कॉ शराफत हुसैन रिजवी वास्तविक अर्थों में भारतीय आम जनता के नेता थे
लखनऊ 15.08.19 (जव्वरी  मल पारेख)     उत्तरप्रदेश के जमीनी नेेेताओं में से एक कामरेड      शराफ़त हुसैन रिज़वी  भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की राज्य समिति के सदस्य थे. वे अमरोहा से दो बार विधानसभा के लिए निर्वाचित हो चुके थे. एक बार पूरी अवधि के लिए और एक बार उपचुनाव में विजयी हुए थे. अमरोहा से वे लगातार विधानसभा का चुनाव लड़ते रहे थे लेकिन बाद में वे कभी नहीं जीते. उनके वोट भी कम होते गये. शराफ़त हुसैन तीरकपुर, बिजनौर के रहने वाले थे, लेकिन उनके पिताजी अमरोहा में पुलिस में नौकरी करते थे. जब मैं 1975 में अमरोहा पहुंचा , तब वे एक किराये के मकान में अपनी पत्नी और बच्चों के साथ रहते थे. 1985 में अपनी मृत्यु तक वे उसी मकान में किराये पर रहते रहे थे. बाद में उनकी पत्नी और बच्चों ने वह घर खरीद लिया. इन्हीं कॉमरेड के बारे में सव्यसाची ने मुझे लिखा और कहा कि मैं उनसे संपर्क करूं. ठीक यही बात संभवत: उन्होंने कॉमरेड शराफ़त को भी लिखी होगी. मैं तो उनसे संपर्क नहीं कर पाया लेकिन वे एक दिन मेरे घर पहुंच गये थे.

कामरेड शराफ़त अली उस समय  बहुत ही आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे. लंबे, गोरे और बातचीत में बहुत प्रभावशाली थे. राजनीति विज्ञान में एम ए थे. अमरोहा में वे सबसे लोकप्रिय नेताओं में से थे और लोगों की मदद करने के लिए हर समय तैयार रहते थे. वे भी सफेद पाजामा और कुर्ता पहनते थे. उनकी पत्नी शहर की उन दो-तीन मुस्लिम महिलाओं में से एक थीं जो बिना बुर्क़े घर से निकलती थीं.
कॉमरेड शराफ़त से मिलना जुलना बढ़ता गया और वे मुझे पार्टी के कार्यक्रमों में ले जाने लगे. उनके कारण पार्टी के अन्य सदस्यों से भी मेरा संपर्क बढ़ा जिनमें टीकाराम प्रभाकर, शौक अमरोहवी (जिनका अभी कुछ दिनों पहले ही देहांत हुआ है) और सरफ़राज उस्मानी प्रमुख थे. इनके अलावा मुरादाबाद के कई कॉमरेडों से भी परिचय हुआ. साहित्यिक गोष्ठियों में सक्रियता और पार्टी कार्यक्रमों में आने-जाने ने कॉ शराफ़त को प्रेरित किया कि वे मुझे पार्टी का सदस्य बनायें. अग्रवाल धर्मशाला में पार्टी सदस्यों और सहानुभूति रखने वालों की एक बैठक थी. उसमें मैं भी आमंत्रित था, बैठक शुरू होने से पहले सड़क पर खड़े हम आपस में बाते कर रहे थे, तो अचानक उन्होंने अपने बैग से एक फॉर्म निकाला और कहा कि कॉमरेड पार्टी फॉर्म भर दीजिए. मुझे अचानक इस तरह कहा जाना कुछ अजीब-सा लगा. मेरे मुँह से यही निकला अभी नहीं. उन्होंने फॉर्म वापस बैग में रख दिया और बात आयी गयी हो गयी. यह संभवत: 1978 के शुरुआत की बात थी. कुछ महीने