जड़ों की प्रशस्ति में कुछ कहता है मन

मेरी प्रातः दिनचर्या में जिन दृश्यों ने जीवन-सीख दी उनमें पेड़ , प्रतिनिधि रहे हैं। यों , पेड़ों को तो प्रायः देखता ही रहता हूँ। कभी लेकिन उनके बारे में इत्मीनान से सोचा नहीं था। अपने स्कूली दिनों में , गाँव में जबकि पूरी गर्मी बिताया करता था। शीशम , बड़ , गूलर और पीपल सहोदर की तरह साथ होते। बड़ की जड़ें झूला झूलने का अनुभव देतीं। बावजूद वनस्पतियाँ मेरी दिलचस्पी के दायरे में कभी गंभीरता से दर्ज नहीं हो पाईं। अलबत्ता जंगल ज़रूर अपनी ओर बुलाते रहे। जंगल की छोटी-छोटी यात्राएँ भी नसीब में आईं। लेकिन उन जंगलों की नहीं , जो टूरिज़म के चिकने पन्नों वाले ब्रॉशर का हिस्सा बना कर दिखाए जाते हैं! प्राकृतिक रूप से कोई झुरमुट कहीं दिख जाए तो उसमें भी एक बड़े जंगल के होने की आहट ने ध्यान खींचा है! और उनको देखते “जंगल कहीं तो बचाए जा रहे होंगे” का विश्वास कायमहोता आया है। इस उम्मीद से अपनी कल्पना में अदृश्य होते जंगलों को देख लिया करता हूँ।

हरियाली के प्रति आत्मीयता का स्वर सुन सकने की संभवतः इन्हीं आरम्भिक रुचियों का असर था – कि अकेले बैठ कर ही बरसात में झूमता हुआ पेड़ काफ़ी देर निहार सकने का स्वाद भीतर पैदा हो गया! औऱ बारिश के महीनों में झूमता हुआ पेड़ देखने शहर के किनारों तक एकाधिक मर्तबा अकेला , तफ़री करने गया हूँ। एक दफ़ा पहली बारिश को अनुभव करते निकला और लौट कर लिखा भी –
“झूमने दीजिये तन और मन इस झमाझम में” नवभारत में काम करने के दिनों की बात है। रचनात्मक मामलों की रिपोर्टिंग की ज़िम्मेवारी मुझे मेरी अपनी शर्तों के आधार पर मिली थीं। सामान्य मसलों पर तो कोई अड़ंगा नहीं, लेकिन जब प्रवाह के बाहर निकलकर कुछ नवाचार करने का प्रयास होता तो संघर्ष करना पड़ जाता। मेरी प्रकृतिजन्य ऐसी दिलचस्पी उन दिनों वहाँ तैनात सिटी चीफ की समझ के बाहर का मसला थीं। वे प्रायः असहज हो जाते! मज़े कि बात सम्पादक भी अपना विवेक इस्तमाल करने की बजाय उनकी बातों में आकर सहमति का मंजीरा बजाते!

“बदलती ऋतुओं का आनन्द” भी पाठकों के लिए समाचार की आम भाषा से हट कर लिखा जाना चाहिए। मेरा ज़ोर इस पर होता। वहाँ इस दृष्टि को समझाना जैसे युद्ध लड़ना था! मतभेद होता था पहली बारिश में ही “शहर आफ़त में फँसा” क्यों लिखा जाता है? इस पर । “आषाढ़ के प्रथम दिन” को स्वागत के अंदाज़ में क्यों नहीं लिखा जाता या लिखा जा सकता है? मैं इस तर्क के साथ खड़ा होता!
वे , “नालियां भर गईं हैं” इस पर झुके रहते! बेशक , निकासी का मसला या उससे उपजी समस्याएँ अपनी जगह सही हैं। लेकिन प्रकृति के आनन्द को भी तो अख़बार के पहले पन्ने में जगह मिलनी चाहिए। तब , जब भीषण गर्मी के बाद अमृत बूंदें बरस रही हों। इसी तरह “झमाझम” शब्द के इस्तेमाल पर भी उनसे सहमति नहीं बन पाती थीं कि “झमाझम” और “तरबतर” के वज़न और सौंदर्य को तो समझ लिया जाए। हर बारिश झमाझम कैसे हो सकती है? और ना हर गिरने वाला पानी तरबतर कर सकने का सामर्थ्य रखता है। लेकिन अख़बार के दायरे से बाहर निकल कर जिन्होंने जीवन को देखने की कोशिश की हो तब ना वे इस फर्क को जानें! ख़ैर , मैंने पहली बारिश को अनुभव कर जब कभी लिखने का अवसर मिला , उसे हाथ से जाने नहीं दिया। लिखना हालांकि मेरे लिए दूसरी प्राथमिकता थी। पहली , हमेशा ही प्रकति के आनंद को समझना रही। चूँकि आनन्द लेने वाली दृष्टि भीतर थी सो मैं उस मौसमी-अनुभव को लिखने में भी आनन्दी बनाने का प्रयास कर लिया करता था। वहाँ { संस्थान में } एक अकेले के.के.सिंग थे जिन्हें मेरी ऋतु-दिलचस्पियों को लेकर कौतुक था। वे कहा भी करते थे, “अच्छा विचार है। अखबार सिर्फ़ चंद लोगों { विषय } की जागीर नहीं है!”

