विश्व बैंक का हमारी स्कूल व्यवस्था में औपचारिक रूप से दख़ल

रामकिशोर मेहता
पिछली सदी के नौवे दशक के पूर्व आज के मानव संसाधन विकास मंत्रालय का नाम शिक्षा मंत्रालय था । तब तक शायद हमारा देश एक वेल्फेयर स्टेट था जहाँ सरकार का काम भारत के नागरिकों के वेल्फेयर के लिए काम करना था। शिक्षा मंत्रालय का काम देश के नागरिकों शिक्षित, दीक्षित करना, उनके व्यक्तित्व का निर्माण करना , उनमें नैतिकता और मानवीयता का विकास करना था ; ताकि देश के नागरिक ज्ञान , विज्ञान, तकनीक व जीवन मूल्यों में समॄद्ध हो सकें । यह देश हम नागरिकों का है ।हम देश के मालिक है। हम संसाधन नहीं है। हम नागरिकों को किसके हित में , किस वैचारिकता के तहत संसाधन कहा जा रहा है। हमें इस मानसिकता में ढाला जा रहा है कि हम अपने आपको पूँजी पतियों के संसाधन (मिल, पैसा, मशीन आदि के समकक्ष) रूप में स्वीकार कर लें । यह बिलकुल वैसा ही है जैसे ‘ कन्या दान’ जिसमें कन्या को दान की वस्तु के रूप में स्वीकारा गया है।
हम संसाधन शब्द के पीछे छुपे अपने अवमूल्यन को अस्वीकार करतें हैं। इस शब्द को मंत्रालय के नाम से हटा दिया जाना चाहिए।
आपकी बात बिल्कुल सही है। हमारे केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय का नाम 1985 में बदला गया और उसे नया नाम दिया गया “मानव संसाधन विकास मंत्रालय”। उस समय राजीव गाँधी प्रधानमंत्री थे। ज़ाहिर है यह नाम मनुष्य को संसाधन (resource) बनाने की बात करता है, न कि मनुष्य को शिक्षा देने की। इन दोनों बातों में बहुत फर्क़ है। मनुष्य को संसाधन के रूप में देखने की बात विधिवत रूप से 1960 के दशक में शुरू हुई, जब पश्चिम में एक पूरी ‘Theory’ बनायी गयी इंसान को पूँजी (Capital) के रूप में देखने की। उससे पहले तक ‘संसाधन’ शब्द का प्रयोग हमारी प्राकृतिक संपदा और उद्योगों से बनने वाली नयी संपदा के लिए होता था। ‘मानव पूँजी’ (Human Capital) का सिद्धान्त यह है कि मनुष्य खुद एक पूँजी है, खुद एक संसाधन (resource) है। हालाँकि मनुष्य को शिक्षा देने के नाम पर उसे एक संसाधन बनाने वाली दृष्टि पहले भी रही है-उदाहरण के लिए, मैकाले ने कहा था कि हम ऐसी शिक्षा देना चाहते हैं, जो एक इण्डियन को ईस्ट इण्डिया कम्पनी का कारोबार बढ़ाने में मददगार बना दे-लेकिन इसे एक सिद्धान्त बना कर और फिर उसमें से एक व्यवहार निकालने की कोशिश 1960 के बाद शुरू हुई। इसी में से ‘Rate of Return’ की Theory निकली, जो अब विश्व बैंक (World Bank) इस्तेमाल करता है। इसका मतलब है कि मनुष्य को संसाधन (resource) बनाने में आप जो पैसा लगाएंगे, उससे कितना मुनाफ़ा (Profit) आपको वापस मिलेगा। उस मुनाफ़े की दर का हिसाब लगाना ही Rate of Return की Theory है। World Bank ने इस पर बहुत से पर्चे प्रकाशित किये हैं। अब हमारे अर्थशास्त्री भी उसी तरीके से बात करने लगे हैं। मसलन, वे कहते हैं कि Primary Education (पाँचवीं तक की शिक्षा) Secondary Education की बनिस्बत ज़्यादा मुनाफ़ा देती है और माध्यमिक शिक्षा (Secondary Education) उच्च शिक्षा (Higher Education) की तुलना में अधिक मुनाफ़ा देती है।
ये लोग शिक्षा के बारे में ऐसे बात करते हैं जैसे किसी व्यापार में लगाई जाने वाली लागत और उससे होने वाले मुनाफ़े के बारे में बात कर रहे हों। मसलन, मान लीजिए आपने Primary Education देने के लिए एक बच्चे पर एक रुपया लगाया, Secondary Education देने के लिए एक बच्चे पर पाँच रुपये लगाए और Higher Education देने के लिए एक बच्चे पर दस रुपये लगाए। फिर हिसाब लगाया कि एक रुपया लगाने पर कितना, पाँच रुपए लगाने पर कितना और दस रुपए लगाने पर कितना मुनाफ़ा मिला। अब मान लीजिये, अगर एक रुपया लगाने पर सौ रूपये, पाँच रुपये लगाने पर पचास रुपये और दस रुपये लगाने पर सिर्फ़ बीस या पच्चीस रूपये का मुनाफ़ा होता है, तो अर्थशास्त्री कहेगा कि Primary Education में ज़्यादा मुनाफ़ा है, इसलिए उस पर सरकार ज़्यादा ख़र्च करे और Secondary और Higher Education पर कम।
