“भारत सहित पूरी दुनिया मे प्रोफेसर एमेरिटस वह पदवी है जो किसी सेवानिवृत्त हो चुके या सेवानिवृत्त होने वाले प्रोफेसर को उसके उस असाधारण योगदान के लिए दी जाती है जो उसने अपने शैक्षणिक जीवनकाल में किया. इसका उनके रिटायर होने के बाद किये गए, किये जाने वाले काम से कोई संबंध नही होता. यह पदवी उनके पूरे जीवन के योगदान और उपलब्धि के लिए – लाइफटाइम अचीवमेंट – होता है और उनके बकाया जीवन भर के लिए होता है. इस ओहदे के बाद विश्वविद्यालय को इस मानद हस्ती के लिए न तो कुछ खर्च करना होता है न कोई खास इंतजाम ही करना होता है. सच बात तो यह है कि ऐसा करके संबंधित विश्वविद्यालय सामने वाले को स्वयं से जोड़कर खुद सम्मानित हो रहा होता है”  –  प्रभात पटनायक

उपरोक्त कथन पर खरी उतरने वालीं  रोमिला थापर भारतीय इतिहास के अनुसंधान की सर्वकालिक श्रेष्ठतम खोजियों की सूची के अव्वलतम नामो में से एक हैं.

(आलेख : बादल सरोज)

कट्टर और संकीर्णतावादी, अधिनायकवादी फासी सोच से संचालित हुकूमतों की एक विशिष्ट और मौलिक खासियत यह होती है कि आप उनकी मूर्खताओं की जितनी भी अधिकतम सीमा सोच पाते हैं, वे उससे भी हजार जूते आगे के कारनामो के साथ खड़ी दिखाई देती हैं. ताजे दौर में मोदी सरकार इस खासियत का नायाब नमूना है. लोग उम्मीद लगाए बैठे थे कि एड्स के प्रकोप की तरह फैलती मंदी, हैजे की बीमारी की तरह धड़ाधड़ मरते बन्द होते उद्योग धंधों और प्लेग की महामारी की तरह खत्म होते रोजगारों को बचाने, आर्थिक दुर्दशा की रोकथाम के लिए सरकार कुछ करेगी ; सरकार ने रिज़र्व बैंक के रिज़र्व भंडार में सेंध लगाकर आपातकालीन कोष का ही सफाया कर दिया. बहुमत नागरिकों ने सोचा था कि ट्रम्प की घुड़कियों और बन्दिशों के बरक्स, भीड़ हत्याओं (मॉब लॉन्चिंग) के कोहराम और कुलदीप सेंगरों चिन्मयानन्दों की जघन्यताओं की पृष्ठभूमि में पन्द्रह अगस्त के आजादी के दिन दिए जाने वाले भाषण में क़ानून व्यवस्था, आजादी और सम्प्रभुता को बचाने की कोई तजवीज आएगी,उनने अपने ही देश के एक पूरे प्रदेश -कश्मीर- को ही कैद करके रख दिया, ये तो केवल  नमूने हैं, सिर्फ मोदी-02 के ही ऐसे सारे कारनामे गिनाने लगें तो उनके लिए यह जगह काफी छोटी पड़ जाएगी. इन्ही में से एक निराट निर्बुद्धि वाला कारनामा यह है कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के मोदी नियुक्त कुलपति वाली ई सी ने बहुमत से फैसला लेकर रोमिला थापर से उनकी काबिलियत और शैक्षणिक योग्यता के बारे में बॉयोडाटा (सीवी) जमा करने के लिए कहा है. ताकि वे “तय कर सकें कि जेएनयू में उनका मानद प्रोफेसरी (प्रोफेसर एमेरिटस) का ओहदा जारी रखा जाए कि नही रखा जाये.”

जेएनयू की एग्जीक्यूटिव कौंसिल – जिसके नाम पर रोमिला थापर को यह नोटिस भेजा गया है – उसे यही नही पता कि एमेरिटस प्रोफेसरी  होती क्या है ? उनके नोटिस से ऐसा लगा जैसे उसे लगता है कि यह भी कोई प्रोफेसर की खाली पोस्ट है जिसके लिये कई दावेदार हैं और उनके सी वी विवरणों को देखकर ईसी को तय करना है कि किसे लें और किसे न लें !! ईसी अगर एमेरिटस का निकटतम  हिंदी शब्दार्थ – ससम्मान सेवानिवृत्त – ही पढ़ लेती तो शायद इस बेवकूफी से बच सकती थी.  मगर इस मंडली में तो पढ़ना-लिखना ही स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना जाता है. प्रभात पटनायक इस बारे में काफी तार्किक और तथ्यात्मक तरीके से लिख चुके हैं जिसका सार यह है कि : “भारत सहित पूरी दुनिया मे प्रोफेसर एमेरिटस वह पदवी है जो किसी सेवानिवृत्त हो चुके या सेवानिवृत्त होने वाले प्रोफेसर को उसके उस असाधारण योगदान के लिए दी जाती है जो उसने अपने शैक्षणिक जीवनकाल में किया. इसका उनके रिटायर होने के बाद किये गए, किये जाने वाले काम से कोई संबंध नही होता. यह पदवी उनके पूरे जीवन के योगदान और उपलब्धि के लिए – लाइफटाइम अचीवमेंट – होता है और उनके बकाया जीवन भर के लिए होता है. इस ओहदे के बाद विश्वविद्यालय को इस मानद हस्ती के लिए न तो कुछ खर्च करना होता है न कोई खास इंतजाम ही करना होता है. सच बात तो यह है कि ऐसा करके संबंधित विश्वविद्यालय सामने वाले को स्वयं से जोड़कर खुद सम्मानित हो रहा होता है” रोमिला थापर के मामले में यह सच और भी ज्यादा मुखर और प्रमाणित सच है.

