के भीतर भय पैदा किया था जिससे सरकार की क्रूरता बढ़ती गई। सड़कें खोद दी गई, सड़को पर कीलें गाड़ दी गईं। दिल्ली में दाख़िल नहीं होने दिया गया, अफवाहों को संगठित तौर पर फैलाया गया लेकिन आख़िरकार सरकार किसानों को रोक नहीं पायी । भीषण गर्मी, बारिश और कड़कड़ाती सर्दी भी किसानों को अपने पथ से डिगा नहीं पायी । सरकार को किसानों के आगे झुकना ही पड़ा । सरकार ने जो असंसदीय ढंग से काले कृषि क़ानून पारित किये थे, उसे रद्द करना ही पड़ा। एक और महत्वपूर्ण बात किसान आंदोलन को शुरुआत में कुछ कथित बहुजन और उग्र प्रगतिशील समूहों ने भी बदनाम करने की कोशिश की । लेकिन उन्हें भी सफलता नहीं मिली । इन प्रगतिशीलों की सबसे बड़ी समस्या है कि हर धड़ा ख़ुद को औरों से ज़्यादा प्रगतिशील बताने की कोशिश में अपनी अधिकतम ऊर्जा ख़र्च कर रहा है । प्रगतिशीलों का यही बंटवारा बड़े जनांदोलन के रास्ते में बाधक है। प्रगतिशीलों को यह बात कब समझ आयेगी ? दुनियाँ के ग़रीबों को एक होने का नारा देने वाले ख़ुद एक नहीं हो पा रहे हैं।
ख़ैर यहाँ लोगों के मन में यह बात आ सकती है कि हाल के वर्षों में छत्तीसगढ़ में तो किसानों का कोई बड़ा आंदोलन नहीं हुआ तो फिर छत्तीसगढ़ चुनाव में खेती-किसानी को प्रमुख मुद्दा बनाने में किसान आंदोलन की भूमिका कैसे हो सकती है ? इस बात का जवाब यह है कि छत्तीसगढ़ में भी किसानों की स्थिति देश के दूसरे हिस्से की किसानों से भिन्न नहीं है और उन दिनों किसान आंदोलन की आंच पूरे देश में फैलने लगी थी । छत्तीसगढ़ में भी किसानों के समर्थन में रैलियां और प्रदर्शन होने लगे थे । किसान नेताओं का आगमन भी उन दिनों छत्तीसगढ़ में हुआ था। यह सारे घटनाक्रम काफ़ी हैं जिसके कारणों से छत्तीसगढ़ में किसान संबंधित मुद्दे की अनदेखी राजनैतिक दल नहीं कर पा रहे हैं । ऐसे ही छत्तीसगढ़ के दूसरे और बुनियादी मुद्दे अगर चुनाव के लिए निर्णायक भूमिका अदा करे तो कहा जा सकेगा कि छत्तीसगढ़ में वाकई विकास की शुरुवात हो रही है ।


पूंजीवादी राजनैतिक दलों से इसकी अपेक्षा करना उचित नहीं है। यह स्वतः नहीं होगा । इसके लिए इन बुनियादी मुद्दों पर काम करने का दावा करने वालों को एक विशाल जनांदोलन करना होगा और यह विशाल आंदोलन वातानुकूलित कमरे और आराम कुर्सी में धसकर नहीं होगा । सड़कों पर उतरे बग़ैर नहीं होगा । सड़कों पर उतरने की हिम्मत जुटाना होगा। सारे मतभेद भुलाकर (ख़ासकर प्रगतिशीलों को) एक होना होगा। छत्तीसगढ़ की बुनियादी समस्याओं जैसे *शिक्षा, स्वास्थ्य, भ्रष्टाचार, भूख, ग़रीबी, बेरोज़गारी, कुपोषण, जातिगत आरक्षण, अवैध भूमि अधिग्रहण, नक्सलवाद, पलायन, श्रम क़ानूनों का उल्लंघन, निजीकरण, पूंजीवाद, अंधविश्वास, दलित-आदिवासी- अल्पसंख्यक अत्याचार, जातिवाद* आदि आदि को जनांदोलन का रूप देना होगा। ऐसे में सरकार और बुर्जुआ राजनैतिक दलों को भी बाध्य होना पड़ेगा कि इन ज़मीनी मुद्दों को चुनाव का प्रमुख मुद्दा बनाये। उन्हें अहसास कराना होगा कि वो इन मुद्दों को अनदेखा नहीं कर सकते । तब जाके प्रदेश की जनता का भला हो पायेगा ।

शेखर नाग, रायपुर (छत्तीसगढ़)
रंगमंच और सामाजिक आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ता

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