23 दिनों से गर्मी, बरसात और पुलिस फायरिंग के बाद भी हजारों आदिवासियों का नए पुलिस कैम्प का शांतिपूर्ण विरोध

पढेलिखे आदिवासी युवाओं का आंदोलन में निडरता से शामिल होना और प्रखरता,स्पष्टता से अपनी बात रखना

नक्सल इलाकों के बुनियादी सवालों को उठाता वहीं का समाज जो अपने हितों को लेकर स्पष्ट है

(पी सी रथ)

रायपुर, सिलगेर, सुकमा और बीजापुर के दूरस्थ ग्रामीण इलाका जहाँ आदिवासी समुदाय विगत 12 मई 2021 से ग्राम सभा, पंचायत की अनुमति के बिना लगे नए पुलिस कैम्प के विरोध में जुटे हजारों ग्रामीणों पर पुलिस फायरिंग से 3 से अधिक युवाओं की मौत के कारण चर्चा में है। इस इलाके के आंदोलन रत युवाओं का कहना है कि विरोध करने वालों को डराने के लिये पुलिस पहले दिन से ही कई तरह के हथकंडे अपना रही है, लाठी चार्ज, फायरिंग भी उसी का हिस्सा है जिसमें 3 की मौत हुई और एक गर्भवती युवती की घटनास्थल में  भगदड़ में लगी चोट की वजह से बाद में घर पर मौत हो गयी, दर्जनों ग्रामीणों को चोटें भी आई हैं जबकि शुरू से समूचा आँदोलन शांतिपूर्ण , पोस्टर, मांगपत्र एवं नारेबाजी के माध्यम से ही संचालित किया जा रहा है, दूसरी ओर पुलिस के आला अधिकारी इसे बार बार नक्सल प्रायोजित आंदोलन बतला रहे हैं खुद आई जी बस्तर इसे नक्सलियों द्वारा भीड़ की आड़ में पुलिस पर हमले के दौरान पुलिस द्वारा जवाबी फायरिंग में 3 नक्सलियों की मौत का बयान दे चुके हैं।

सामान्यतः ऐसे विरोध और आंदोलन बस्तर में पुलिस कैम्प और पुलिस प्रताड़ना के खिलाफ सैकड़ों बार हो चुके हैं और कुछ दिनों में प्रशासन और स्थानीय स्तर पर निपटारा कर लिया जाता था, थके हुए ग्रामीण अपनी नियति मान कर खामोशी से अपने गांव, खेत लौट जाते थे किंतु इस बार विरोध के स्वर एक साथ दर्जनों गांवों से आये है और विपरीत परिस्थितियों में भी 7000 से 17000 तक आदिवासियों का विरोध प्रदर्शन विगत 23 दिनों से लगातार जारी है।

