वर्ष  2018  के आंकड़ो में  बी जेपी के कुल निर्वाचित सदस्यों के 39 प्रतिशत अर्थात 116 सदस्य आपराधिक मामलों में संलिप्त 

डॉ. राजू पाण्डेय

 पिछले कुछ दिनों में अनेक युवा जन प्रतिनिधियों ने नकारात्मक  कारणों से सुर्खियां बटोरीं. कीचड़बाज नीतेश राणे, बल्लेबाज आकाश विजयवर्गीय और पिस्तौलबाज कुंवर प्रणव सिंह चैंपियन सभी हिंसा के चैंपियन बनने की कोशिश करते नजर आए. हो सकता है कि आने वाले दिनों में मर्यादा लांघते और अपना संयम खोकर हिंसा और अपराधों को प्रश्रय देते राजनेताओं द्वारा और भी अप्रिय और अशोभनीय दृश्य उत्पन्न किए जाएं. पिछले वर्ष मार्च 2018 में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष हमारी सरकार स्वयं यह स्वीकार कर चुकी है कि देश की संसद और विधानसभाओं को सुशोभित करने वाले कुल 4896 सांसद-विधायकों में से 1765 पर 3045 आपराधिक मुकद्दमे चल रहे हैं. अर्थात हमारे 36 प्रतिशत विधि निर्माता स्वयं आपराधिक गतिविधियों में संलिप्तता के आरोपों से घिरे हैं. महाराष्ट्र और गोवा सरकार केंद्र को समय पर अपने राज्य के दागी सांसद- विधायकों के आंकड़े उपलब्ध नहीं करा पाईं, अन्यथा यह प्रतिशत 36 से भी अधिक होता. क्रिमिनल मामलों  का सामना कर रहे सर्वाधिक सांसद- विधायक उत्तरप्रदेश के हैं, इसके बाद तमिलनाडु, बिहार, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश और केरल का नंबर है. राजनीति के अपराधीकरण पर अंकुश लगाने से संबंधित एक याचिका की सुनवाई के दौरान एमिकस क्युरी विजय हंसरिया ने देश की सर्वोच्च अदालत को दिसंबर 2018 में बताया कि वर्तमान और भूतपूर्व विधायकों पर लंबित आपराधिक मामलों की संख्या 4122 है जिनमें से 1991 मामलों में आरोप ही तय नहीं किए जा सके हैं. एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के अनुसार वर्तमान लोक सभा की स्थिति यह है कि बीजेपी के कुल निर्वाचित सदस्यों के 39 प्रतिशत अर्थात 116 सदस्य आपराधिक मामलों का सामना कर रहे हैं. कांग्रेस कम से कम इस संदर्भ में बीजेपी को पीछे छोड़ती दिख रही है और उसके 29 सदस्य क्रिमिनल केसेस का सामना कर रहे हैं जो पार्टी के निर्वाचित सदस्यों की कुल संख्या का 57 प्रतिशत है. क्षेत्रीय दल भी कुछ पीछे नहीं हैं। जदयू के 13(81 प्रतिशत), डीएमके के 10(43 प्रतिशत) और टीएमसी के 9(41 प्रतिशत) सांसद आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं. इतनी बड़ी संख्या में क्रिमिनल रिकॉर्ड वाले सांसदों के जीत कर आने में कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है क्योंकि भाजपा ने 40 प्रतिशत और कांग्रेस ने 39 प्रतिशत ऐसे प्रत्याशियों का चयन किया था जो आपराधिक मामलों में फंसे थे. कुल मिलाकर सर्वेक्षित 539 सांसदों में से 233 क्रिमिनल केसेस में फंसे हुए हैं. यह संख्या 2009 की तुलना में 44 प्रतिशत अधिक है. एडीआर की रिपोर्ट बतलाती है कि इन मामलों में 29 प्रतिशत मामले हत्या, हत्या के प्रयास, बलात्कार और नारियों पर किए गए अपराधों से संबंधित हैं. एडीआर के अनुसार 2009 की तुलना में अत्यंत गंभीर आपराधिक मामलों में फंसे सांसदों की संख्या में 109 प्रतिशत वृद्धि हुई है. भाजपा के 5, बसपा के 2 तथा कांग्रेस, एनसीपी और वायएसआर कांग्रेस के एक एक सांसद हत्या के आरोपी हैं. हमारी वर्तमान संसद के 30 सांसद हत्या के प्रयास के आरोपी हैं जबकि 19 सांसद महिलाओं पर होने वाले अपराधों के मामलों में संलिप्त हैं. इनमें से तीन पर बलात्कार का आरोप है. केरल के इडुक्की संसदीय क्षेत्र के कांग्रेस सांसद डीन कुरियाकोसे 204 आपराधिक मामलों के साथ इस अप्रिय सूची में लज्जाजनक प्रथम स्थान पर हैं. एडीआर के विश्लेषण में जो सबसे चौंकाने वाला आंकड़ा है वह अपराधियों को मिलती जन स्वीकार्यता की ओर संकेत करता है. यदि 2019 के लोकसभा चुनावों को आधार बनाया जाए तो चुनावों में घोषित आपराधिक मामलों वाले प्रत्याशी के विजय की संभावना 15.5 प्रतिशत है जबकि स्वच्छ छवि वाले उम्मीदवार के जीतने की उम्मीद केवल 4.7 प्रतिशत है.

