भारत पाकिस्तान के बीच युद्ध के जज़्बाती नारे लगाने वाले लोगों की आँखें खोलने के लिए ज़रूरी बातें। अगर परमाणु युद्ध हुआ तो क्या होगा?

परवेज़ आलम 📲9219727171
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महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने एक बार कहा था कि मैं नहीं जानता कि तीसरा विश्वयुद्ध किन हथियारों के दम पर लड़ा जाएगा, लेकिन अगर तीसरा विश्वयुद्ध होता है तो चौथा विश्वयुद्ध कुल्हाड़ी और डंडों की मदद से लड़ा जाएगा। आइंस्टीन का आशय यह था कि अगर तीसरा विश्व युद्ध हुआ तो विकसित सभ्यता का अन्त हो जाएगा और दुनिया क़बीलाई युग में लौट आएगी।
बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में जब आइंस्टीन सापेक्षतावाद अर्थात जनरल थ्यरी ऑव रिलेटिविटी का पेपर लिख रहे थे तो वह नहीं जानते थे कि इस पेपर के शब्दों से निकला आधे इंच का जादुई समीकरण E=mc2 इंसानियत को तबाही के ऐसे हथियार थमा देगा, जिनके दम पर इंसान अपना और पृथ्वी का वजूद नेस्तोनाबूद करने के कगार पर पहुँच जाएगा।
प्राचीन काल से इंसान की जिज्ञासा (curiosity) का चरमस्रोत यह रहा है कि हम आख़िर बने किस चीज़ से हैं?

*पञ्चतत्वों (five elements) से प्रोटॉन तक*

प्राचीनकाल में माना जाता था कि हम पञ्चतत्वों (पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु, आकाश) से मिलकर बने हैं। देखा जाए तो वायु अलग-अलग गैसों के अणुओं (molecules) का मिश्रण, जल, हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन के अणुओं का मिश्रण, पृथ्वी विभिन्न खनिजों (minerals), लावा, सिलिकेट आदि का मिश्रण तथा अग्नि मूलभूत कणों का एक अत्यन्त गर्म प्लाज़्मा सरीखा मिश्रण मात्र है, इसलिए इन चीज़ों को पदार्थ (matter) की मूल इकाई नहीं माना जा सकता।
1803 ईस्वी में जॉन डाल्टन द्वारा एटॉमिक थ्यरी प्रस्तावित किये जाने के बाद 1897 में जे.जे. थॉमसन द्वारा इलेक्ट्रॉन की खोज, 1911 में अर्नेस्ट रदरफोर्ड द्वारा प्रोटॉन की खोज तथा 1932 में चैडविक द्वारा न्यूट्रॉन की खोज के साथ परमाणु के मॉडल की स्थापना हो चुकी थी।
तब नई स्थापना यह थी कि पदार्थ परमाणु (atom) नामक कणों से मिलकर बना होता है, जिसमें प्रोटॉन तथा न्यूट्रॉन केन्द्र में होते हैं तथा इलेक्ट्रॉन्स केन्द्र के चक्कर लगाते हैं। देखा जाए तो केमिस्ट्री मूलभूत रूप में एक नम्बर गेम मात्र है। अगर आप एक प्रोटॉन हैं तो आपका आपका नाम हाइड्रोजन है। अगर आप दो प्रोटॉन हैं तो हीलियम, तीन प्रोटॉन हैं तो लीथियम, आठ प्रोटॉन हैं तो ऑक्सीजन और 92 प्रोटॉन हैं तो आपका नाम यूरेनियम है। इलेक्ट्रॉन नेगेटिव चार्ज वाला होता है तो प्रोटॉन पॉज़िटिव चार्ज वाला होता है, लेकिन न्यूट्रॉन के इलेक्ट्रिकली न्यूट्रल होने के कारण न्यूट्रॉन की खोज एटॉमिक बम के निर्माण की पहली कुंजी थी।
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*नाभिकीय विखण्डन (Nuclear Fusion) का जादुई फ़ॉर्मूला*