रोमिला थापर भारतीय इतिहास के अनुसंधान की सर्वकालिक श्रेष्ठतम खोजियों की सूची के अव्वलतम नामो में से एक हैं.  भारत के इतिहास को व्यवस्थित रूप देने और भविष्य के लिए उसे सबक के रूप में पुनर्परिभाषित करने वाली अग्रणी व्यक्तित्वों में से एक हैं.  उन्होंने अथक परिश्रम से पुरातत्व, भाषा, साहित्य,आनुवंशिकी, लिपि और जीवन शैली, शास्त्रों और ग्रंथों के उदाहरणों को टुकड़ा टुकड़ा जोड़ा, संग्रहित और संकलित किया.  उन प्रमाणों के आधार पर सही इतिहास को लिपिबध्द किया। जब कभी भी – दुनिया की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक  – भारत के इतिहास का इतिहास लिखा जायेगा उसकी कृतज्ञता सूची में रोमिला थापर जरूर होगी, उल्लेख की तरह नही सन्दर्भकोश की तरह, मील के पत्थर की भांति नही, एक दिशासूचक स्तम्भ के रूप में.

भारत के प्राचीन और मध्ययुगीन इतिहास को समझने का कोई भी रास्ता उनके और दामोदर धर्मानन्द कौशाम्बी तथा रामशरण शर्मा आदि प्रमुख इतिहासकारों के बिना आगे नही जाता. अशोक और मौर्ययुग, भारत मे राज्य संस्था की उत्पत्ति, आर्यों से सोमनाथ तक और हाल के ‘पास्ट बिफोर अस’ (अतीत हमारे सम्मुख) से लेकर ‘पास्ट एज प्रेजेंट’ (भूत वर्तमान में प्रस्तुत ) तक उनका काम कई अनसुलझी पहेलियां सुलझाता है, उलझने दूर करता है. इतिहास से खिलवाड़ की साजिशों को सीधे सींग से पकड़कर धराशायी करता है. वे एशिया के उन इतिहासकारों में से एक है जिन्हें दुनिया भर में आदर के साथ देखा जाता है, प्रमाण मानकर पढ़ा जाता है,  दत्तचित्त होकर सुना जाता है. पेरिस, ऑक्सफ़ोर्ड सहित दुनिया की दर्जन भर यूनिवर्सिटीज, शैक्षणिक संस्थाएं उनका नाम अपने साथ जोड़कर खुद को गौरवान्वित महसूस करती हैं. अभी पिछले ही महीने अमरीका की सबसे पुरानी और सबसे प्रतिष्ठित इतिहास संस्था अमेरिकन फिलोसोफिकल सोसाइटी ने उन्हें अपना मानद सदस्य मनोनीत कर स्वयं को सम्मानित किया है. वे संभवतः भारत की अब तक अकेली इतिहासकार हैं जिन्हें इतिहास का नोबल पुरस्कार माने जाने वाले सम्मान से 2003 में सम्मानित किया जा चुका है. यहां जरूरत रोमिला थापर के सम्मानों, योगदान तथा उपलब्धियों के बारे में बताने की नही.   उनकी शख्सियत इसकी मोहताज भी नहीं हैं. रोमिला खुद कभी सम्मानों के पीछे नही भागीं, उन्होंने तो 1992 और 2005 में दो दो बार दिए जारहे पद्मभूषण के अलंकरण को भी यह कह कर लेने से मना कर दिया कि वे सरकारों से सम्मानित नही होना चाहतीं. इन पँक्तियों को लिखे जाने की मुख्य वजह उनके साथ किये इस बेहूदा बर्ताब की वजह और उसकी सीमा जानने की है.

