दिल्ली विवि के प्राध्यापक प्रो. अपूर्वानंद का आलेख

राहुल गांधी की सदस्यता जाना केवल उन्हीं के बारे में नहीं है…
भारत को बहुसंख्यकवादी राज्य में बदलने का सपना उनको
निष्प्रभावी किए बिना पूरा नहीं होगा. यही कारण है कि बीजेपी
RSS और सरकार उन पर पूरी ताक़त से हमला कर रही है…
– अपूर्वानंद (दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं.)
भारत के जनतंत्र के लिए राहुल गांधी की सजा और उनकी संसद सदस्यता रद्द करने के मायने गंभीर हैं. इसलिए यह संतोष की बात है कि इस गंभीरता समझते हुए तक़रीबन सारे राजनीतिक दलों ने इसकी आलोचना की है. राहुल गांधी से एकजुटता ज़ाहिर करने का यह मतलब नहीं निकाला जा सकता कि उन्हें सारे दलों ने अपना नेता मान लिया है. उससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि भारतीय जनतंत्र की सेहत के बारे में राहुल गांधी की राय अब आम राजनीतिक राय बनती दिख रही है. यह संतोष की बात है.

पहले राहुल गांधी की संसद सदस्यता रद्द करने के मामले पर बात कर लें. किसी सांसद को अगर 2 साल या उससे ऊपर की सजा हो तो क़ानूनी तौर पर उसकी सदस्यता समाप्त की जा सकती है.

भगत सिंह की शहादत के दिन गुजरात के सूरत की एक अदालत ने मानहानि के एक मामले में मानहानि के क़ानून के तहत उन्हें दोषी करार देते हुए दो साल की सजा सुनाई. यह पर्याप्त आधार था उनकी संसद सदस्यता समाप्त करने का. फुर्ती दिखलाते हुए लोकसभा के सचिवालय ने क़ानून का पालन किया और राहुल गांधी की सदस्यता ख़त्म करने का नोटिस जारी कर दिया.

क़ानून के जानकार राहुल गांधी को दी गई सजा पर हैरानी ज़ाहिर कर रहे हैं. 4 साल पहले एक चुनावी सभा में राहुल गांधी ने लाखों करोड़ों की हेराफेरी और ग़बन करके देश से फरार होने वाले अपराधियों का नाम लेते हुए और इनका रिश्ता नरेंद्र मोदी से जोड़ते हुए चुटकी ली थी कि इन सारे चोरों के नाम में मोदी क्यों है. इसे लेकर भारतीय जनता पार्टी के एक पूर्व विधायक ने गुजरात की एक अदालत में मानहानि का मुक़दमा दायर किया.

यह बात कम लोगों को पता है कि तक़रीबन एक साल पहले उसने गुजरात उच्च न्यायालय में अपने ही मुक़दमे को एक साल टालने की अर्ज़ी लगाई. यह बहुत अजीब बात थी क्योंकि आम तौर पर अभियुक्त मुक़दमा टालना चाहते हैं. लेकिन इस मामले में मुद्दई ही चाहता था कि सुनवाई टाली जाए. लेकिन हमें इस पर ताज्जुब नहीं करना चाहिए कि गुजरात उच्च न्यायालय ने यह विचित्र मांग स्वीकार कर ली.

अभी साल पूरा नहीं हुआ था कि मुद्दई फिर उच्च न्यायालय पहुंचा और मामले को जल्दी सुनने की मांग की. अदालत ने यह न पूछा कि आपने साल भर का स्थगन मांगा था, जल्दी क्यों. जैसे पिछली बार, वैसे ही इस बार भी उसने भाजपा नेता की बात मान ली.

क्या हमें इस पर आश्चर्य करना चाहिए कि सुनवाई इस साल की फरवरी में दोबारा शुरू हुई और इस बार न्यायाधीश बदल गए थे, यानी वे नहीं थे जिनके सामने तक़रीबन पूरी सुनवाई हो चुकी थी? क्या इस पर भी ताज्जुब होना चाहिए कि अदालत ने कोई एक महीने में ही पूरा मामला सुन लिया और फ़ैसला भी सुना दिया? हमने बहुत कम मामलों में इतनी कम अवधि में सुनवाई पूरी होते और फ़ैसला सुनाए जाते देखा है. लेकिन अब तो सब कुछ या कुछ भी मुमकिन है.