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12 सितम्बर 1932 को न्यूट्रॉन की खोज के सिर्फ़ 7 महीने बाद हंगरी में पैदा हुए वैज्ञानिक लियो जिलार्ड ने प्रस्तावित किया कि अत्यधिक तेज़ गति के साथ अगर परमाणुओं पर इस नए खोज किये गए कण (particle) की बमबारी की जाए तो चार्ज रहित होने के कारण प्रोटॉन इस कण को विकर्षित नहीं करेंगे। इस प्रकार न्यूट्रॉन परमाणु के केन्द्र से टकराकर, उसे तोड़कर, परमाणु को दो अन्य तत्वों के परमाणुओं में बदल देगा और प्रक्रिया में पैदा हुए दोनों परमाणुओं का द्रव्यमान (mass) मूल परमाणु के द्रव्यमान से कम होगा। चूँकि आइंस्टीन की समीकरण (equation) के अनुसार द्रव्यमान को विशुद्ध ऊर्जा (energy) में परिवर्तित किया जा सकता है, इस कारण इस प्रक्रिया में प्रचण्ड ऊर्जा उत्पन्न होगी जिसका उपयोग इंसानियत के हित (welfare) और विनाश (destruction) दोनों के लिए किया जा सकेगा।
आसान भाषा में, जब यूरेनियम 235 के केन्द्र पर एक न्यूट्रॉन का प्रहार किया जाता है तो न्यूट्रॉन के टकराने से यूरेनियम क्रमशः रूबिडियम तथा सीज़ियम नामक तत्वों में टूट जाता है और इस प्रक्रिया में यूरेनियम परमाणु से तीन न्यूट्रॉन भी रिलीज़ होते हैं, जो दूसरे परमाणुओं के केन्द्र पर प्रहार करते हैं और प्रक्रिया दोहराई जाती है। इस प्रक्रिया में केन्द्र के टूटने होने से केन्द्र को बाँधे रखने वाली स्ट्रोंग फ़ोर्स का निरन्तर क्षय (loss) होता है और सेकण्ड के एक ख़रबवे हिस्से में इस चेन रिएक्शन के नतीजे में प्रचण्ड ऊर्जा उत्पन्न होती है।
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*हिरोशिमा का ‘लिटिल बॉय’*
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6 अगस्त, 1945 को जापान के हिरोशिमा शहर पर अमरीका ने ‘लिटिल बॉय’ नाम का परमाणु बम गिराया। इस बम में मौजूद 64 किलोग्राम यूरेनियम का सिर्फ़ 2 प्रतिशत हिस्सा ही धमाके में इस्तेमाल हो पाया था और इस 2% बचे यूरेनियम के सिर्फ़ 0.7 ग्राम हिस्से में ही न्यूक्लियर फ्यूज़न की प्रक्रिया शुरू हो पाई थी। फिर भी, सिर्फ़ 0.7 ग्राम वज़नी यूरेनियम यानी सौ रुपये के नोट से भी हल्की सामग्री से पैदा हुई तबाही अगले ही क्षण हिरोशिमा में 90 हज़ार लाशें बिछाने के लिए काफ़ी था।
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*नागासाकी पर ‘फ़ैटमैन’ का निशाना*
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हिरोशिमा में पहला परमाणु बम गिराने के तीन दिन बाद, 9 अगस्त 1945 को अमरीका ने कैप्टन चार्ल्स स्वीनी को जापान के कोकुरा शहर में दूसरा परमाणु बम ‘फ़ैटमैन’ गिराने का आदेश दिया। सुबह अपने साथी हवाई जहाज़ के रास्ता भटक जाने की वजह से हवा में कई घण्टे से उड़ रहे चार्ल्स को अहसास हुआ कि अब उसके जहाज़ों में कोकुरा जाकर वापस आर्मी बेस तक पहुँचने लायक़ ईंधन नहीं है। इसलिए उसने बम को वैकल्पिक लक्ष्य (alternative target) नागासाकी पर गिराने का आदेश दिया और कुछ ही घण्टों में नागासाकी में 80 हज़ार ज़िन्दगियाँ मौत के दामन में समा गयीं। साल के आख़िर तक हिरोशिमा और नागासाकी में मरने वालों का सम्मिलित आँकड़ा 3 लाख 40 हज़ार को पार कर चुका था। जो बच गए थे उनकी पीढ़ियाँ अब तक रेडिएशन से पैदा असाध्य बीमारियों से पीड़ित हैं। ज़मीनें बंजर हो चुकी हैं।
