ठेका एचएएल से छीनकर अनुभवहीन रिलायंस समूह को क्यों ?

नईदिल्ली. शनिवार को अपनी आक्रामक प्रेस कांफ्रेंस में रविशंकर प्रसाद ने यह भी कहा कि राहुल गांधी नेशनल हेरल्ड केस में अपनी मां के साथ चार्जशीटेड हैं. लेकिन दुर्भाग्य से उनके इस धमाके पर भी देश में कोई हलचल नहीं पैदा हो रही. क्योंकि यह बात भी देश के तमाम लोगों को सालों से पता है कि सुब्रमण्यम स्वामी किसी मिशन की तरह पिछले कई सालों से यह केस उछाले हुए हैं.

सवाल है रविशंकर प्रसाद को यह सब नये सिरे से देश को क्यों बताना पड़ रहा है? क्या वह बताने के बहाने कोई धमकी दे रहे हैं ? क्योंकि राहुल ने कभी कोई बयान देकर नहीं कहा कि मुझ पर नेशनल हेराल्ड से संबंधित कोई केस नहीं चल रहा.दरअसल राहुल गांधी पर सालों से लगे इन तमाम आरोपों को अगर इस समय चीख चीखकर दोहराया जा रहा है या नये सिरे से देश को याद दिलाया जा रहा है तो इसलिए कि वह डर जाएं और राफेल डील के संबंध में प्रधानमंत्री से सीधे और सपाट स्वर में सवाल पूछना बंद कर दें.

चाहे रविशंकर प्रसाद की आक्रामकता हो या वित्तमंत्री अरुण जेटली की ढेर कर देने वाली वाकपटुता. राफेल डील में हुए कथित भ्रष्टाचार को लेकर राहुल गांधी के सीधे सपाट सवालों के सामने इन दोनों काबीना मंत्रियों की ये तमाम खूबियां बेकार साबित हो रही हैं. इन दोनों के ही नहीं सच तो यह है कि समूची भाजपा के सामूहिक प्रयासों के बावजूद आम लोगों तक पहुंचता यह संदेश नहीं रुक रहा कि राफेल डील की दाल में कुछ तो काला जरूर है. शायद इसीलिये तिलमिलाकर क़ानून मंत्री ने प्रेस कांफ्रेंस में कहते हैं कि राहुल ‘नाक़ाबिल नेता’ हैं.

मगर उन्हें सोचना चाहिए कि राहुल के संबंध में यह कौन सी नयी बात है या कोई खुलासा.क्योंकि भाजपा नेता तो हमेशा से राहुल को एक नाकाबिल नेता कहते रहे हैं. कम से कम पिछले एक दशक से तो देश यही सुन रहा है. फिर रविशंकर बाबू को अचानक नए सिरे से यह सब कहने की जरुरत भला क्यों पड़ रही है ? क्या इसकी वजह प्रधानमंत्री पर भ्रष्टाचार के राहुल द्वारा सीधे लगाए गए आरोपों से पैदा हुई तिलमिलाहट है?

जिस समय देश ही नहीं पूरी दुनिया को लड़ाकू विमान की खरीद के इस मुद्दे ने हिला रखा हो उस समय प्रेस कांफ्रेंस करके देश के लोगों को क़ानून मंत्री द्वारा यह बताया जाना कि राहुल गांधी के बहनोई जमीन घोटाला के आरोपी हैं, आखिर क्या साबित करता है. क्या देश के लोगों के लिए यह कोई चौंकाने वाला खुलासा है? पिछले कई सालों से देश इसे न केवल सुनता रहा है बल्कि उसे तो मौजूदा सरकार के तमाम मंत्रियों का यह दावा तक याद है कि हमारे सत्ता में आने के बाद राबर्ट वाड्रा की जगह जेल में होगी. लेकिन जेल तो दूर आज तक एक साधारण पुलिस वाले तक ने उनसे किसी प्रकार तक की पूछताछ नहीं की है. सवाल है फिर लगभग दांत पीसने वाले अंदाज़ में रविशंकर प्रसाद इन सब बातों को क्यों दुहरा रहे हैं ?

सिर्फ रविशंकर प्रसाद ही नहीं वित्तमंत्री अरुण जेटली तक आनन-फानन में दिए गए एक इंटरव्यू में कहते हैं, ‘पब्लिक डिसकोर्स लाफ्टर चैलेंज नहीं है कि कभी आप किसी को गले लगा लो, कभी आंख मारो और फिर 10 बार गलत बयान देते रहो. लोकतंत्र में प्रहार होते हैं लेकिन शब्दावली ऐसी हो जिसमें बुद्धि दिखाई दे.’ वित्तमंत्री से पूछा जाना चाहिए क्या फ़्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद भी लाफ्टर चैलेंज में हिस्सेदारी कर रहे हैं जो मोदी सरकार द्वारा सवाल उठाये जाने पर अपने पुराने आरोप को भारत के एनडीटीवी से बात करते हुए दुहराया है कि अनिल अंबानी के रिलायंस समूह को भारत सरकार के कहने पर ही  चुना गया.