और निकले और इस बार उन्होंने सीधे फॉर्म आगे करने के बजाए यह पूछा कि कॉमरेड सदस्य बनेंगे. मैं सोचने लगा कि क्या जवाब दूं. उन्होंने फॉर्म निकाला और आगे कर दिया. मैंने पेन निकाला और भरने लगा. इस तरह 1978 के उत्तरार्द्ध में मैंने पार्टी सदस्यता ली. दिलचस्प यह था कि तब तक पार्टी की राजनीतिक गतिविधियों के अलावा मुझे पार्टी संगठन के बारे में और सदस्य बनाये जाने के तौर-तरीके के बारे में लगभग कुछ नहीं मालूम था. बहुत बाद में मुझे मालूम हुआ कि पार्टी की सदस्यता सीधे नहीं मिलती. पहले ऑक्जलरी में रहना होता है. इस दौरान मार्क्सवाद के बारे में, पार्टी कार्यक्रम के बारे में, पार्टी संगठन और संबद्ध जन संगठनों के बारे में और पार्टी की गतिविधियों के बारे में आयोजित होने वाली कक्षाओं में उपस्थित होना होता है. पार्टी का साहित्य और मार्क्सवाद के बारे में ज्यादा से ज्यादा पढ़ना होता है. ऑक्जलरी में रहने का अर्थ पार्टी सदस्य होना नहीं होता है. सिर्फ सदस्य बनने की तैयारी कर रहे होते हैं. ऑक्जलरी के दौरान हमारी वैचारिक तैयारी और पार्टी गतिविधियों में हमारी भागीदारी के आधार पर केंडिडेट मेंबरशिप दी जाती है. अगर तैयारी संतोषजनक नहीं है तो केंडिडेट मेंबरशिप नहीं दी जाती. केंडिडेट मेंबरशिप के तौर पर पार्टी को अपनी आय का एक छोटा सा हिस्सा लेवी के तौर पर पार्टी को देना होता है. यह लेवी पूर्ण सदस्यता हासिल होने पर भी देते रहना होता है.मैं इन तीन चरणों में से किसी में रहे बिना सीधे सदस्य बना दिया गया. मेरा इस तरह सदस्य बनाया जाना पार्टी के कार्य करने की बुनियादी खामियों को दर्शाता है.
वे पार्टी के होल टाइमर थे और विधायक के तौर पर कोई पेंशन भी मिलती हो तो इसकी मुझे जानकारी नहीं थी. उनका रहन-सहन बहुत साधारण था और शहर में वे पैदल ही सब जगह जाते थे. बहुत कम ऐसा होता था कि वे रिक्शा करते हों. डायबिटीज के मरीज होने के कारण वे मीठा नहीं खाते थे और चाय फीकी पीते थे. उन्हें कभी मस्जिद जाते या रोजा रखते नहीं देखा था. होली, दिवाली और ईद पर वे सभी मिलने-जुलने वालों के यहां जाकर मुबारकबाद जरूर देते थे. अमरोहा पार्टी ब्रांच की कभी नियमित बैठक नहीं होती थी। सदस्यता का नवीनीकरण भी बहुत अनौपचारिक ढंग से हो जाता था। वे यह नहीं बताते थे कि हमारी लेवी कितनी हुई है और न सभी से लेवी लेते थे. सदस्यों की लेवी का हिसाब लगाकर जो लेवी दे सकते थे उनसे कुछ ज्यादा लेकर वे जो नहीं दे सकते थे, उनकी लेवी भी जमा करा देते थे. पार्टी के काम के लिए वे जिन सदस्यों की आर्थिक स्थिति बेहतर होती थी और शहर में जिन लोगों से उनके मित्रतापूर्ण संबंध थे, उनसे मांग लेते थे. इस तरह वे पार्टी का काम चलाते थे.