अगर इन सारे तथ्यों को छोड़ दें तो भी क़ानून के जानकार यह कह रहे हैं कि यह मामला कहीं से मानहानि का नहीं बनता है. इस मामले में कई फ़ैसलों में सर्वोच्च न्यायालय और दूसरी अदालतों ने साफ़ किया है कि मानहानि के मामले में यह तसल्ली होनी चाहिए कि शिकायत करने वाले की व्यक्तिगत मानहानि हुई है. फिर परिस्थिति पर भी विचार करने और इरादा देखने की अनिवार्यता भी है. यानी कसौटी बहुत सख़्त है.

इन सबको ध्यान ने रखने पर कहीं से भी राहुल गांधी का मज़ाक़िया बयान किसी एक व्यक्ति या समुदाय की मानहानि नहीं करता. अगर अदालत ने यह माना भी तो भी इस मामले में उसने अधिकतम सजा क्यों सुनाई?

समझने वाले जानते हैं कि दो साल से कम की सज़ा में राहुल गांधी की संसद की सदस्यता समाप्त नहीं की जा सकती थी. और आज भारतीय जनता पार्टी के लिए राहुल गांधी को संसद से बाहर करना सबसे बड़ी ज़रूरत है. उसके साथ जनता की निगाह में यह बतलाना भी कि इसमें उसका कोई हाथ नहीं, यह तो क़ानून की मजबूरी है. लेकिन इस फ़ैसले को बिना आज के संदर्भ में रखे समझा जा सकता.

राहुल गांधी को पिछले कुछ दिनों से भाजपा और सरकार के लोग लोकसभा में बोलने नहीं दे रहे थे. उन्होंने राहुल गांधी पर संसद में आरोप लगाया था कि उन्होंने लंदन में भारत के ख़िलाफ़ बात की, भारत की मानहानि की. उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष को लिखा कि न्याय का तक़ाज़ा है कि उन्हें इन आरोपों का उत्तर देने का मौक़ा दिया जाए. लेकिन यह नहीं किया गया.

फिर भी आख़िर कितने दिन राहुल गांधी को संसद बोलने से रोका जा सकता था? अगर मौक़ा मिलता तो वे उन बातों को दोहराते जो उन्होंने लंदन में कही थीं और जो पिछले कई वर्षों से बोल रहे हैं. कितने दिनों तक राहुल गांधी का माइक बंद किया जा सकता था?

राहुल गांधी क्या बोल रहे थे?
यह कि भारत में जनतंत्र मरणासन्न है. संसद पर शासक दल का क़ब्ज़ा है. भारतीय राज्य की सारी संस्थाएं अपना संवैधानिक दायित्व छोड़ भाजपा और सरकार की अपनी संस्थाओं के तौर पर काम कर रही हैं. चाहे चुनाव आयोग हो, या जांच एजेंसियां, सब विपक्ष और जनता के ख़िलाफ़ काम कर रही हैं. सरकार की जवाबदेही तय करने वाले मीडिया ने उसके प्रवक्ता के रूप में काम करना तय किया है. यही नहीं ,वह उत्साहपूर्वक विपक्ष और मुसलमानों को बदनाम करने, उन पर हमला करने के नए नए बहाने खोजता है. न्यायपालिका ने महत्त्वपूर्ण मामलों में सरकार का साथ दिया है और नागरिकों की आज़ादी की रक्षा की अपनी भूमिका नहीं निभाई है.

सरकार बनी तो है जनता के मत से लेकिन वह कुछ पूंजीपति घरानों को देश के सारे संसाधन हवाले कर रही है. ख़ासकर गौतम अडानी से नरेंद्र मोदी रिश्ते पर राहुल गांधी का बार-बार ज़ोर देना मोदी और भाजपा के लिए बहुत असुविधाजनक है. लेकिन उन सब मुक़ाबले कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है भारत को संवैधानिक तरीक़े से चलाने पर राहुल गांधी का इसरार.

