वहीदा रहमान क्यों महत्वपूर्ण हो जाती हैं?
संजीव श्रीवास्तव

इस बात को नोट किया जाना चाहिए कि वहीदा रहमान अपने फिल्मी करियर में उस तरह से अपने बूते फिल्म को सफलता दिलाने वाली अभिनेत्री नहीं रहीं जैसे कि नरगिस या फिर मीना कुमारी। दर्शक जिस तरह नरगिस, मीना कुमारी या बैजयंती माला के नाम पर सिनेमा हॉल में जुटते थे, उस तरह वहीदा रहमान के लिए दर्शक नहीं उमड़े। लेकिन वहीदा जी की अहमियत उनकी अदायगी और उनकी शख्सियत की आंतरिक ऊंचाई से है। और यह ऊंचाई यूं ही नहीं आ जाती। इसके लिए साधना की दरकार होती है। साधना कला की। साधना सदाशयता की। साधना उदारता की। साधना संघर्ष करने के माद्दा की। साधना अपनी कर्तव्यनिष्ठा के प्रति ईमानदार बने रहने की। ये सब बातें वहीदा रहमान की स्क्रीन प्रेजेंस के आधार पर लिख रहा हूं, निजी तौर पर नहीं। मुझे नहीं मालूम निजी दुनिया में वो कैसी हैं। यह हमारी जिज्ञासा विषय भी नहीं। उनकी पहचान सिनेमा के पर्दे से है और यही हमारी टिप्पणी का आधार भी।
वहीदा रहमान को करियर में कई फिल्मों में ऐसे रोल मिले, जहां वह मुख्य नायिका नहीं बल्कि सह नायिका थीं। मसलन साहब बीबी और गुलाम को ही लीजिए। आप छोटी बहू के तौर पर मीना कुमारी की चाहे जितनी प्रशंसा करें, लेकिन जबा भी हरेक की जुबान पर चस्पां रहती हैं। और वो यूं ही नहीं है। वह छोटी बहू की दुनिया को पूरकता प्रदान करती है। एक तरफ उदास मादकता, दूसरी तरफ चहकता सौन्दर्य। गुरुदत्त ने इन किरदारों में क्या कॉन्ट्रास्ट रचा। अदभुत्।
वहीदा अदायगी की रेंज देखिए- उनके हिस्से में नायिका प्रधान फिल्में ना होकर भी उन्होंने मुख्य नायिका जैसी उपस्थिति दर्ज कराई तो अपनी अदायगी की प्रांजलता की बदौलत। प्यासा ही नहीं बल्कि गाइड और तीसरी कसम जैसी फिल्मों की कहानियों का टाइटल ही नायक केंद्रित है लेकिन इन फिल्मों की सारी महफिल लूट ले गईं वहीदा जी, तो अपनी अदायगी के उम्दा प्रदर्शन की बदौलत। वहीदा जी ने अपने एक इंटरव्यू में बताया भी था कि – देवआनंद ने उनसे कहा कि गाइड का सारा श्रेय तो सारा तुम ले गई। जाहिर है कि यह मामूली बात नहीं। यह ऊंचाई कला के प्रति ईमानदार समर्पण से हासित होती है।
आज वहीदा रहमान को दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड मिलने पर कई कई बातें कही जाती हैं- कि वो दक्षिण से हैं तो मुसलमान हैं आदि आदि… मुझे लगता है ये सब बातें बेकार की हैं। दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड देने से कभी किसी को वोट नहीं मिला। यह केवल अपने पक्ष में माहौल क्रिएट करने का फालतू उपक्रम भर है।
हां, किसी भी सरकार में अगर वास्तव में कला और सिनेमा के प्रति संरक्षण और प्रोत्साहन की इच्छा है तो उसके लिए वाजिब समय का ध्यान रखना जरूरी है। सिनेमा को भी साहित्य की तरह रचनात्मक आजादी दें। लोग अनावश्यक लाठी, डंडे लेकर सड़कों पर ना उतरें-सरकार और भक्तों की टोली-मंडली ऐसा माहौल बनाएं। अगर वहीदा रहमान को विनोद खन्ना, रजनीकांत और आशा पारेख से पहले यह सम्मान मिला होता तो निश्चय ही वहीदा जी उतनी भावुक नहीं होतीं जितनी कि 17 अक्टूबर,2023 को विज्ञान भवन में पुरस्कार प्राप्त करने के दौरान दिख रही थीं। सरकार से दरख्वास्त है इस पुरस्कार को स्टेट एंगल से परे रखें। वरना जिस वक्त प्राण साहब को यह पुरस्कार मिला, उस वक्त भी देरी को लेकर ऐसे ही सवाल उठे जो आज उठे हैं। कुल मिलाकर अफसोस इस बात का है कि सरकारें बदलती हैं लेकिन सही समय पर उचित सम्मान का नजरिया नहीं बदलता।
दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड लेने के बाद वहीदा रहमान ने जिस प्रकार इसका श्रेय अपने साथ काम करने वाले हरेक छोटे-बड़े कलाकारों को दिया, वह बड़प्पन उन्हें सबसे बड़ा बना गया। उस छोटे किंतु अर्थपूर्ण संबोधन से पूरी इंडस्ट्री आज सम्मानित और गौरवांवित है। यही है वहीदा रहमान की हस्ती। और यही हस्ती उनको एक मुकम्मल नायिका बनाती हैं जो बॉक्स ऑफिस से कहीं विराट है। इसीलिए वहीदा जी को यह पुरस्कार दिया जाना महत्वपूर्ण हो जाता है। यह शख्सियत केवल प्रेरणा नहीं बल्कि एक सबक भी है।

-संजीव श्रीवास्तव, नई दिल्ली में फिल्मी पत्रिका के संपादक तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकार हैं।
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