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*रेडियोएक्टिव फॉलआउट के व्यापक ख़तरे*
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एक परमाणु बम कितना विध्वंस करेगा, यह कई चीज़ों पर निर्भर करता है। जैसे कि बम गिराते समय मौसम, बम गिराने की जगह और बम ज़मीन में फटेगा या आसमान में।
एक परमाणु बम की 35% ऊर्जा ऊष्मा (heat) के रूप में होती है। उदाहरण के लिए एक मेगाटन क्षमता वाले यानी हिरोशिमा में गिराए गए बम से 80 गुना शक्तिशाली परमाणु बम की बात की जाये तो *इस बम के विस्फोट से पैदा हुई चमक दिन में 21 किलोमीटर तथा रात में 85 किलोमीटर दूर तक मौजूद किसी भी इंसान को अन्धा कर देने के लिए काफ़ी होगी। बम विस्फोट की जगह से लगभग 10 किलोमीटर व्यास (diameter) वाले इलाके का तापमान लगभग 3 लाख डिग्री हो जाएगा, जो उस इलाके में मौजूद किसी भी ज़िन्दा इंसान के शरीर को मूलभूत कणों (base particles) में तोड़ने देने के लिए काफ़ी है। बम विस्फोट से पैदा शक्तिशाली आघात तरंगें (shock waves) सभी दिशाओं में दौड़कर उस इलाके में मौजूद सभी इमारतों को ज़मीदोज़ कर देंगी। आँकलन है कि एक मेगाटन क्षमता के बम विस्फोट में 6 किलोमीटर की परिधि में मौजूद सभी चीज़ें विस्फोट से उत्पन्न शॉक वेव्स की वजह से लगभग एक लाख अस्सी हज़ार किलोग्राम वज़न के नीचे पिस जाने का अनुभव करेंगी।*
विस्फोट से उत्पन्न शक्तिशाली गामा-अल्ट्रा वायलेट किरणें इंसानों के शरीर में मौजूद डी.एन.ए. को सीधे नुक़सान पहुँचाकर आने वाली नस्लों के असाध्य रोगों से पीड़ित होने की वजह बनती है।
जो इंसान इस विस्फोट में किसी तरह ज़िन्दा बच जाएंगे, उनकी चिन्ता की अगली वजह रेडियोएक्टिव फॉल-आउट होगा। एक मेगाटन बम विस्फोट से पैदा हुआ रेडियोएक्टिव फॉल-आउट लगभग 2 हफ़्ते तक बना रहेगा।
ये बात सिर्फ़ एक मेगाटन क्षमता वाले परमाणु बम की हो रही है। आज दुनिया में इससे भी लाखों गुना ज़्यादा क्षमता के परमाणु बम बनाये जा चुके हैं। सिर्फ़ अमरीका और रूस के पास सम्मिलित रूप से 15,000 से ज़्यादा परमाणु बम हैं। आज दुनिया की आधी से ज़्यादा जनसंख्या लगभग 4400 शहरों में रहती है। अमरीका और रूस चाहें तो दुनिया के हर बड़े शहर को तबाह कर सकते हैं, इसके बावजूद उनके पास 10,000 से ज़्यादा बमों का ज़खीरा बाक़ी रहेगा।
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*ख़ुशकिस्मती से वो हादसा टल गया*
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दुनिया आज परमाणु हथियारों के ढेर पर बैठी है। एक हल्की सी चिंगारी इस ढेर में आग लगाकर इंसानियत की तबाही की दास्तान लिखने के लिए काफ़ी है। घमण्ड, लालच और अहंकार में चूर दुनिया के हुक्मरानों के इस नशे की क़ीमत आख़िरकार किसे चुकानी होगी?
