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भूमि व वन अधिकार आंदोलनों के  मुद्दों पर काम कर रहे लोगों का  दो दिवसीय राष्ट्रीय परामर्श सम्पन्न

नयी दिल्ली,(इंडिया न्यूज रूम) 3 जुलाई 2019, दिल्ली के असम असोसिएशन, क़ुतुब इंस्टीटयुशनल एरिया में भूमि अधिकार आंदोलन के बैनर तले दो दिवसीय राष्ट्रीय परामर्श भूमि और वन अधिकार आन्दोलन और भविष्य की रणनीति संपन्न हुआ. सम्मेलन में देश भर के 12 राज्यों से 200 से ज्यादा प्रतिनिधियों ने हिस्सेदारी की.

सम्मेलन में आये वन अधिकार अधिनियम और इसके क्रियान्वयन के मुद्दों पर काम कर रहे आंदोलनों का मत था कि लाखों आदिवासी और अन्य परम्परागत जनजाति एक अस्तित्वगत संकट के कगार पर हैं क्योंकि 13 फरवरी, 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को आदेश दिया कि यदि वन अधिकार अधिनियम 2006 [एफआरए] के तहत वनवासियों के दावे खारिज किये गए हैं, तो वे उन्हें जंगल से बेदखल कर दिया जाये. हालांकि अत्यधिक कोलाहल के बाद केंद्र सरकार अल्प निद्रा से जागृत हुआ और सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जिसने 23 फरवरी को अपने आदेश को संशोधित किया और 10 जुलाई 2019 तक के लिए माफी दे दी. यह स्पष्ट नहीं है कैसे दावों की अस्वीकृति को आधार मानते हुए बलपूर्वक बेदखली का औचित्य सिद्ध किया जा सकता है. चूंकि, अधिनियम के अनुसार कोई भी समुदाय “स्वतंत्र वन्यजीव आवास” और निश्चित रूप से अन्य क्षेत्रों से नहीं, बिना उनके स्वतंत्र और सूचित सहमति के कानूनी रूप से बेदखल किया जा सकता है. यह भी ग़ौर करने की बात है की वनाधिकार क़ानून में ख़ारिज करने का कोई प्रावधान नहीं है.

यह ध्यान दिया जाना है कि, अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006, जिसे वन अधिकार अधिनियम 2006 (एफआरए) के रूप में भी जाना जाता है, भारत में पहली बार एक महत्वपूर्ण वन कानून, जो वन आश्रित समुदायों और अनुसूचित जन जातियों पर किये गए ऐतिहासिक अन्याय को मान्यता देता है. जमीनी स्तर पर होने वाले प्रयासों, वन आश्रित समुदायों के देशव्यापी संघर्ष और अन्य नागरिक अधिकारों के कानून के दायरे में आदिवासियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों के अधिकारों के लिए जगह बनाने वाले इस ऐतिहासिक कानून को बनाने का मार्ग प्रशस्त किया. भारत में वनवासियों के रूप में वर्गीकृत अधिकांश लोग अनुसूचित जनजाति (एसटी), गैर-अनुसूचित आदिवासी, दलित और कमजोर प्रवासियों जैसे अन्य गरीब समुदाय हैं, जो व्यावसायिक रूप से निर्वाह योग्य कृषक, पशुचारण समुदाय, मछुआरे और वन उपज इकट्ठा करने वाले, जो आजीविका के संसाधन के लिए भूमि और वन पर निर्भर हैं. महिलाओं को एफआरए के दायरे में समान अधिकार सुनिश्चित किया गया है. इस वास्तविकता के साथ, भारत में कई वन निवास समुदायों का मानना है कि जैव-विविधता वाले जंगल बेहतर रूप से बच गए हैं जहां समुदाय अपनी प्रथागत प्रथाओं के साथ जंगलों के साथ घनिष्ठ संपर्क में हैं,  राज्य ने समुदायों को विस्थापित किया है, जो जैव विविधता को प्रभावित करते हैं और अपनी आजीविका के स्रोत के रूप में  हैं. अपने घोषणापत्र में सरकार द्वारा किए गए सभी वादों में से, सबसे मुखर अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के तहत गारंटी के रूप में वनवासियों के अधिकारों की रक्षा करना था. हालांकि, आज तक, बहुत कम समुदायों को उनके उचित अधिकार दिए गए हैं और अभी भी बेदखली, खतरों, हिंसा का सामना कर रहे हैं और वन विभाग और सामंती ताकतों के आतंक के अधीन हैं.

वन अधिकार अधिनियम और इसके क्रियान्वयन के मुद्दों पर काम कर रहे आंदोलनों का दृढ़ता से मानना है कि वर्तमान स्थिति, प्रासंगिक मुद्दों को संबोधित करने के लिए व विभिन्न रणनीतियों को समझने और तैयार करने के लिए विस्तृत तौर पर जायज़ा लेने की आवश्यकता है. सरकार निरंतर भारतीय वन अधिनियम के भीतर नए संसोधनो पर जोर दे रही है, इस विशेष मोड़ पर वन अधिकार आंदोलन अलगाव में काम नहीं कर सकता है और इसलिए अन्य संघर्षों के साथ गठबंधन की आवश्यकता है.वन अधिनयम, 1927 में लाए संशोधन को रद्द करो, वनाधिकार क़ानून का सही कार्यान्वयन करो का नारा दिया गया .

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