बीजापुर , सुकमा, दंतेवाड़ा, जगदलपुर के पत्रकार लगातार आंदोलन का जीवंत कव्हरेज कर रहे हैं, सोशल मीडिया पर आंदोलन के प्रतिभागियों की मांगे और दावे लगातार तैर रहे हैं, पुलिस के बयान और सत्ता पक्ष के नेताओं के बयान भी अब सुर बदलते दिख रहे है, इस स्थिति में मुझे एक नया परिवर्तन इस आंदोलन के माध्यम से इस बीहड़ इलाके के युवाओं में दिखाई दे रहा है। पहले पुलिस और नक्सल दोनों से घबराते ग्रामीण युवा आमतौर पर ऐसे विरोध प्रदर्शनों में सीधे सीधे बयान देने से परहेज करते थे इसबार पढ़े लिखे युवक युवती बिंदास अपने नाम, गांव  शिक्षा के परिचय के साथ मजबूती से अपनी बुनियादी मांगों को रख भी रहे हैं, पुलिस कैम्प से होने वाली विद्रूपताओं को उजागर भी कर रहे हैं।  मई – जून की तीखी गर्मी से ले कर प्री मानसून की बारिश में पॉलीथिन के टुकड़ों और ताड़ के पत्तो से अपना बचाव करते हुए कैम्प हटाने के लिए विरोध पर अड़े ये ग्रामीण अपना जंगल और संसाधनों के प्रति सतर्क दिखाई दे रहे है। सोशल मीडिया पर उपलब्ध कई वीडियो में मास्क के स्थान पर गमझे या दुपट्टे से अपना मुंह, नाक कव्हर किये 12 वी विज्ञान, बी एस सी या बी ए की पढ़ाई कर चुके सिलगेर इलाके के ये युवा बदलते बस्तर की एक अलग ही तस्वीर प्रस्तुत कर रहे हैं जो नक्सलियों और पुलिस दोनों के बिना अपनी वनआधारित जीवन शैली में अपना वर्तमान और भविष्य देखता है। पड़ोसी राज्यों में रोजगार के लिए विस्थापन का अनुभव और प्रदेश के शहरी इलाकों में शिक्षा के लिए जाने के अनुभवों से सुसज्जित ये युवा अपनी स्थानीय गोंडी भाषा बोली से अपने समाज को गहराई से समझते भी हैं। पुलिस के दबाव और शहरी निहित स्वार्थी तत्वों के उन इलाकों के संसाधनों पर नज़र को भी पहचानने वाले ये युवा सत्ता और प्रतिपक्ष से जुड़े आदिवासी नेताओ की हक़ीक़त से भी इस आंदोलन के चलते वाकिफ़ हो रहे हैं, उन्हें उन साधन विहीन युवा पत्रकारों की स्थिति भी समझ में आ रही है जो उन दुरूह इलाकों की सच्चाइयों को दुनिया के सामने रखने के लिए अपनी जान भी खतरे में डालते हैं, हफ़्तों तक आंदोलनरत ग्रामीणों के दुख दर्द को राज्य सरकार के मुखिया तक संवेदनशील तरीके से पहुंचाने वाले पत्रकार कमल शुक्ला , मुकेश चंद्राकर की निश्चित रूप से तारीफ करनी होगी जिन्होंने अपने पेशेगत जिम्मेदारियों का निर्वाह बढ़चढ़ कर किया और खुद के खराब स्वास्थ्य के बावजूद इस मुद्दे पर सरकार को जागृत करने और बातचीत के लिए फिर प्रतिनिधि मंडल भेजने पर राजी किया।  बेला भाटिया,( ज्यां द्रेज )यूकेश चंद्राकर, ज्ञानेंद्र तिवारी और भी कई पत्रकार साथी लगातार आंदोलनरत आदिवासियों का दर्द , वहां की परिस्थितियां सरकार और दुनिया के समक्ष रखते रहे, स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोढ़ी भी हमेशा की तरह हिम्मत से ग्रामीणों के बीच पहुंची, किसी भी तरह बाहर के लोगों , पत्रकारों को सिलगेर पहुंचने से रोकने के लिए हमेशा की तरह पुलिस प्रशासन सक्रिय रहा, सुकमा के  मनीष कुंजाम अपने सी पी आई के जत्थे के साथ अंदरूनी रास्तों से सिलगेर पहुंचे तो आम आदमी पार्टी के दो बार आये प्रतिनिधि मंडल को रोका गया। छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के सामाजिक कार्यकर्ताओं को गीदम में ही रोक दिया गया , समूचे इलाके को अचानक कंटेन्मेंट जोन में तब्दील करके कोरोना टेस्ट की अनिवार्यता प्रवेश के लिए लागू कर दी गयी।  प्रतिनिधि मंडल में शामिल बुद्धिजीवियों के विरोध को नजरअंदाज करके सरकार का इस मसले पर शुतुरमुर्गीय रवैया चकित कर रहा है । दूसरी ओर बस्तर के ही एक युवती का घर से परिजनों के समक्ष पुलिस द्वारा  देर रात्रि बलात अपहरण तथा दूसरे दिन उसे मुठभेड़ में मारी गयी महिला नक्सली के रूप में जिला मुख्यालय में प्रस्तुत किये जाने की घटना की परिजनों द्वारा लिखित नामजद शिकायत एवं प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कर न्याय दिलाने की प्रार्थना भी अब पुलिस की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े कर रही है। सवाल यह भी है कि आदिवासियों के भरपूर मतों के चुने गए कांग्रेसी विधायकों के रहते, विपक्षी भाजपा के सांसदों और विधायकों के लिए आदिवासी प्रताड़ना के इन बड़े मुद्दों के उठाने के अवसर के बाद भी वेे सिलगेर के इलाके के 20 से       अधिक गांवों के आदिवासियों की मांगों के प्रति खामोशी क्यो रखे हुुुए दिखाई दे रहे हैं ? बावजूद इसके कि आदिवासियों की मांगें सांविधानिक भी हैं और आंदोलन शांतिपूर्ण भी। अब एक नया रास्ता बस्तर के इन संघर्षरत किसानों ने दिखाया है जिसमे वे आंदोलन में बारी बारी से भागीदारी करके इस  कृषि के महत्वपूर्ण समय में खेत मे काम भी कर रहे हैं।  जाहिर है आंदोलन लंबा चल सकता है।

पी सी रथ

लेखक वरिष्ठ पत्रकार, इंडिया न्यूज रूम के संपादक तथा बस्तर मामलों के जानकार हैं ये उनका निजी विचार है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here