बहरहाल जो घटनाएं चर्चा में हैं उनकी प्रकृति का विश्लेषण आवश्यक है. नीतेश राणे और आकाश विजयवर्गीय रसूखदार नेताओं की संतान हैं और उत्तराधिकार में मिली राजनीतिक लोकप्रियता तथा शक्ति का अहंकार इनके व्यवहार में स्पष्ट दिखता है. कांग्रेस के विधायक नीतेश राणे और भाजपा विधायक आकाश विजयवर्गीय अपने अपने राज्यों में विपक्ष में हैं क्योंकि महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना तो मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार है. दोनों ही नेता पुत्र अधिकारियों और राजनेताओं के भ्रष्ट गठबंधन को अच्छी तरह जानते हैं और शायद जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे इससे लाभान्वित भी होते रहे हैं. कल तक घर के दरबार में हाजिरी भरने वाले अधिकारियों की हुक्मउदूली और नाफरमानी इन्हें नागवार गुजर रही है. विरोध का जो हिंसक तरीका इन्होंने अख्तियार किया है वह स्वयं को पुलिस और अदालत से ऊपर समझने तथा आरोपी को दोषी घोषित कर दंडित करने की उस मानसिकता का परिचायक है जिससे आजकल मॉब लिंचिंग करने वाले नौजवान संचालित हो रहे हैं. स्थान स्थान पर अल्पसंख्यकों, दलितों, पुलिस कर्मियों, सैनिकों और सरकारी कर्मचारियों पर हिंसक आक्रमण करने वाली भीड़ के अनुचित और अराजक व्यवहार का इससे अधिक खुला समर्थन और क्या हो सकता है कि देश के भविष्य को तय करने वाले युवा नेता न केवल हिंसा का आश्रय लें और इसके बाद अपने किए पर पश्चाताप भी न करें. हो सकता है कि इन नेताओं द्वारा पार्टी की अनुशासनिक कार्रवाई के प्रहसन अथवा इन्हें निर्दोष घोषित करने के बहाने तलाशती कानूनी प्रक्रिया के दौरान अपने किये पर खेद भी व्यक्त किया जाए. किंतु इस खेदप्रकाश का स्वरूप तो लाचार लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था पर किये गए एक भारी भरकम अहसान जैसा ही होगा.

प्रणव सिंह चैंपियन का प्रकरण जरा भिन्नता लिए हुए है. उत्तरप्रदेश की राजनीति में संगठित अपराधों में संलिप्त तथा अपने प्रभाव क्षेत्र में अपनी समानांतर सरकार चलाने वाले नेताओं की एक लंबी फेहरिस्त है. उत्तराखंड बनने के बाद विधायक प्रणव सिंह चैंपियन नवगठित राज्य के गैंगस्टर लीडर्स की सूची के नवीनतम नाम हैं. अपराध के क्षेत्र में अपना डंका बजाने वाले इन नेताओं के लिए अब बाहुबली जैसा सम्मानजनक संबोधन गढ़ लिया गया है. हरिशंकर तिवारी( चिल्लूपार,गोरखपुर,1985), अतीक अहमद(1989, इलाहाबाद), रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया(1993,कुंडा), मुख्तार अंसारी(1996,घोसी) जैसे राजनेता-जनप्रतिनिधि बाहुबलियों की अगली कड़ी के रूप में प्रणव सिंह चैंपियन को देखा जा सकता है. यह सभी सक्रिय राजनीति में हैं, अनेक बार सांसद विधायक बन चुके हैं और इनमें से अनेक तो मंत्री पद भी संभाल चुके हैं. चाहे वह बिहार हो या उत्तरप्रदेश या उत्तराखंड या देश कोई अन्य प्रदेश, इन गैंगस्टर्स की कहानी कमोबेश एक जैसी है, राजनीतिक पार्टियां इनके बाहुबल की आवश्यकता चुनावी राजनीति में सफलता के लिए बड़ी शिद्दत से महसूस करती रही हैं किंतु इनकी बढ़ती बदनामी से किनारा कर अपना दामन पाक साफ दिखाने की रणनीति भी इन राजनीतिक दलों ने सदैव अपनाई है.  यह गैंगस्टर्स राजनीतिक संरक्षण और माननीय कहलाने की चाह में राजनीति में आते हैं और कभी इस दल या उस दल के सदस्य बनते हैं, कभी निर्दलीय ही चुनाव में अपनी किस्मत आजमाते हैं तो कभी अपनी खुद की पार्टी बना लेते हैं.