कॉमरेड शराफ़त पार्टी के हर मोर्चे और हर जन संगठन पर काम करते थे. आमतौर पर वे किसी के भरोसे नहीं रहते थे. किसान सभा के कुछ कार्यकर्ता थे वे काफी सक्रिय रहते थे. इनमें कॉ टीकाराम प्रभाकर भी थे जो जिला मुरादाबाद किसान सभा के अध्यक्ष थे। उनका रहन-सहन किसानों जैसा ही था. जाति के ब्राह्मण थे लेकिन निजी ज़िन्दगी में वे पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष थे. वे किसी तरह के भेदभाव या ऊँच-नीच में यकीन नहीं करते थे. वे बहुत पढ़े-लिखे नहीं थे लेकिन एक कम्युनिस्ट का जीवन जैसा होना चाहिए कमोबेश वैसा ही था. दलित या मुसलमान के घर में भोजन करने या ठहरने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता था. बहुत पहले ही शाकाहारी से मांसाहारी हो गये थे. 1980 के मुरादाबाद के दंगों के दौरान वे बिना किसी डर के उन बस्तियों में जो दंगे से प्रभावित थीं उनके बीच पहुंच कर उनकी मदद की कोशिश करते थे. अपने व्यक्तित्वांतरण का श्रेय वे मुख्य रूप से कॉ शराफ़त को देते थे. किसान सभा के ही दो जाट कामरेड और थे जो छोटे-बड़े आंदोलनों में हमेशा सक्रिय रहते थे. मैंने एक बार उनसे पूछा कि आप कैसे किसान सभा में आये तो उन्होंने एक दिलचस्प कहानी सुनायी. उन्होंने बताया कि वे शुगर मिल के मालिक की तरफ से किसानों और मजदूरों को हड़काने का काम करते थे. लोग हमसे डरते भी थे, एकबार कॉ शराफ़त ने शुगर मिल में काम करने वाले मजदूरों की हड़ताल करवा दी. कई दिन हड़ताल चली और टूटने का नाम नहीं ले रही थी. तब शुगर मिल के मैनेजमेंट की तरफ से हमें कहा गया कि कॉ शराफत को जाकर डरायें-धमकायें. हम अमरोहा में उनके घर पहुंच गये. लेकिन वे घर पर नहीं थे.  हम उनकी बीबी को धमका आये कि वे अपनी हरकतों से बाज आये नहीं तो उनके हाथ-पैर तोड़ देंगे. इस तरह धमकी देकर हम लौट आये. दूसरे दिन हम क्या देखते हैं कि कॉमरेड शराफ़त अकेले ही हमारे गाँव पहुंच गये और हमारा घर पूछते हुए हमारी दहलीज पर पहुंच गये. उन्हें अकेला देखकर हमें बड़ा आश्चर्य हुआ. हमें दूर-दूर तक कोई और आदमी भी नज़र नहीं आया. हम उनकी हिम्मत के कायल हो गये.  उन्होंने कहा कि कल आप लोग आये जब मैं घर पर था नहीं आज इधर से गुजर रहा था तो सोचा कि मिलता चलूं. फिर बिना पूछे घर में आ गये और चारपाई बिछाकर बैठ गये और बातें करने लगे. उन्होंने धमकी के बारे में कोई बात नहीं की. यह बताने लगे कि शुगर मिल के मजदूर क्यों हड़ताल कर रहे हैं, उनकी क्या मांगे हैं. शुगर मिल किस तरह किसानों का शोषण करती है, गन्ने की कीमत कम देना, समय पर भुगतान नहीं करना सब बताने लगे. धीरे-धीरे और लोग भी इकट्ठा हो गये. तकरीबन घंटे भर बात करने के बाद उन्होंने हमें किसान सभा की ओर से होने वाले एक प्रदर्शन में शामिल होने के लिए कहा और जरूर-जरूर आने का वचन लेकर जैसे आये थे वैसे ही चले गये. हम हक्का-बक्का थे.कुछ समझ नहीं आ रहा था कि हम क्या करें. जैसा उन्होंने कहा हम किसान सभा के प्रदर्शन में पहुंच गये.  यह पंद्रह-बीस साल पहले की बात है और तब से हम किसान सभा के साथ जुड़े हैं.
