विमर्श

नसीम मोहम्मद

देश में   मा त्र 70 साल में बाजी पलट गई. जहाँ से चले थे उसी जगह पहुंच रहे हैं हम. फर्क सिर्फ इतना कि दूसरा रास्ता चुना है और इसके परिणाम भी ज्यादा सख्त होंगे.
गोल गोल घूमता लोकतंत्र….
वैचारिक राजनीति से अलग व्यवहारिक लाभ वाली राजनीति के सिद्धान्त चुन लिए हम ने . 1947 का समय था, देश आजाद हुआ था। नए नवेले सरकार और उनके मंन्त्री यानी प्रधानमंत्री नेहरू जी और गृहमंत्री सरदार पटेल ताजा ताजा आजाद हुआ देशी रियासतों को आजाद और एक भारत का हिस्सा बनाने के लिए परेशान थे . तकरीबन 562 रियासतों को भारत में मिलाने के लिए साम दाम दंड भेद की नीति अपना कर अपनी कोशिश जारी रखे हुए थे. क्योंकि देश की सारी संपत्ति इन्हीं रियासतों की थी.
कुछ रियासतों ने नखरे भी दिखाए. मगर कूटनीति और चतुरनीति से इन्हें आजाद भारत का हिस्सा बनाकर भारत के नाम से एक स्वतंत्र लोकतंत्र की स्थापना की.और फिर देश की सारी संपत्ति सिमट कर गणतांत्रिक पद्धति वाले संप्रभुता प्राप्त भारत के पास आ गई.
समय आगे बढ़ा और गणतांत्रिक भारत की व्यवस्था कायम रही और लोकतंत्र स्थिर रहा.
धीरे धीरे रेल, बैंक, कारखानों आदि का राष्ट्रीयकरण किया गया.
मात्र 70 साल बाद समय और विचार ने करवट ली है. फासीवादी ताकत पूंजीवादी व्यवस्था की कंधे पर सवार हो राजनीतिक परिवर्तन पर उतारू है.. लाभ और मुनाफे की विशुद्ध वैचारिक सोच पर आधारित ये राजनीतिक ताकत देश को फिर से 1947 के पीछे ले जाना चाहती है. यानी देश की संपत्ति पुनः रियासतों के पास……..
लेकिन ये नए रजवाड़े होंगे दो चार पूंजीपति घराना.
निजीकरण की आड़ में पुनः देश की सारी संपत्ति देश के चन्द दो चार पूंजीपति घराने को सौंप देने की कुत्सित चाल चली जा रही है.उसके बाद क्या ..?
निश्चित ही लोकतंत्र का वजूद खत्म हो जाएगा. देश उन पूंजीपतियों के गुलाम होगा जो परिवर्तित रजवाड़े की शक्ल में सामने उभर कर आयेंगे. शायद रजवाड़े से ज्यादा बेरहम और सख्त.
यानी निजीकरण सिर्फ देश को 1947 के पहले वाली दौर में ले जाने की सनक मात्र है. जिसके बाद सत्ता के पास सिर्फ लठैती करने का कार्य ही रह जायेगा.
सोचकर आश्चर्य कीजिये कि 562 रियासतों की संपत्ति मात्र दो चार पूंजीपति घराने को सौंप दी जाएगी.
ये मुफ्त की अस्पताल, धर्मशाला या प्याऊ नहीं बनवाने वाले. जैसा कि रियासतों के दौर में होता था. ये हर कदम पर पैसा उगाही करने वाले अंग्रेज होंगे.
निजीकरण एक व्यवस्था नहीं बल्कि नव रियासतीकरण है.
अगर हर काम में लाभ की ही सियासत होगी तो आम जनता का क्या होगा. कुछ दिन बाद नवरियासतीकरण वाले लोग कहेगें कि देश के सरकारी स्कूलों, कालेजों, अस्पतालों से कोई लाभ नहीं है अत: इनको भी निजी हाथों में दे दिया जाय तो जनता का क्या होगा.
अगर देश की आम जनता प्राइवेट स्कूलों और हास्पिटलों के लूटतंत्र से संतुष्ट है तो रेलवे को भी निजी हाथों में जाने का स्वागत करें.
और अगर सरकार का काम निजीकरण ही क्यों है?
हमने बेहतर व्यवस्था बनाने के लिए सरकार बनाई है न कि सरकारी संपत्ति मुनाफाखोरों को बेचने के लिए.
सरकार घाटे का बहाना बना कर बेच क्यों रही है? अगर प्रबंधन सही नहीं तो सही करे. भागने से तो काम नही चलेगा.
नवरत्न कंपनियों को तो बक्श दे.
एक साजिश है, कि पहले सरकारी संस्थानों को ठीक से काम न करने दो, फिर बदनाम करो, जिससे निजीकरण करने पर कोई बोले नहीं, फिर धीरे से अपने आकाओं को बेच दो. जिन्होंने चुनाव के भारी भरकम खर्च की फंडिंग की है.
याद रखिये पार्टी फण्ड में गरीब मज़दूर, किसान पैसा नही देता. पूंजीपति देता है और पूंजीपति दान नहीं देता, निवेश करता है चुनाव बाद मुनाफे की फसल काटता है.
आइए विरोध करें निजीकरण का. सरकार को अहसास कराएं कि अपनी जिम्मेदारियों से भागे नहीं. सरकारी संपत्तियों को बेचे नहीं. अगर कहीं घाटा है तो प्रबंधन ठीक से करे.

नसीम मोहम्मद

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