23 जनवरी, 1961 को 4 मेगाटन क्षमता के एक परमाणु बम को ले जाता एक अमरीकी विमान USB-62 अपना नियन्त्रण खोकर उत्तरी कैरोलाइना प्रान्त में हादसे का शिकार हो गया था और बम विस्फोट की प्रक्रिया अनियंत्रित होकर शुरू हो गयी थी। इत्तिफ़ाक़ से सिर्फ़ एक सेफ़्टी स्विच ऐसा था जो ऑन होने से बच गया था। ख़ुशकिस्मती से ये हादसा टल तो गया था लेकिन कहीं अगर ये विस्फोट हो गया होता तो यह तय है कि इससे उस दिन कैरोलाइना का इतिहास और भूगोल हमेशा के लिए बदल गया होता क्योंकि ये बम हिरोशिमा में गिराए गए बम से 260 गुना शक्तिशाली था!
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*इंसानियत का शीतकाल*
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अस्सी के दशक में अमरीका और रूस के बीच शीतयुद्ध की तनातनी के दौरान वैज्ञानिक कार्ल सैगन की अगुआई में वैज्ञानिकों के एक दल ने परमाणु युद्ध होने पर होने वाले नुक़सानों के आँकलन के लिए एक रिसर्च किया था। उनके मुताबिक़ असली ख़तरा परमाणु युद्ध नहीं बल्कि युद्ध के बाद की लम्बे वक़्त तक चलने वाली सर्दियाँ होंगी। *न्यूक्लियर विंटर!* मिसाल के लिए, अगर आज भारत और पाकिस्तान जैसे देशों के बीच परमाणु युद्ध होता है और हिरोशिमा जैसे 100 परमाणु बम अलग-अलग शहरों पर गिराए जाते हैं, तो दिन ढलने तक लगभग 2 करोड़ मौतों की संभावना है। 2 करोड़ हमारी पृथ्वी की जनसँख्या के मुक़ाबले में 1 प्रतिशत भी नहीं हैं, लेकिन बचे हुए 99 प्रतिशत इंसानों की ज़िन्दगी कुछ ख़ास बेहतर नहीं होगी। परमाणु युद्ध का सबसे संगीन नतीजा पृथ्वी के मौसम में बदलाव होगा। 100 छोटे परमाणु बमों के इस्तेमाल से लगभग 11 अरब पाउण्ड राख़ और धूल वातावरण में फैल जाएगी और यह राख़ सूरज की किरणों से गर्म होकर ऊपर उठती जाएगी और पृथ्वी के घूर्णन (rotation) की वजह से वातावरण में महीन चादर की शक्ल में फैलकर सूरज की किरणों के पृथ्वी पर पहुँचने के रास्ते को रोक देगी जिससे पृथ्वी के औसत तापमान (average temperature) में 1 से 2 डिग्री की गिरावट आ सकती है। एक डिग्री शायद सुनने में ज़्यादा न लगे लेकिन पृथ्वी के इकोलॉजिकल सिस्टम में ज़रा-सा बदलाव किस तरह की तबाही की वजह बन सकता है इसकी ज़िन्दा मिसाल इसी पृथ्वी पर तलाश की जा सकती है।
🌋मिसाल के तैर पर, 1815 में इण्डोनेशिया में बिना किसी पूर्व चेतावनी के तम्बूरा नाम के ज्वालामुखी (volcano) ने लावा उगलना शुरू कर दिया था। एक लाख लोगों की ज़िन्दगी को फ़ौरन ख़त्म करने के बाद ज्वालामुखी से लगभग 36 घन-मील राख़ और धूल के बादल पृथ्वी पर छा गए थे जिससे पृथ्वी का तापमान आधा डिग्री कम हो गया था। इस घटना का अगला साल यानी 1816 दुनिया के इतिहास में ‘गर्मी