मतगणना के पहले सरकार बनने का अंदाजा क्या होगा

रायपुर .
सत्ता का अपना चरित्र होता है , जो सत्तारूढ़ दलों , व्यक्तियों में धीरे धीरे एक तरह से ही आ जाता है . सत्ता से जुडी इन बुराइयों से कुछ समय , कुछ साल ही लोग बच पाते हैं , फिर ये बुराइयाँ उन्हें घेर ही लेती हैं फिर पार्टियों और व्यक्तियों का पतन स्वाभाविक है . दो दशक पहले राष्ट्रीय स्तर पर ये पतन सारे देश ने कांग्रेस में देखा अब तीन दशक के अपने उन्नयन के बाद भाजपा इस पतन को देखने के लिए मजबूर है . गुटबाजी के तमाम उदाहरण , स्थानीय स्तर के लाभ हानि के समीकरण , बड़े नेताओं की अपने अपने विश्वस्त चेले –चपाटियों को लगातार बरसों से इस्तेमाल करके फेंक देने के उदहारण, शासकीय ठेके, आबंटन और भ्रष्टाचार की भागीदारी में असमान बंटवारा से उपजे असंतोष ने सारे प्रदेश में लगभग वैसी ही स्थिति निर्मित कर दी है ,जो दो दशक पहले कांग्रेस के पतन का कारण बनी थी .
हर बार चुनाव के करीब आते आते कार्यकर्ताओं और क्षेत्रीय क्षत्रपों की अपेक्षाएं और असंतोष बढ़ने लगता है , यह व्यक्तियों खेमों के प्रति बदलती निष्ठाओं के साथ पार्टी और सरकार के प्रति नाराजगी में बदलना स्वाभाविक है क्योकि ऐसी स्थिति में अपने क्षेत्र की जनता की शिकायतों और विकास सम्बन्धी अपेक्षाओं को पूरा नहीं करवा पाने की खिजलाहट से ऐसे कार्यकर्त्ता , पार्टी सदस्य संगठन और बड़े नेताओं के प्रति आस्था और विश्वास नहीं रख पा रहे थे , इस मौजूदा अंतर्द्वंद और अंतर्विरोध की आग में घी डालने का काम पार्टी के केन्द्रीय स्तर से जारी खबरें कर रही थीं जिसमें जिसमें मौजूदा विधायकों में से 15-20 की टिकिट काटने और 7– 8 मंत्रियों की टिकिटों पर संकट की बात कही गयी थी , ऐसे में वे मंत्री और विधायक अपने समर्थकों के साथ न केवल धन समेटने के एकमेव लक्ष्य के साथ अपनी तैयारियों में जुट गए , बल्कि ये तैयारियां बसपा , जनता कांग्रेस या निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में संभावना तलाशने तक ही सीमित नहीं है . यह सत्ता में हर कीमत में बने रहने की उसी अदम्य जिद का प्रस्फुटन है जो भाजपा ने खुद गोवा ,काश्मीर और त्रिपुरा के चुनावों के बाद विपरीत विचारधारा के दलों के साथ मिल कर सरकार बनाने में दिखाया था .
टिकिट वितरण के अंतिम समय तक प्रदेश के राजनैतिक दलों में से भाजपा को इस बार कई किस्से कहानियां , सीडी कांड और खुलासे देखना पड़ा . उच्च स्तर से संगठन , पार्टी और मुखिया के चेहरे में बदलाव के आसन्न संकट तो हैं ही.
पार्टी के लिए दो दशक से संकट मोचक झुण्ड के बिखराव को अपनी प्रभावशाली उपस्थिति एवं हांक से नियंत्रित कर संगठित करने वाले भाई साहब की छवि भी पिछले कुछ वर्ष से पहले की तरह मजबूत और प्रभावशाली नहीं रह गयी है , अपने भेदभाव पूर्ण एक तरफ़ा फैसलों के चलते पार्टी में सार्वजनिक तौर पर उन्हें कई बार भरी सभा में कटु आलोचनाएँ भी झेलनी पड़ी हैं.ऐसे में विधायक मंत्रियों की टिकिट काटने और प्रदेश के मुखिया को चुनाव के बाद बदलने की सुगबुगाहट से भगदड़ मचना स्वाभाविक है .
विभिन्न विभागों में रिश्तेदारों और लेनदेन करके की गयी नियुक्तियों के खुलासों की शुरुआत भी हो चुकी है , जिससे चूलें हिलने के साथ साथ अब तक चलाई गयी नीति “ बांटो और राज करो “ के बावजूद “स्थानीय विरुद्ध बाहरी “ के मुद्दे भी प्रखरता से उभार कर सामने आने लगे हैं.