राहुल गांधी ने सभ्यता, शालीनता, सौहार्द और संवाद को भारतीय राजनीति और जीवन के आधार के रूप में फिर से स्थापित करने के लिए भारत जोड़ो यात्रा की. किसी भी तरह चुनाव जीत लेने के मुक़ाबले अधिक महत्त्वपूर्ण है कुछ सामाजिक और इंसानी उसूलों को बहाल करना. इसलिए इस आलोचना को राहुल गांधी ने नज़रअंदाज़ किया कि चुनाव पर ध्यान नहीं दे रहे और यह बेकार की यात्रा कर रहे हैं जिसका कोई चुनावी लाभ नहीं मिलेगा.

भारत उसके करोड़ों लोगों के बीच अनवरत चलने वाला संवाद है, उनका आपस में तालमेल है. वह किसी एक समूह से परिभाषित नहीं होगा, उसकी संख्या कितनी भी क्यों न हो. यह बात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के बहुसंख्यकवादी नज़रिये से ठीक उलट है. आरएसएस और भाजपा इसलिए ग़लत नहीं हैं कि वे ख़ुद को हिंदुओं के हितू बताते हैं, बल्कि इसलिए कि हिंदुओं को शेष भारतीयों, यानी मुसलमानों और ईसाइयों से डराते रहते हैं और इस तरह उनमें एक स्थायी असुरक्षा भरते हैं और फिर ख़ुद को उनके रक्षक के रूप में पेश करते हैं.

वे हिंदुओं में इन समुदायों के प्रति द्वेष पैदा करते हैं. इस वजह से उनकी राजनीतिक भाषा भय, धमकी, हिंसा से भरी हुई है. यह आख़िरकार मुसलमान और ईसाई समुदाय को दूसरे दर्जे के नागरिकों के दर्जे में धकेलने की राजनीति है.

राहुल गांधी ने पिछले वर्षों में इस हिंसक राजनीति के विरुद्ध एक सौम्य, सभ्य राजनीति के अभ्यास का प्रयास किया है. संघर्ष आरएसएस और भाजपा की अलगाववादी, प्रभुत्ववादी और इसलिए हिंसक राजनीति और स्वाधीनता आंदोलन के दौरान विकसित हुए और संविधान के द्वारा प्रस्तावित स्वाधीन भारत के निर्देशक मूल्यों पर आधारित राजनीति के बीच है जो सबकी समानता, सबके लिए न्याय और सबकी आज़ादी के लिए बंधुत्व पर बल देती है. राहुल गांधी ने साहसपूर्वक भारत को बार-बार राज्यों के संघ के रूप में परिभाषित किया है. यह भी आरएसएस के केंद्रवादी नज़रिये के ख़िलाफ़ है.

ऐतिहासिक कारणों से राहुल गांधी इन मूल्यों के प्रवक्ता बन गए हैं, प्रतीक भी. यह भी सब देख रहे हैं कि राजनेताओं में एकमात्र राहुल गांधी ही आरएसएस की राजनीति के ख़िलाफ़ बोलते रहे हैं. इसलिए उन्हें नष्ट या निष्प्रभावी किए बिना आरएसएस का भारत को बहुसंख्यकवादी राज्य में बदलने का सपना पूरा नहीं होगा. यही कारण है कि राहुल गांधी पर भाजपा और सरकार अपनी पूरी ताक़त से हमला कर रही है.

उम्मीद करें कि यह ऐसा मौक़ा बन जाए कि सभी विपक्षी दल एक साथ खड़े होकर जनता को बतला पाएं कि राहुल गांधी पर हमले का अर्थ क्या है. तभी भारत के जनतंत्र को वापस हासिल करने का संघर्ष किया जा सकता है.
[ द वायर डॉट कॉम से साभार ]

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