रहित साल’ के रूप में दर्ज है। तब आयरलैण्ड में महामारियों (epidemic) से 65 हज़ार लोग मारे गए थे। इंग्लैण्ड और दूसरे देशों में उस साल गर्मियाँ आयी ही नहीं। गर्मियों में भी लोगों की सुबह बर्फ़बारी से होती थी। फसलों का चक्र (cycle) तबाह होने से दुनिया में हाहाकार मच गया था। दुनिया भर में लाखों लोग मारे गए थे और ये सब तब हुआ जब पृथ्वी के तापमान में सिर्फ़ आधा डिग्री की गिरावट दर्ज की गई थी।

*ज़रा सोचिए*
युद्ध में इस्तेमाल परमाणु बमों से पैदा शॉक वेव्स और गर्मी की वजह से वातावरण में मौजूद नाइट्रोजन, ऑक्साइड का निर्माण करेगी जो हमारी ओज़ोन परत को गम्भीर नुक़सान पहुँचाती है। ओज़ोन परत के नुक़सान की वजह से अल्ट्रावायलेट किरणों और रेडियोएक्टिव फॉल-आउट से बचने के लिए पृथ्वी पर बचे इंसानों को कुछ साल ज़मीन के नीचे बंकरों में रहकर एक ज़िन्दगी बितानी होगी। दस साल में वातावरण में फैली राख़ और धूल के बादल साफ़ होने की उम्मीद है। तब इंसान एक बार फिर ज़मीन के ऊपर अपने आशियानों में वापस आ पाएंगे लेकिन तब तक 2 अरब लोगों की भुखमरी और महामारियों की वजह से मौत हो चुकी होगी। दुनिया की अर्थव्यवस्थाएं (economies) ठप हो चुकी होंगी और शासन प्रणालियां (governance systems) तबाह हो चुके होंगे। हर तरफ़ लूट और अनारकी का राज होगा। टूटी इमारतों के खण्डहर और हर तरफ़ इंसानी गोश्त के बिखरे लोथड़े हमें मुँह चिढ़ा रहे होंगे।
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*ग़लत हाथों में विज्ञान की चाबी*
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परमाणु बम की यह दास्तान लिखने के पीछे मेरा असल मक़सद यही है कि आम इंसानों यानी हम वैज्ञानिक नज़रिया पैदा कर पाएं। हमें ये समझना होगा कि जिस विज्ञान ने हमारे घरों को बिजली की ईजाद से रोशन किया है, मोबाइल, फ्रिज, सैटेलाइट वग़ैरह से ज़िन्दगी को आसान बनाया है, वही विज्ञान हमारे ख़ात्मे की इबारत लिखने में भी काफ़ी है। नाम-निहाद डेमोक्रेसी में हमारे हुक्मरान अगर वैज्ञानिक नज़रिये से चीज़ों को नहीं समझते और अपने फ़ैसलों के नतीजे नहीं समझेंगे तो तबाही को कोई नहीं रोक सकता। *अज्ञानता (ignorance) और सत्ता का मेल एक बड़ी तबाही की निर्माण-सामग्री होता है।* जैसे-जैसे एक सभ्यता तरक़्क़ी के पायदान पर क़दम बढ़ाती है, वैसे-वैसे वो परमाणु हथियारों की शक्ल में अपनी ख़ुदकुशी का सामान भी तैयार करती है।
विज्ञान ज़िन्दगी संवारता है और यही ज़िन्दगी का ख़ात्मा भी कर सकता है। एक माचिस की तीली अगर किसी घर का चूल्हा जलाती है तो उसी तीली के इस्तेमाल से किसी का घर भी जलाया जा सकता है।
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