।। दो ।।

पानी, या पेड़ के मसले , इन पर नया कथ्य गढ़ने में मज़ा ही आता था। इधर , कुछ दिनों से जड़ों के वैविध्य की तरफ़ नज़रें चली गईं ! सोचने लगा कि जड़ों के इस विस्तार पर क्या कुछ ठिकाने का लिखा जा सकता है? दिव्य-कद काठी वाले पेड़ों को निहारते हुए नज़रों ने नीचे भी देख लिया। जड़ें दिखीं तो कुछ और भी जाना। विशालकाय वृक्ष उसकी उतनी ही फैली हुई जड़ें। जड़ें भी ऐसी मानों संवाद कर रही हों। जिज्ञासा के इस क्रम में रोज़ाना जहाँ भी जड़ें देखीं थोड़ी देर उन्हें निहार कर ही आगे बढ़ा। बढ़त का , इन जड़ों का सबका अपना-अपना अंदाज़। लचकदार टहनियों-शाखाओं का ऊपर की ओर जाता सौंदर्य जितना नायाब , नीचे की ओर उससे कतई कम नहीं! एकटक निहारने पर जड़ें कुछ कहती हुई-सी लगीं। सतह पर अपनी सम्पूर्ण सुषमा के साथ जमीं हुई जड़ों का गठाव । उसकी खूबसूरती आँखों से अभी तक कैसे बची रह गईं ? पहले इस सौंदर्य को क्यो नहीं पकड़ा ? मन मुझसे ही सवाल करने लगा!

पेड़ों की उम्र को लेकर मन में कौतुहल हमेशा रहा ! ख़ासकर वे पेड़ , जो अपने डील-डौल में भव्य होते हैं। पेडों का भी ऐसा मनोहर व्यक्त्तित्व होता है जो उनकी देह-सुषमा को उजागर करे – इसे जानना कितना मोहक है। मसलन बरगद , पीपल जैसे 100 फीट ऊँचाई तक जाते विशालकाय वृक्ष ! हमारी पीढ़ी एक मायनों में खुश्किस्मत है कि उसे इतने सुंदर पेड़ देखने मिल रहे हैं? आने वाली पीढ़ी के सम्मुख बड़ , पीपल आदि अपनी सम्पूर्ण आभा लिए दिख पाएँगे – संदिग्ध ही है! इनके इतने वर्षों तक रहने , टिकने और स्वास्थ्यप्रद जीने लायक वातावरण क्या तब बचा रह पाएगा? मैं अपने आप से ही जिरह करता हूँ।


वनस्पतियाँ अथवा जीव-जगत में पकड़ रखने वाले जानते हैं कि अनुकूल वातावरण नहीँ होगा तो उनकी अपनी भरपूर उम्र तक बने होने की सम्भावना ख़त्म हो जाएगी ! और , यह समय ऐसा है कि पेड़ हमारी प्राथमिकताओं में टाइल्स , मार्बल के बाद दर्ज होते हैं ! “रेस्पेक्ट द नेचर” जैसा भी कुछ होता है , इसे जानने की गर्मजोशी का अभाव इस दौर का बड़ा संकट है! अब पेड़ या पर्यावरण का मतलब मात्र “5 जून” की तारीख़ है। वृक्षारोपण का सालाना संदेश देते यूनिपोल पर चढ़े कुरूप विज्ञापन । सुरुचिमयता से जैसे सीधा बैर! सरकार की नज़र में तो पर्यावरण या पेड़ यानी अखबारों को बड़े-बड़े विज्ञापन देने वाला एक दिन बन कर आता है! नोट शीट में हरियाली छाई रहती है। फाइलों में से हरा रंग ऐसे झाँकता है जैसे वे पूरे शहर-प्रदेश में हरियाली बिखेर कर ही अगला काम करेंगे।इसके बाद उनकी ज़िम्मेदारी अगले साल तक आँखें मूंद लेती हैं! पर्यावरण को देखने की इस इस पूरी शासकीय प्रक्रिया से ही घिन आने लगी है अब।