कॉ शराफत की सक्रियता गजब की थी. जब मैं शोध के लिए दिल्ली आया तब भी उनसे संपर्क बना रहा और 1984 में जब दिल्ली से वापस अमरोहा लौटा तब उनसे संपर्क और अधिक बढ़ गया. उस समय मैं भी पार्टी की जिला समिति का सदस्य बनाया गया था और उनके साथ मुरादाबाद में कॉ चंद्रपाल के घर पर होने वाली बैठकों में भाग लिया था. प्रत्येक साल दिवाली के बाद होने वाले गंगा मेले में भी उनके साथ गया था जहां पार्टी का कैंप लगता था. एक धार्मिक मेले में पार्टी कैंप लगाये जाने को मैं बहुत उचित नहीं मानता था. मैंने उनके सामने अपना एतराज जताया भी था. उनका कहना था, कॉमरेड इस मेले में किसान अपने परिवारों के साथ आते हैं. यह सही है कि यह धार्मिक मेला है लेकिन जो आते हैं वे तो किसान हैं. हम इस बहाने उनसे संपर्क कर सकते हैं. उन्हें अपनी बात कह सकते हैं, उनके बीच अपना साहित्य बांट सकते हैं. मैंने देखा कि यह सब किया जाता था, लेकिन ज्यादातर किसान पार्टी के कैंप का इस्तेमाल अपने रहने-सोने के लिए करते थे.
कॉ शराफत के लिए दो बार विधानसभा चुनावों के लिए काम भी किया था.एक बार तो गर्मी की छुट्टियों में जोधपुर गया हुआ था और उनके बुलावे पर जोधपुर से आया था. वे लोगों से संपर्क करने के लिए रात-दिन एक कर देते थे. मैंने उनके साथ भी और उनसे अलग भी उनके लिए प्रचार में भाग लिया था. मैंने देखा कि सभी उनकी प्रशंसा तो करते थे, उनके बारे में किसी को कुछ बताने की जरूरत नहीं पड़ती थी, फिर भी वोट अपेक्षा से काफी कम पड़ते थे. मुझे यह लगा कि मुसलमान भी उन्हें वोट नहीं देते.

ऐसा नेता जो मस्ज़िद जीते जी नही जाता था , जनाजे को मस्जिद में  नमाज ए जनाजा के लिए ले जाया गया :-

कई बार मुसलमानों से यह शिकायत भी सुनी कि शराफत मुसलमान थोड़े ही हैं, न नमाज पढ़ते हैं, न रोजा रखते हैं. कभी मस्जिद की सीढ़ियों पर पांव तक नहीं रखा. मैंने कॉ शराफत से एक बार कहा, कॉमरेड आप एक-दो बार मस्जिद चले जाइए क्या फर्क पड़ता है. इसी बहाने आपको वे मुसलमान मानने लगें तो आपको वोट तो देंगे. उन्होंने हंसकर कहा कि ये लोग जो आज इस बात की शिकायत करते हैं कि मैं नमाज नहीं पढ़ता, रोजा नहीं रखता, मस्जिद नहीं जाता, इसलिए मुसलमान नहीं हूं.  अगर यह सब मैं करने लगूं तो भी ये मुझे वोट नहीं देंगे, तब ये कहेंगे कि ये कैसा कम्युनिस्ट है, जो वोट के लिए नमाज भी पढ़ता है, रोजा भी रखता है. ऐसे मौकापरस्त को कौन वोट दे, आखिर में उन्होंने कहा, यह सही है कि वे कम्युनिस्टों को आसानी से वोट नहीं देते लेकिन वे यह जानते हैं कि कम्युनिस्टों को कैसा आचरण करना चाहिए. हम अगर उससे उलट आचरण करेंगे, तो वे हमारा आदर करना भी छोड़ देंगे.
मैंने देखा कि उनकी बात सही थी. 1984-85 के विधानसभा चुनाव में उन्हें वोट तो बहुत कम मिले, उनकी जमानत भी जब्त हो गयी थी और बहुत अधिक भाग-दौड़ के कारण उनकी तबीयत भी बहुत खराब हो गयी थी और आखिरकार कुछ दिनों बाद उनका इंतकाल हो गया था. लेकिन उनकी अंतिम यात्रा जो अमरोहा के सदर बाज़ार से होकर निकली थी, उसमें हजारों हजार लोग शामिल हुए थे. अमरोहा के इतिहास में ऐसी विशाल अंतिम यात्रा किसी की नहीं निकली थी. विडंबना यह भी थी कि जीते जी वे मस्जिद की सीढ़ियों पर भले ही न चढ़े हों लेकिन उनके जनाजे को रास्ते में एक मस्जिद की सीढ़ियों पर रख कर इमाम द्वारा नमाजे जनाजा पढ़ी गयी.

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