दो जुलाई को दिल्ली में होगी बैठक, राष्ट्रीय अनुसूचित जाति जन जाति आयोग का बुलावा

शांति प्रक्रिया के लिए कार्यरत स्वयं सेवी समूहों ने     गृह मंत्रालय और पांच राज्यों से विस्थापित आदिवासियों की जीवन स्थितियों पर एक रिपोर्ट तैयार की और स्थिति की गंभीरता का आकलन करने का आह्वान किया है.इनके आधार पर प्रकाशित  “मीडिया रिपोर्टों के माध्यम से आयोग के संज्ञान में आया है कि बस्तर क्षेत्र के लगभग 5,000 आदिवासी परिवार, वर्तमान में नक्सल समस्या  के कारण आस-पास के राज्यों में रह रहे हैं, जो अब छत्तीसगढ़ लौटना चाहते हैं और पुनर्वास की मांग कर रहे हैं,” एनसीएसटी ने 16 जून  2019 को जारी एक पत्र में ऐसा कहा है.

नईदिल्ली.  आयोग ने यह भी कहा कि “ऐसे परिवारों के व्यक्तिगत और सामुदायिक वन अधिकारों के दावों को या तो उनके मूल स्थान पर या उस स्थान पर नहीं दिया गया है जहां वे पिछले कुछ वर्षों से निवास कर रहे हैं”. इसलिए वनाधिकार कानून के अंतर्गत इन पीड़ितों को भू आवंटन सम्बन्धी अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाया है .

प्रत्येक राज्य में रहने वाले ऐसे विस्थापित परिवारों की संख्या पर ध्यान केंद्रित करना, उनकी रहने की स्थिति, आजीविका का स्रोत और विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं की उपलब्धता – आवास, खाद्य सुरक्षा, पेयजल, शिक्षा, बैंकिंग और स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता पर आधारित यह रिपोर्ट  जुलाई तक प्रस्तुत की जानी चाहिए.

“आयोग के अध्यक्ष ने ओडिसा , छत्तीसगढ़ , तेलंगाना राज्यों को पत्र के   द्वारा  यह कहा  है कि 15 दिनों के अन्दर राज्य के मुख्य सचिव या उनके प्रतिनिधि दिल्ली में रिपोर्ट प्रस्तुत करें . अतः  2 जुलाई को गृह मंत्रालय और जनजातीय मामलों के मंत्रालय के साथ एक बैठक आयोजित करने का फैसला किया है, और राज्य सरकारें इन मुद्दों परआदिवासियों के सामने आने वाली समस्याओं का समाधान कराणे हेतु  आगे चर्चा करेंगी.

वैसे तो इन विसथापितों की कुल संख्या आदिवासी अधिकार कार्यकर्ताओं के अनुसार लगभग 30,000  है  ऐसे  लोग, जो माओवादी हिंसा के कारण छत्तीसगढ़ भाग गए, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना और महाराष्ट्र के जंगलों में 248 बस्तियों में रह रहे हैं. ये आदिवासी पीने के पानी और बिजली की पहुंच के बिना बहुत ही खराब स्थिति में रह रहे हैं.

उन्हें कम मजदूरी मिलती है. उनमें से अधिकांश के पास राशन कार्ड या मतदाता पहचान पत्र नहीं हैं और वे अपनी नागरिकता साबित नहीं कर सकते, कार्यकर्ताओं का दावा है, इन राज्यों को जोड़कर उन्हें आदिवासियों के रूप में मान्यता नहीं है.उनका दावा है कि वन भूमि पर उनका कोई अधिकार नहीं है और उन्हें सभी सामाजिक सुरक्षा लाभों से बाहर रखा गया है. दूसरी ओर बहुत से ऐसे आदिवासी परिवार भी हैं जो सुरक्षा बलों की प्रताड़ना से त्रस्त हो कर गाँव छोड़ कर और घने जंगलो में या दूसरे प्रदेशो में जा कर रोजी मजदूरी करके विस्थापितों का जीवन जी रहे हैं इस तरह से इन इलाकों में पिछले 20 वर्षों में गाँवो से विस्थापन का दृश्य बहुत ही  भयावह भी है और मानवाधिकारों के उल्लंघन  की  दृष्टि से गंभीर भी , ऐसी  स्थिति में पूरी तरह नुकसान उठा रहे आदिवासियों की स्थिति को सम्हालने का प्रयास जरुरी है.

सुकमा से प्राप्त जानकारी के अनुसार वहा कलेक्टर को दिए ज्ञापन में प्रदेश की नई सरकार से चुनावों के समय किये गए वायदे के अनुसार नक्सल क्षेत्रो के निर्दोष आदिवासियों को संभाग की विभिन्न जेलों में बंद रखा गया है उन्हें अब तक छोड़ा नहीं गया है जबकि इस सम्बन्ध में समयबद्ध कार्यक्रम बना कर निर्दोष ग्रामीणों को छोड़ने  का वायदा सरकार द्वारा किया गया था .

 

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