।। तीन ।।

कितनी जड़ें , कितने विचार ?
देखने पर सहसा यही ख़याल उपजा।

“आंखिर ऊपर की यात्रा नीचे से ही तो तय होती है!”
भीतर से आवाज़ आई। सम्भवतह बरगद या पीपल में ही जड़ें बाहर दिखाई देती हैं। जितना बड़ा वृक्ष , जड़ों में उतनी ही विविधता। तना और जड़ों के मध्य प्रायः पेड़ बिरादरी में ऐसा उदाहरण कहाँ मिलता है। जड़ें कहीं भीतर खो जाती हैं लेकिन जिन देव-वृक्षों की बात उठाई गई है वहाँ जड़ें भी बराबरी से बाहर निकली होती हैं। और जड़ों का यही बहुरंगी रूप उसकी छवि में थोड़ी अतिरिक्त रहस्यात्मक-मोहकता दे जाता है। इन बड़ी कद काठी के पुरखा पेड़ों की तरफ़ नज़रें सायास ठहरने लगीं तो आनंद भी उसी मात्रा में आने लगा। जड़ों का यह विस्तार-शास्त्र , ज़ाहिर है अकारण नहीँ है। उसके पीछे कोई न कोई वनस्पति विज्ञान होगा। चाहे जो भी हो , भीतर से बाहर आती , सर्पाकार , तनों से लिपटी , बिजली की झालरों की तरह लटकती और बलखाती ये जड़ें कौतुक तो जगाती ही हैं। किसी दीवाल के झरोखे से बाहर झाँकती, पत्थर की मजबूत दीवालों को फाड़कर आगे बढ़ती आदि। जड़ों की इस पड़ताल में कुछ तने ऐसे भी दिखे जिनका अपना व्यास एकाधिक तनों के मेल से बना हुआ महसूस हुआ। मानों छोटी छोटी जड़ों का एकत्रीकरण! ऐसे पेड़ भी दिखे जहां तनों के बाहर जड़ों जैसी आकृति दिखी जबकि वह जड़ न होकर तनों का अपना रुपाकार है! खजुराहो के मंदिरों में उभरी देह आकृतियों का भाव भी मुझे कुछ जड़ों को देखने पर याद आया!

मैंने पाया कि यह छटा-विन्यास बरगद-वृक्ष में ही अधिकतर दिखाई दिया। नयनाभिराम छटाएँ । कोई वृक्ष सिर्फ़ जड़ों से घिरा नज़र आता है। किसी में जड़ों को आप हल्की आभा के अंदाज़ में देख सकते हैं। कहीँ ऊपर से निकली हुई बीच में हीं गुत्थम-गुत्था। कोई पेड़ झालर जैसी बारीक़ लड़ियाँ निकाले हैं। किसी पेड़ में जड़ें प्रतीकात्मक रूप में तनों के बीच में प्रकट होकर वहीँ तनों में गुम हो रही हैं। कहीं आलिंगन बद्ध! बरसात में मैंने एक ख़ास बात और नोट की : निरंतर वर्षा के बाद नीचे की ओर बढ़ता जड़ों का बारीक सिरा कत्थयी रंग में तब्दील नज़र आया। जबकि पहले वह सूखी अवस्था में था। आपने किसी दीवाल छत अथवा मुंडेर को लाँघकर भी इन्हें अपना साम्राज्य बाहर फैलाते देखा होगा ! यद्यपि इन विविधताओं की असंख्य छवियां हो सकती हैं। बहुतेरे पेड़ और बहुतेरे रूप। जैसी उम्र वैसी जड़ें! जड़ों के इस वैविध्य को किसी चित्रकार ने कभी सीरीज़ का हिस्सा बनाया या नहीं , मालूम नहीं। पर ऐसा हो सकता है। होना चाहिए। कुछ परिकल्पनाएं इन जड़ों की सुदर्शनता देख उपज रही है।

