छत्तीसगढ़ की दो विधानसभाओं में रिक्त सीटों पर एक साथ चुनाव कराना उस केंद्रीय चुनाव आयोग को अपनी क्षमता से बाहर लगा जो “एक राष्ट्र एक साथ चुनाव ” का आव्हान पिछले साल तक कर रहा था ये कांग्रेस प्रवक्ता का बयान बहुत ही तीखा जरूर है, लेकिन आज की वास्तविक स्थिति को उजागर कर रहा है. दंतेवाड़ा में हुए चुनावों में नक्सल हिंसा में अपने अपने पतियों को खो चुकी महिलाओं को संवेदना के वोट की खातिर दोनों राष्ट्रीय दलों ने खड़ा किया था . उप चुनाव जिसमें देश या राज्य स्तर के अन्य मुद्दों पर वोट मिलना न मिलना उतना तय नहो था जितना कि शहीद की पत्नी का दर्जा . दोनों दलों को बस्तर के अन्य ज्वलन्त मुद्दों, नंदराज पहाड़ जैसे प्राकृतिक संसाधनों की बंदरबांट मुद्दा नही था बल्कि भावनात्मक मुद्दों पर लड़ा गया चुनाव अंतिम चरण में चावल वाले बाबा के आर्थिक अपराधों को उजागर करने के ट्रम्प कार्ड के कारण एकतरफा झुका हुआ प्रतीत हुआ.

दंतेवाड़ा के मतदाताओं में ज्यादातर शहरी ने भाजपा।को ही पसंद किया है जबकि ग्रामीण किसानों ने ऋणमुक्ति और छत्तीसगढिया, ग्रामीण मुद्दों पर सरकार की योजनाओं का रुझान देख कर कांग्रेस को सम्मानजनक वोटों से जिताया है, राजधानी से 400 किमी की औसत दूरी वाला ये इलाका उद्योग धंधों तथा अन्य निजी रोजगार के उपक्रमो की बजाय सरकारी नॉकरियो और योजनाओं से ही रोजगार या भुगतान प्राप्त करता है, राज्य सरकार के खिलाफ जा कर विरोधी दल को जनप्रतिनिधि चुनना यहां की जनता की परिपाटी नही रही है, महेंद्र कर्मा को भी 2003 के चुनावों में चुनने के पीछे उनकी दबंग कार्य शैली और तत्कालीन रमन सरकार से अपना एवं अपने लोगों का हर काम करा लेने की क्षमता के कारण था.

इस उप चुनाव में उन्ही की पत्नी को उम्मीदवार चुनने का कारण भी बताया जा रहा है कि जनता इसी मुद्दे को ज्यादा प्राथमिकता दे रही है कि सरकार से विकासकार्य तब ही हो पाएंगे जब स्थानीय विधायक सत्तारूढ़ दल का ही हो.

इस गणित से देखें तो चित्रकोट विधान सभा से आज 28 सितंबर को कांग्रेस के उम्मीदवार बनाये गए राजमन बेंजाम की जीत भी सुनिश्चित मानी जा सकती है.

जब भाजपा की सत्ता थी तो दंतेवाड़ा में कार्यकर्ताओं की फौज थी और जब सत्ता नही रही तो बेमेतरा के शिवरतन शर्मा को चुनाव संचालक बना कर इस आदिवासी बहुल इलाके में   बिठाना भी भाजपा का गलत निर्णय साबित हुआ, यह स्पष्ट हो गया कि प्रदेशाध्यक्ष आदिवासी समुदाय से बनाने के बाद भी भाजपा को उन पर भरोसा नही है ,अपने आजमाए हुए मैदानी नेताओं को उसने यहां नेतृत्व दिया और केदार कश्यप जैसे लंबे समय तक केबिनेट मंत्री रह चुके , हारे उम्मीदवारों को उनके निर्देश पर उप चुनाव में सहयोगी बनाया गया था, सत्ता नही रहने से स्थानीय कार्यकर्ताओ की कमी भी भाजपा को इस चुनाव में अंदरूनी स्थानों के लिये खलती रही.

 

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