कैसे हो कामरेड?

आज तुम्हारा जन्मदिन है,सबसे पहले तो तुम्हें शुभकामनाएं दे देती हूँ. मैंने तुम्हारा लेख “मैं नास्तिक क्यों हूँ?उस दौरान पढ़ा था जब मैं छात्र थी. पिता से तुम्हारे कामों के किस्से गर्मियों की रातों में छत पर बैठकर खूब सुने. पिता चाहते थे कि हम भाई-बहन तुम्हारी तरह ही निडर बनें. तुम्हारी वतनपरस्ती को समझें,उन बातों पर विचार करें जो तुमने देश और देशवासियों के लिए कहीं.
तुमने ही लिखा था ‘निरा विश्वास और अंधविश्वास खतरनाक है. यह मस्तिष्क को मूढ़ और मनुष्य को प्रतिक्रियावादी बना देता है. जो मनुष्य यथार्थवादी होने का दावा करता है उसे समस्त प्राचीन विश्वासों को चुनौती देनी होगी’.
दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फ़त
मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए वतन आएगी
.
कामरेड,तुम्हारे मन से डर तो बचपन में ही भाग गया था, खेतों में बंदूक उगाने के बारे में सोचा ताकि अंग्रेजों से लड़ सको. गदर आंदोलन ने तुम्हारे दिलों-दिमाग पर गहरा असर छोड़ा, करतार सिंह सराभा जिन्हें 19 वर्ष की उम्र में फांसी दे दी गई थी , तुम्हारे नायक थे और फिर जलियाँवाला बाग में हुआ नरसंहार जो तुम्हें अमृतसर तक ले गया.
कामरेड क्या शहीदों के खून से रंगी उस मिट्टी को तुमने तब चूमा था और अपने साथ ले आए? तभी तो जज़्बात यूँ निकले-
“इस कदर वाकिफ़ है मेरी कलम मेरे जज़्बातों से,
मैं इश्क भी लिखना चाहूँ तो इंकलाब लिखा जाता है.”
अरे हाँ ! पिता सरदार किशन सिंह और चाचा सरदार अजीत सिंह दोनों ही स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी थे,गांधीवादी विचारधारा का समर्थन करने के लिए जाने जाते थे. इसका मतलब देश के प्रति निष्ठा और अंग्रेजों से मुक्त करने की इच्छा तुम्हारे अंदर जन्मजात थी.
कई लोग कहते हैं कि तुम गांधी विरोधी थे? मैं ऐसा नहीं मानती. गांधी जी के असहयोग आंदोलन को रद्द करने के कारण थोड़ा रोष उत्पन्न हुआ,पर पूरे राष्ट्र की तरह उनका सम्मान करते थे.
देशभक्ति तुम्हारी रगों में खून की तरह दौड़ रही थी. 16 साल के होते-होते तुम सोचने लगे , हम इतने सारे भारतीय इन मुट्ठी भर अंग्रेजों को भगा क्यों नहीं सके? क्रांतिकारी समूहों की ,विचारों की तलाश में सुखदेव और राजगुरु से दोस्ती की, चंद्रशेखर आज़ाद की मदद से हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (HSRA) बनाई. राजगुरु के साथ मिलकर 17 दिसंबर 1928 को लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक रहे अंग्रेज़ अधिकारी जे॰पी॰सांडर्स को मारा था,मदद तो चन्द्रशेखर आज़ाद ने भी भरपूर की थी. अंग्रेज़ सरकार को नींद से जगाने के लिए 8 अप्रैल 1929 को ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेंट्रल असेंबली के सभागार में बम और पर्चे वहाँ फेंके थे ऐसी  जगह पर जहाँ  कोई बैठा नहीं था. चाहते तो तुम भाग जाते कामरेड,पर तुम्हें दंड स्वीकार था चाहे वह फिर फाँसी ही क्यों ना हो. जेल हुई तुम दो साल रहे और तभी तुमने वो लेख लिखा-मैं नास्तिक क्यों हूँ?
जेल में 64 दिनों तक भूख हड़ताल की. 26 अगस्त, 1930 को अदालत ने विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 और 6 एफ तथा आईपीसी की धारा 120 के अंतर्गत अपराधी सिद्ध किया. 7 अक्तूबर, 1930 को  अंग्रेजो  की   अदालत के द्वारा 68 पृष्ठों का निर्णय दिया गया, जिसमें भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई. फांसी की सजा सुनाए जाने के साथ ही लाहौर में धारा 144 लगा दी गई.
तुम्हारी फांसी की सज़ा माफ़ करवाने हेतु महात्मा गांधी ने 17 फरवरी 1931 को वायसराय से बात की , फिर 18 फरवरी, 1931 को आम जनता की ओर से भी वायसराय के सामने विभिन्न तर्को के साथ सजा माफी के लिए अपील दायर की गई, पर ये सब कुछ तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध हो रहा था. 
राजगुरु और सुखदेव से दोस्ती तो 23 मार्च 1931 तक कायम रही , जब मात्र 23 वर्ष की आयु में………..पर ये बात आज नहीं कामरेड, बस आज इतना ही. तुम्हारा जन्मदिन है आज और हम सभी तुम्हें याद कर रहे हैं.
पत्र की समाप्ति बस इसी के साथ-
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ूए कातिल में हैं.

पत्र की लेखिका ऋचा– साक्षरता तथा शिक्षा के जनवादी और समतावादी आंदोलन से जुड़ी, रचनाकार तथा अध्यापिका रही हैं अभी स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार लाने के कार्यो से जुड़ी हैं.

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