आज   11जुलाई:  पुण्य तिथि
तेजिन्दर गगन :  हमारे  बीच केे महान साहित्यकार

यह महज संयोग ही कहा जायेगा कि जिस दिन भीष्म साहनी का निधन हुआ था ठीक उसी दिन तेजिन्दर गगन दुनिया से अलविदा हुए .दोनों की साहित्य के भविष्य के वारे में चिन्ताएँ एक समान थी. भीष्म साहनी की साहित्य के प्रति जो चिन्ता थी उसे इन पंक्तों में देखा जा सकता है
“साहित्य अपनी सार्थकता खो चुका है तो शायद इसलिए कि जिन मानवीय मूल्यों सेसाहित्य जुड़ता है,जिन मानवीय मूल्यों की कसौटी पर वह जीवन के क्रिया-कलाप को आंकता -परखता रहा है,वे जीवन-मूल्य आज की दुनिया में केवल अपनाप्रभावखोते जा रहे हैं, बल्कि रौंदेजारहे हैं.साहित्य इन मानवीय मूल्यों का वाहक रहा है,इन्हीं की आधारशिला पर मानवता को सचेत करता रहा है,इन्हीं पर बल देता रहा है.” उसी प्रकार
तेजिन्दर गगन भी अपनी इस चिन्ता को 2011 में इन पंक्तियों व्यक्त किये हैं——-

“पता नहीं क्यों धीरे धीरे कुछ भी लिखने की इच्छाशक्ति कम होती जा रही है. एक समय था कि मैं इस बात क़ी कल्पना से भी भय खाता था कि लिखने क़ी सार्थकता के बारे में ही सोचना पड़ेगा. मैं उन लोगों में से नहीं हूँ जो लिखने को एक निजी कर्म समझते हों. मुझे लगता है कि लिखना एक सामाजिक कर्म है. जैसे प्रेमचंद लिखते थे या फिर यशपाल और भीष्म साहनी या हरिशंकर परसाई और मुक्तिबोध. लेकिन पिछले बीस पचीस वर्षों में हमारे देखते ही देखते समय बहुत तेज़ी के साथ बदला है. समय हमारे हाथों से जैसे छूटता ही चला जा रहा है.

…मैं खूसट बूड़ों क़ी तरह रोना नहीं चाहता पर मैं बहुत उदास हूँ. क्या मैं नए समय को समझ नहीं पा रहा हूँ ? क्या जो मैंने आज तक जीवन में समझा था वहसब गलत था. मुझे लिखना एकाएक निरर्थक सा क्यों लगने लगा है. दरअसल 1991 के बाद जिस तरह नया अर्थतंत्र आया उसने हमारे सामाजिक रिश्तों को तहस नहस करके रख दिया. इसमें सब कुछ बुरा ही बुरा था या है ऐसा तो नहीं है लेकिन समाज के एक बहुत बड़े हिस्से को इस परिवर्तन में कोई जगह नहीं मिल सकी.उसे जानबूझकर आँखों से ओझल करने क़ी कोशिश क़ी गयी जो कि संभव नहीं है. आप ज़रा तमाम इलेक्ट्रोनिक मीडिया को देखें ,बड़े बड़े अख़बारों को देखें आपको सोने जवाहरात और कारों के विज्ञापनों से भरे नज़र आयेंगे लेकिन कोई एक ऐसी आवाज़ आप नहीं सुन सकेंगे जो उन लोगों की बात करती हो जिनके पास खाने को अन्न नहीं ,पहनने को कपड़ा नहीं ,रहने को छत्त नहीं पर फिर भी वे अपनी लोक धुनों और अपनी बोलिओं के बीच सांस ले रहे हैं. उनकी बात किस अख़बार में छपती है या फिर किस माध्यम में दिखाई जाती है. क्या वे sattalite आसमान में ही कहीं टंगे रह जाते हैं, जिन में उन के चित्र होते हैं, जिन के पास खाने को अन्न नहीं होता या फिर जो इस धरती पर कई तरह की प्रताड़नाओं के शिकार होते हैं. मुझे लगता है कि यह काम अगर कोई और नहीं कर सकता तो सबसे पहले यह जिम्मेवारी लेखक की बनती है क्योंकि उस के पास विचार है और शब्द हैं. यह मामला सिर्फ तथाकथित रूप से आत्मा और सुकून का नहीं है जिसकी तलाश में हमारा नव धनाड्य मध्य वर्ग रहता है और श्री श्री रविशंकर या उन के जैसे अन्य बाबा जी लोगों की शरण में पलायन करता है..”तेजिन्दरजी समाज
के अन्दर लेखक की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते थे.

हिंदी के जाने-माने साहित्यकार तेजिंदर गगन का जन्म 10 मई 1951 को जालंधर में हुआ था. उनकी शिक्षा छत्तीसगढ़ के बस्तर और रायपुर में हुई. 1990 में प्रकाशित अपने पहले महत्वपूर्ण उपन्यास ‘वो मेरा चेहरा’ से वह चर्चा में आए थे.यह उपन्यास एक ऐसे सिख नव युवक की पीड़ा और संत्रास की गाथा है जिसका पालन पोषण पंजाब के बाहर हुआ. इस उपन्यास को मध्यप्रदेश का अकादमी सम्मान मिला था.वर्ष 2000 में प्रकाशित उनका दूसरा उपन्यास ‘काला पादरी’ भी बहुपठित उपन्यास रहा जो सरगुजा और छोटा नागपुर क्षेत्र में आदिवासियों के धर्मान्तरण पर आधारित है . 2010 में प्रकाशित ‘सीढ़ियों पर चीता’ श्रीलंका में बसे तमिल लोगों पर आधारित था.

तेजिन्दर की प्रमुख कृतियों में उपन्यास-‘वो मेरा चेहरा’, ‘काला पादरी’, ‘हलो सुजीत’, ‘सीढ़ियों पर चीता’, ‘काला अजार’, कहानी संग्रह- ‘घोड़ा बादल’, कविता संग्रह-‘बच्चे अलाव ताप रहे हैं’, यात्रा वृतान्त- ‘टेहरी के बहुगुणा’, ‘डायरी सागा सागा’ शामिल हैं. उन्होंने अंग्रेजी में अंकल रंधावा इन चेन्नई नाम से भी एक किताब लिखी थी.

तेजिन्दर को मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी सम्मान, वागीश्वरी सम्मान, लीला स्मृति सम्मान, कथाक्रम सम्मान प्रदान किया गया था.

11जुलाई2018 को तेजिंदर गगन का हृदय गति रुक जाने से निधन हो गया और साहित्य का एक महान सितारा चला गया.

सुनील सिंह

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