यह घटनाएं कुछ गंभीर प्रश्नों को  छेड़ती हैं. जब जन प्रतिनिधि सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों पर लापरवाही, असंवेदनशीलता और भ्रष्टाचार के आरोप लगा कर हिंसक मारपीट और अभद्रता को समाधान के रूप में प्रस्तुत करते हैं तो क्या यह हमारी समूची लोकतांत्रिक प्रणाली के प्रति उनकी अनास्था और अविश्वास को नहीं दर्शाता है? क्या जनता को सुविधा और सेवा दिलाने तथा सरकारी अमले से काम लेने की सारी व्यवस्थाएं खंडित हो गई हैं? क्या राजनीतिक संरक्षण और भ्रष्टाचार का जो कुचक्र सभी राजनीतिक दलों ने मिलजुलकर चलाया है अब वह उन पर ही भारी पड़ रहा है? क्या हमारा समाज इतना भ्रष्टाचार पसंद हो गया है कि उसे भ्रष्ट जनप्रतिनिधि अधिक उपयोगी लगता है क्योंकि वह कुछ ले देकर काम तो करा देता है? क्या हिंसा को अब हमारे समाज और विशेषकर राजनीति में घोषित मान्यता मिल रही है? क्या सचमुच हम उस युग में पहुंच रहे हैं जब लोग कहेंगे कि वह जनप्रतिनिधि ही क्या जिस पर दर्जन भर एफआईआर न हों और जो खुल कर हाथों और जबान का शारीरिक-शाब्दिक हिंसा के लिए इस्तेमाल न करे? क्या हमें ईमानदार और सिद्धान्तनिष्ठ जनप्रतिनिधि के स्थान पर एक ऐसा अपराधी ज्यादा उपयोगी लगता है जो अपने आतंक के बल पर हमारी सही गलत जरूरतों को पूरा कर दे? जब हम इन दुर्दांत अपराधियों के समक्ष शरणागत होकर न्याय की मांग करते हैं तो न केवल इनका महिमामंडन कर इन्हें रॉबिन हुड का दर्जा दे देते हैं बल्कि संविधान, न्याय व्यवस्था और सरकार को अनुपयोगी और अक्षम भी सिद्ध कर देते हैं, क्या यह लोकतंत्र के हित में है? संसद और विधानसभाओं में कुर्सियां उछालते और आपस में जूतमपैजार करते जन प्रतिनिधि क्या पारस्परिक विमर्श और संवाद के सेतु के भंग होने की अप्रिय सूचना नहीं दे रहे होते हैं? जब हमारे जन प्रतिनिधि प्रश्न पूछती जनता, जन समस्याओं को उठाते पत्रकारों, असंतोष व्यक्त करते कार्यकर्त्ताओं और शासकीय नियमों का हवाला देते अधिकारियों के प्रति उग्र और हिंसक हो जाते हैं तो क्या वे सहिष्णुता और संवाद जैसे आधारभूत लोकतांत्रिक मूल्यों पर अपनी अश्रद्धा व्यक्त नहीं कर रहे होते हैं? आतंक का पर्याय समझे जाने वाले खूंखार गैंगस्टरों की चुनावी सफलता क्या हमारी पुलिस व्यवस्था, न्याय प्रणाली और चुनाव प्रक्रिया में मौजूद घनघोर विसंगतियों की ओर संकेत नहीं करती है? इन सवालों के जवाब तलाशे जाने चाहिए.

डॉ. राजू पाण्डेय

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here