ओलांद के दफ्तर की तरफ से एनडीटीवी को फ्रांस में दी गई सूचना में साफ किया गया है कि ऑफसेट पार्टनर के तौर पर रिलायंस को लेकर हमारे पास कोई विकल्प नहीं था. यह भी साफ़ तौर पर कहा गया है कि  भारत सरकार ने ऑफसेट पार्टनर के तौर पर रिलायंस का नाम सुझाया था.

यही नहीं वित्तमंत्री ने ओलांद को जिस तथाकथित गुटरगूं में घसीटने की कोशिश की है, फ्रांस्वा ओलांद ने उसे भी साफ़ तौर पर खारिज किया कि रिलायंस ने उन्हें कोई फायदा पहुंचाया. उन्होंने कहा कि राफेल की निर्माता कंपनी डसॉल्ट एविएशन ने फ्रांस सरकार से बात किए बगैर रिलायंस को पार्टनर चुना.भारत सरकार द्वारा रिलायंस को शामिल करने को लेकर दबाव बनाने के आरोप पर डसॉल्ट ही जवाबदेह है. इस पूरे घटनाक्रम में एक चौंकाने वाला यह तथ्य भी अब सामने आया है कि यूपीए सरकार जब पहली बार फ्रांस की कंपनी डसाल्ट एविएशन से राफेल विमानों की खरीद को लेकर बातचीत कर रही थी तभी हिन्दुस्तान एयरोनोटिक्स लिमिटेड और डसाल्ट के बीच भारत में इन जंगी विमानों के उत्पादन को लेकर ‘गंभीर मतभेद’ थे. इस मतभेद को किसी भी समझदार व्यक्ति के लिए समझना मुश्किल नहीं है.

दरअसल डसाल्ट की जगह दुनिया की कोई भी कम्पनी होती तो वह यही चाहती कि एचएएल बीच से हट जाए क्योंकि एचएएल को लेकर किसी को भी डर लगेगा कि वह विमान बनाने की तकनीक जान जायेगी क्योंकि उसे दशकों से विमान बनाने का अनुभव है,जबकि अनिल अंबानी की रिलायंस डिफेंस को विमान तो छोडिये मोटर साइकिल बनाने का भी अनुभव नहीं है तो कोई भी कंपनी ऐसा ही अनुभवहीन पार्टनर चाहेगा.

फ्रांस्वां ओलांद ने फ्रांस की मीडिया को दिए गए अपने इंटरव्यू में साफ़ कहा था कि कि 36 जहाज़ खरीदने के सौदे की शर्त यह थी कि 30 हज़ार करोड़ का ठेका एचएएल से छीनकर रिलायंस समूह यानी अनिल अंबानी जी को दिया जाएगा.उनके कार्यालय ने नये सिरे से कहा है कि वह अपने बयान पर क़ायम हैं. दरअसल ओलांद ने जो कहा था वह यह था कि विमान बनाने के लिए हुए 58 हज़ार करोड़ रुपये के समझौते के लिए रिलायंस डिफ़ेंस का नाम भारत सरकार ने ही सुझाया था और इसमें फ़्रांस का कोई दख़ल नहीं था.

अब भारत सरकार यह कहती है कि फ़्रांसीसी कंपनी डसाल्ट एविएशन ने ख़ुद ही अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस डिफ़ेंस को चुना था. वास्तव में फ्रांस की कम्पनी डसाल्ट को ऐसी सहयोगी चाहिए थी जिसके पास राफेल से जुड़े सैनिक साजो सामान बनाने का कोई अनुभव न हो, सवाल है क्या क्या ऐसा मनचाहा पार्टनर बिना कुछ खर्च किये या बिना किसी प्रभाव के पाया जा सकता था क्या ? इसलिए राहुल गांधी अगर चीख चीखकर यह कह रहे हैं कि नरेंद्र मोदी जी ने 30 हज़ार करोड़ रुपये का प्रॉजेक्ट स्वयं अनिल अंबानी जी को दिया तो मोदी सरकार के तमाम आक्रामक मंत्रियों को इस सीक्वेंस की सही से काट नहीं मिल रही.यही वजह है कि मौका कुछ और है और रविशंकर से लेकर जेटली तक राग कुछ और छेड़ रहे हैं. देशभक्ति के नजरिये से होना तो यह चाहिए था कि फ्रांस सरकार या डसाल्ट के न चाहने के बावजूद भारत सरकार को दबाव डालना चाहिए था कि पार्टनर एचएएल ही रहेगी ताकि देश को जल्द से जल्द राफेल की तकनीक का पता चले. लेकिन हैरान करने वाली बात यह है कि हमारी रक्षा मंत्री से लेकर वित्तमंत्री तक यह साबित करने पर तुले हैं कि एचएएल इसके काबिल नहीं था और साथ में यह भी कह रहे हैं कि डसाल्ट खुद उसे नहीं चाहती थी. सच है डसाल्ट खुद उसे भला क्यों चाहेगी ? उसे तो तकनीक लीक होने का डर था. मगर भारत सरकार ने ऐसा क्यों नहीं चाहा?

 

 

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