पिछले सप्ताह पेइचिंग में अमेरिका, रूस, चीन और पाकिस्तान की मीटिंग हुई

भारत के लिए चिंता की बात यह है इस पूरी प्रक्रिया में उसे किसी पक्ष से तवज्जो नहीं मिल रही है

यह हालत तब है जब भारत पिछले 18 वर्षों से अफगानिस्तान के अच्छे भविष्य के लिए काम कर रहा है

नई दिल्ली,(एजेंसियां) एशिया में महाशक्तियो के बदलते समीकरणों में पिछले सप्ताह तालिबान से शांति समझौते का स्वरूप तैयार करने में अमेरिका, रूस और चीन के साथ पाकिस्तान ने भी भूमिका निभाई. इससे पता चलता है कि उसने अफगान शांति प्रक्रिया में किस तरह अपनी केंद्रीय भूमिका तैयार कर ली और अफगानिस्तान के अच्छे भविष्य के लिए भारत का लंबा प्रयास किस तरह निष्प्रभावी होता जा रहा है. उभरते हालात में भारत की हिस्सेदारी और उसकी आवाज सिमटती जा रहा है जबकि पाकिस्तान ने मौके का फायदा उठाकर खुद को इलाके की जियोपॉलिटिक्स के केंद्र में स्थापित कर लिया है. पेइचिंग में 12 जुलाई को अफगान शांति प्रक्रिया पर ‘चौपक्षीय साझा बयान’ जारी करने को लेकर चारों देशों की मीटिंग हुई थी. अमेरिका ने पाकिस्तान को दी केंद्रीय भूमिका अमेरका ने अफगानिस्तान के मुद्दे पर रूस और चीन को एकसाथ लाने में सफलता हासिल कर ली. उसने पिछले सप्ताह पाकिस्तान को भी शामिल कर लिया जो तालिबान का प्रमुख स्पॉन्सर है. पाकिस्तान तालिबान को बातचीत की टेबल पर लाने में अहम भूमिका निभा रहा है.

शांति समझौते से भारत को अलग-थलग किया

भारत में अफगानिस्तान के पूर्व राजदूत और राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार शाइदा अब्दाली ने पिछले सप्ताह टाइम्स ऑफ इंडिया से कहा था, ‘अफगानिस्तान के साथ रिश्तों को मजबूती प्रदान करने की 18 वर्षों की भारतीय कोशिशें इस मोड़ पर असफल नहीं होनी चाहिए.’ उन्होंने कहा, ‘अफगानिस्तान में उभरती परिस्थितियों से भारत के अलगाव की दीर्घकालीन भविष्य में कीमत चुकानी पड़ सकती है.’ भारत शांति समझौतों में कहीं नहीं है और न ही भारतीय चिंताओं को कोई तवज्जो दी जा रही है.

भारत को तवज्जो एक पक्ष भी नहीं दे रहा

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अजित डोभाल ने अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो के नई दिल्ली आगमन पर बार-बार जोर दिया था कि शांति प्रक्रिया जारी रहते हुए भी अफगानिस्तान में राष्ट्रपति चुनाव तय वक्त में संपन्न करवाना चाहिए. भारत को ताजा झटका अफगानिस्तान में अमेरिकी राजदूत जॉन बास ने गुरुवार को यह कहकर दिया कि अफगानिस्तान में 28 सितंबर को होने वाला राष्ट्रपति चुनाव तालिबान के साथ शांति प्रक्रिया पूरी नहीं होने तक टाला जा सकता है. भारत इसके खिलाफ है. भारत ने अमेरिका के विशेष प्रतिनिधि जलमे खालिजाद और रूस, दोनों के सामने अफगानिस्तान में अंतरिम सरकार के गठन के प्रस्ताव का भी विरोध किया. हालांकि, अफगानिस्तान के प्रमुख पक्षों में कोई भी भारत की आवाज को ज्यादा तवज्जो देता नहीं दिख रहा है. जबकि भारत वहां के पुनर्निर्माण में लगातार भागीदार रहा है.

शांति प्रक्रिया लगातार हमलों के बावजूद बढ़ रही है

हैरत की बात है कि तालिबान की ओर से हर दिन हो रहे आतंकी हमलों के बावजूद शांति प्रक्रिया की गहमगहमी बढ़ रही है. पिछले सप्ताह अमेरिका और तालिबान ने अस्थाई समझौते के 8 बिंदु तय किए थे. खालिजाद भले ही इसे ‘सेना निकासी नहीं शांति समझौता’ बता रहे हों, लेकिन तालिबान के साथ-साथ दूसरे पक्ष भी इसे अफगानिस्तान से भाग निकलने का अमेरिकी प्रयास ही बता रहे हैं.

बावजूद इसके अब भी अफगानों का चहेता है भारत

अफगानिस्तान में भारत के पूर्व राजदूत और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड (एनएसएबी) के सदस्य अमर सिन्हा ने कहा, ‘भारत को ज्यादा प्रोऐक्टिव होना चाहिए. राष्ट्रवादी अफगानों में इसकी पैठ है. भारत को इस वक्त उन्हें एकजुट करना चाहिए ताकि वे इकट्ठे आवाज उठा सकें. हम अफगानिस्तान में राजनेताओं में फूट के स्तर को देखकर चिंतित हैं.” भारत 18 वर्षों से ज्यादातर अफगानिस्तान की तत्कालीन सरकारों के साथ संबंध मजबूत करने पर जोर देता रहा है. अफगानों का सबसे चहेता देश अब भी भारत ही है.

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