विचारधारा और देशभक्ति के नाम पर सालों साल निस्वार्थ निष्ठा से सेवाएं देते आ रहे निचले स्तर के कार्यकर्त्ता अब इंटरनेट युग में अब जनता से आने वाले सवालों और सूचनाओं से बैचेन हैं जिनका जवाब देने में भी वे स्वयं को असक्षम पा रहे हैं , और अपने राष्ट्रीय स्तर के पुराने बड़े नेताओं की दुर्गति देख देख कर मौजूदा चेहरों पर बनाया गया उनका विश्वास और श्रद्धा डगमगाने लगा है ऐसे में संघ के दरवाजे से भी संतुष्टिकारक उत्तर नहीं मिलाने के कारण उनमे बैचेनी और अकुलाहट रही .
ये बैचेनी भारी पड़ सकती
ये बैचेनी भारी पड़ सकती है और चुनाव होने और परिणाम आने तक इसे सम्हाले रखने की जिम्मेदारी उठाने वाले सहयोगी विश्वस्त मिडिया और पी आर टीम की है , जिसे वैसे तो वरिष्ठतम खांटी बुजुर्ग संपादकों का निरंतर मार्गदर्शन प्राप्त है किन्तु यहाँ पर भी संकट इन संपादकों का जुडाव खंडित होने की सूचनाओं से है . प्रशासन और संकुल स्तर तक बनाये गए मिडिया संवाददाताओं की सूचनाओं के भरोसे किसी तरह सारी गतिविधियों पर निगाह राखी जा रही है किन्तु यहाँ समस्या इनसे प्राप्त सूचनाओं के आधार पर तत्काल रणनीति बदल कर नए निर्णय लेने में राज्य पार्टी और केंद्र की तत्परता का भी है जिसके कारण किसानों के एकजुटता और ऋण माफ़ी , उपज के दाम बढ़ाने के मुद्दे पर सही समय पर बड़ा फैसला नहीं ले पाने के कारण सरकार खतरे में पड़ गयी प्रतीत हो रही है .
कुल मिलाकर भाजपा की ओर से दिन प्रतिदिन स्थितियां तनावपूर्ण और विस्फोटक होती दिखाई दे रही हैं , ऐसे में Evm के चमत्कार की ही कुछ उम्मीदें हैं . कुल मिला कर 15 सालों से लगातार सत्ता की मलाई खाने वालों के कारण पार्टी का सांगठनिक ढांचा पूरी तरह अधिकारी-कर्मचारियों की सेवाओं पर आधारित हो गया, जिसका खामियाजा रमन सरकार को भुगतना पड़ सकता है .
दूसरी ओर प्रमुख विपक्ष के रूप में मौजूद कांग्रेस के अपने संकट कम नहीं हैं . हालाँकि राहुल गाँधी के अध्यक्ष बनने के बाद पुनिया , दिनेश उरांव की जोड़ी के सघन दौरों ने प्रदेश के बड़े कहे जाने वाले नेताओं की पहुंच और प्रभाव का अच्छी तरह आंकलन किया , नेतृत्व को अभय और स्थिरता देने के राहुल के फैसले ने जोगी संकट से दो दशकों से जूझ रही कांग्रेस को कुछ एकजुट होने और मजबूत होने का अवसर भी प्रदान किया , फिर भी जितनी तीखी लड़ाई भूपेश लड़ना चाहते थे उसमे कुछ उनकी कमी और कुछ साथी नेताओं का कम उत्साह कांग्रेस मजबूत विपक्ष के रूप में अपना दावा उतनी सक्षमता से नहीं रख पाई जो अपेक्षित था . कहना न होगा कि पिछले पखवाड़े में दिल्ली से आये प्रशांत भूषण के प्रश्न के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार रमेश नैयर का जवाब बिलकुल उपयुक्त होगा कि – “ प्रदेश की जनता तो बदलाव ही चाहती है किन्तु उस बदलाव के दायित्व को वहन करने के लिए खुद कांग्रेस उतनी तैयार नहीं दिखाई देती .”
हालाँकि प्रदेश के किसानों ने पार्टियों के खेमेबाजी से मुक्त हो कर ऋण माफ़ी और उपज के समर्थन मूल्य बढ़ाने , खरीदी की व्यवस्था को सुदृढ़ करने के मुद्दे पर जो संकेत बदलाव के दिए हैं वह स्पष्ट हैं. छत्तीसगढ़ के उत्तर से ले कर सुदूर दक्षिण तक और पूरब से ले कर पश्चिम तक फसलें खरीदी केन्द्रों तक बहुत कम मात्रा में पहुंची हैं. धान की खरीदी लगभग कुल तीन माह तक होती है पहले एक माह में सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि मुश्किल से 20 प्रतिशत ही हो सकी है जबकि अन्य वर्षों में ये आंकड़ा 35 प्रतिशत तक जाता था .
यानी बहुत ज्यादा संभावना बदलाव का है जिसमें जीतने और सरकार बनाने की क्षमता के कारण कांग्रेस को कम मेहनत से मुकुट प्राप्त होने की आशा प्रबल है और जनता कांग्रेस , बसपा , सी पी आई को कुल 5 सीटे मिलने की संभावना जिलों से प्राप्त सूचनाये बता रही हैं.
आज चुनाव परिणाम में हम सारे संशयो को पार कर यथार्थ से मुखातिब होंगे .
पी सी रथ

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here