जैसे : मैंने विचार किया यदि प्रकृति से जुड़ी कोई पत्रिका हो तो उसके मुख पृष्ठ में इन जड़ों का चित्र सुशोभित हो सकता है। और बहुवचन , पूर्वाग्रह जैसी वैचारिक बाहुल्य वाली पत्रिकाएँ तो आंतरिक ले आउट में भी इससे नवाचार कर सकती हैं! विश्वविद्यालयों के वानस्पतिक विभाग क्या कभी ऐसी जड़ों से मित्र समझ बढ़ाने इन चित्रों की एकाद बढ़िया नुमाइश लगाने की ओर मुड़ सकते हैं। कम से कम इतना तो किया ही जा सकता है कि बड़-पीपल सरीखे पेड़ों की सुंदर तस्वीर उतारने का कोई स्पर्धात्मक अवसर स्थानीय छायाकारों को उपलब्ध करा दे।

इन जड़ों को मैं और किस तरह देखना चाहता हूँ ?
उसे यदि कभी लघु फ़िल्म बनाने में उतार सका तो बैक ग्राउण्ड संगीत के रूप में मेरी प्राथमिक पसन्द उदय भवालकर जैसे सिद्ध ध्रुपद गायक का गायन होगी। उनके “नोम-तोम” का आलाप डालना सिर्फ़ श्रवणीय सुख नहीं , इन जड़ों के गाम्भीर्य को उभारने वाली रचनात्मक संगति भी होगा। दृश्य की सांगीतिक अर्थमयता।

ll चार ll

प्रकृति से बैर की जड़ मानसिकता के मध्य जड़ों के लिए उसकी संवेदनशीलता को पहचानने वाला मन कहां से आएगा ? रायपुर शहर के कुछ ठिकाने अभी भी ऐसे कद्दावर पेड़ों से गुलज़ार हैं जिसकी तंदुरुस्त जड़ों को भरपूर देखा जा सकता है। नायाब तना और उसका व्यास। फैलती बाहों वाली ये जड़ें मानों बतियाने का आमंत्रण देती जान पड़ेंगी। ऐसे पीपल , बरगद जिन्होंने अपने उम्र की शताब्दी देख ली है। फ़िर भी खासी दुरुस्त देह के मालिक। उन्हें कुछ देर बैठ कर एकाग्रता से देखें तो आपको उसके साथ आसपास के समाज का इतिहास भी दिखाई देगा।

मुझे पेड़ों के किसी बॉटनिकल अंतरंग की जानकारी नहीँ है और न मैं वैसा कोई अध्येता हूँ। उस अधिकार के साथ पेड़-पुराण लिख भी नहीँ सकता , ना दावा है। लेकिन बरसात के मौसम में चलती हवा के मध्य इन झूमते पुरखा पेड़ों की डंगालोंं का संगीत सुनने वाले कान तयार किये हैं। इन्हीं के चलते उसके आनंद को प्रायः आत्मसात कर लिया करता हूँ। बढ़ती जाती उम्र का एक असर इसे भी जानिए कि देखे जा रहे या दृष्टि के सम्मुख आने वाले विषयों के साथ मन भी शामिल होकर अपनी बात भी कहने लगता है! जड़ों के साथ निरन्तर मन संवाद के दौरान ऐसा ही कुछ हुआ। उन्हें जब एकटक निहारना आरम्भ किया तो जैसे ये जड़ें और संगी साथी बहुत कुछ कहते जान पड़ रहे थे।

बोनसायी” कला से जुड़ी एक नुमाईश में 20 वर्ष पुराना बरगद गमले में देखने मिला तो वहाँ भी जड़ें “बरगद के मिनियेचर रूप” में उसी अनुपात में फैली हुई थी ! हालाँकि बरगद को छोटा करने वाली कला एक अर्थों में वीभत्स लगती है. जो भी हो , लेकिन “जड़” नहीँ होता इन जड़ों का सौंदर्य , इतना अवश्य है। प्रकृति के प्रति निरन्तर जड़ होती जा रही हमारी मानसिकता के मध्य दिमाग़ का कोई तो सिरा हो जो इन जड़ों { पेड़ पौधों } के साथ आत्मीयता का पुल तयार करने सामने आ सके। जड़ों में उलझता जा रहा हूँ.

रा जे श ग नो द वा ले, रायपुर
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