आरएसएस की जकड़न वाला जो सत्ता प्रतिष्ठान है, उसे मनुष्य मात्र की मेधा, समझदारी और बौध्दिकता से डर लगता है. रोमिला थापर और उन जैसे/जैसी इतिहासकारों से इसलिए अतिरिक्त ज्यादा डर लगता है क्योंकि वे मिथिहास और इतिहास के अंतर को ऐतिहासिक तथ्यों के साथ उजागर करके आस्था और इतिहास को गड्डमड्ड करने की ठगी का भांडा फोड़ देते/देती है. अपने जैसे बाकी विद्वानों की तरह रोमिला  इतिहास की साम्प्रदायिक व्याख्या का आधार ही ध्वस्त कर देती हैं. प्राचीन भारतीय समाज मे व्याप्त जातिप्रणाली के विरुध्द उठे सामाजिक प्रतिरोध और उसके नतीजे में आई सामाजिक हलचल में बुद्धिज्म की भूमिका को रेखांकित करते हुए मनुस्मृति की मृत चेतना में प्राणप्रतिष्ठा के आतुरों के मंसूबों को झिंझोड़ देती हैं. इतिहास की समझ को राजा रानियों, पण्डों महंतों की गढ़ी मरीचिका से बाहर लाकर उसे मनुष्य के श्रम के पसीने और मेहनतकशों तबकों की सृजनशीलता के ताप से ताजा करते हुए उसे कल्पित आख्यान से  प्रामाणिक विज्ञान में बदल देती है .

अंधकार के पुजारी ऐसी हर भारतीय प्रतिभा से भय खाते हैं. वे कलबुर्गी, दाभोलकर, पानसारे, गौरी लंकेश से डरते हैं. वे लिखे बोले शब्दों से डरते हैं . वे “वॉर एंड पीस” जैसी कालजयी किताबो से डरते हैं.  वे  कबीर कलामंच की गाई लोक रागिनियों से भी डरते हैं. डरते तो वे पत्थर की मूर्तियों से भी हैं फिर वे चाहें लेनिन की हों या अम्बेडकर की, जोतिबा की हों या ईश्वरचंद्र विद्यासागर की ; दरअसल वे हर तरह की रोशनी से डरते हैं. इसलिए वे सबके दिमाग की बत्ती गुल कर देना चाहते हैं. इसलिए रोमिला थापर से उनकी शैक्षणिक योग्यता पूछना सिर्फ उनकी मूर्खता नही है, यह सोची विचारी धूर्तता है. बामियान में बुध्द की मूर्तियों ढहाने वालो, नालंदा की विराट लाइब्रेरी को जलाने वालों को अपना असली आदर्श मानने वाला, बाबरी मस्जिद को ढहाने वाले तालिबानों का सहोदर यह हिन्दुत्वी गिरोह सारी बौध्दिक उपलब्धियों को जमींदोज कर हिंसक अज्ञान और बर्बर सहजज्ञान की विषबेल रोपना चाहता है. वह रोमिला थापर को दिए नोटिस के जरिये अनुसंधान और परिष्कार में लगी सारी बुध्दिमत्ता और काबिलियत को दरबारी बना लेना चाहता है. वे शायद अकादमिक जगत को भी असम की एनआरसी समझ बैठे हैं कि जिसको चाहेंगे जोड़ लेंगे जिसे चाहेंगे उसे बाहरी और घुसपैठिया करार दे देंगे, भले वह भारत के राष्ट्रपति रहे फखरुद्दीन अली अहमद का परिवार ही क्यों न हो.

शठ बुद्दियों के इस गिरोह ने 1961 में लिखी रोमिला थापर की किताब “अशोक और मौर्य साम्राज्य का पतन” भी नही पढ़ी, वरना उन्हें पता लग जाता कि मौजूदा भूगोल से भी कहीं ज्यादा बड़े भौगोलिक क्षेत्र मे फ़ैले मौर्य साम्राज्य के पतन का कारण कोई बाहरी शक्ति नही अत्यधिक केंद्रीकृत प्रशासन था. अपनी अपनी करने और सिर्फ अपनी कही ही करवाने वाला राज. ऐसे तानाशाह निज़ाम  दूसरों का नहीं, खुद अपने ही समाज और उसकी उपलब्धियों का विनाश करते हैं.

मगर उनकी, उन जैसे सब की, एक बड़ी मुश्किल होती है. इस मुश्किल का नाम है अवाम – वह जनता जिसे अपने अधीन कर लेने का भरम वे पाल लेते हैं. अपने चारों ओर जमा हुयी अपने प्रलाप की अनुगूँज को ही वे जनता की हाँ मान लेते हैं – एक साथ सबको हमेशा के लिए भरमाने का भरम पाल लेते हैं.  इतिहास बताता है कि ऐसे तानाशाहों को इतिहास में एक बदनुमा दाग से ज्यादा जगह नहीं मिलती. क्योंकि- जैसा कि रोमिला थापर ने ही प्राचीन भारत के इतिहास की व्याख्या करते हुए कहा है, यह जनता है जो इतिहास बनाती है.

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