Primary Education से होने वाले मुनाफ़े का अनुपात वह इस तरह बताएगा कि जो बच्चा पहले कुछ नहीं जानता था, वह प्राथमिक शिक्षा पाकर थोड़ा पढ़ना-लिखना और हिसाब करना सीख गया। तो उसकी क्षमता एकदम बहुत ज़्यादा बढ़ गयी; जबकि उसकी तुलना में से Secondary और Higher Education में उसकी क्षमता धीरे-धीरे ओर बढ़ेगी। इसलिए सरकार जल्दी और ज़्यादा ‘return’ पाने के लिए प्राइमरी शिक्षा पर तो पैसा लगाए, पर Secondary और Higher Education पर न लगाए; उसे बाज़ार को सौंप दे। ये सब तरीके हैं शिक्षा को कारोबार में बदलने के, शिक्षा को मुनाफफ़े का ज़रिया बनाने के, और ये सब बातें जुडी हुई हैं शिक्षा मंत्रालय का नाम बदलने से और मानव संसाधन विकास मंत्रालय (Ministry of Human Resource and Development) के रूप में उसका नया नाम गढ़ने से।
शिक्षा को ‘मानव संसाधन का विकास’ मान लेना या बना देना बड़ी ख़तरनाक चीज़ है, क्योंकि जब शिक्षा का अर्थ सिर्फ़ यह होगा कि आप अर्थव्यवस्था के लिए उपयोगी बनें, तो शिक्षा का असली अर्थ और मक़सद जानने की आपसे न तो अपेक्षा होगी और न आप उसकी कोशिश करेंगे।
असली शिक्षा में इंसान को संसाधन मानकर उसका विकास करने औ इसके जरिये अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने की बात ही नहीं है। अगर शिक्षा से अर्थव्यवस्था मज़बूत होती है, तो अपने-आप एक तार्किक परिणति के रूप में होती है, न कि उसको मक़सद बनाकर। मनुष्य जब संसाधन (Resource) बनेगा तो किसी और के उपयोग में आने के लिए बनेगा। तब वो चाहेगा कि कोई मेरी क़ीमत लगाकर मुझे ख़रीद ले, मुझे कुछ पैसा मिल जाये और में उसके काम आ जाऊँ।
जब 1993 में विश्व बैंक ने हमारी स्कूल व्यवस्था में औपचारिक रूप से दख़ल देना शुरू किया, तब तक हम प्राइमरी शिक्षा पर लगभग 40 हज़ार करोड़ रूपये लगा रहे थे। प्राइमरी शिक्षा का मतलब है पहली से आठवीं कक्षा तक की शिक्षा जिसे अँग्रेज़ी में ‘Elementary Education’ कहते हैं। विश्व बैंक ने क्या दिया? पहले साल में 50 करोड़ रूपये, दूसरे साल में 100 करोड़ और तीसरे साल में 150 करोड़ रूपये। करते-करते सन् 2000 तक उसके द्वारा दिए जाने वाली रक़म सिर्फ़ 1000 करोड़ के आस-पास पहुँची, जबकि हम सन् 2000 में अपना 40 हज़ार करोड़ रूपये से ज़्यादा ख़र्च कर रहे थे। लेकिन विश्व बैंक ने 1000 करोड़ रुपया इस चालाकी से दिया कि वह हमारी शिक्षा सम्बन्धी सोच पर, शिक्षा की नीति पर और शिक्षा की पूरी व्यवस्था पर अपना नियंत्रण स्थापित कर ले। यह काम उसने 6-7 सालों में यानी सन् 2000 तक आते-आते कर लिया। जिस शिक्षा व्यवस्था पर हम अपना 40 हज़ार करोड़ रुपया ख़र्च कर रहे थे, उस पर विश्व बैंक 1000 करोड़ रुपये देकर हावी हो गया! और यह 1000 करोड़ भी एक तरह से हमारा ही था, क्योंकि उसमें से अधिकांश तो हम पर क़र्ज़ है-लम्बे समय के लिए क़र्ज़-जिसे हमारे बच्चे विश्व बैंक को चुका रहे हैं और फिर वह एक हज़ार करोड़ रुपया कहाँ ख़र्च हुआ? उसमें से बहुत सारा तो विश्व बैंक के विशेषज्ञों और भारतीय बुद्धिजीवियों को अच्छा ख़ासा पैसा देने में ख़र्च हुआ। वह भी क़र्ज़ है, जिसे हमारी अगली पीढ़ी चुकायेगी। इस तरह यह पैसा भी विश्व बैंक का नहीं हमारा पैसा है।
अब शिक्षा की नीतियां भारतीय संसद नहीं बनाती, विश्व बैंक बनाता है। नीतियाँ वहाँ से बनकर आती हैं और भारत की संसद उन पर बिना सवाल उठाये, बिना बहस कराये, उन्हें स्वीकार कर लेती है।
आजकल शिक्षा को इंसानी विकास से नहीं, बल्कि नौकरी-चाकरी कर सकने की योग्यता से जोड़कर देखा जाता है और ऊँची नौकरी दिला सकने वाली शिक्षा को ही अच्छी शिक्षा माना जाता है। इस तरह शिक्षा एक बिकाऊ माल बन गयी है और शिक्षण संस्थान उस माल को बेचने वाली दुकानें। जो लोग ऊँचे दाम दे सकते हैं, वे अपने बच्चों के लिए “बढ़िया” शिक्षा (या माल) ख़रीद सकते हैं और बाक़ी लोग अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार घटिया दर्जे की शिक्षा (यानी माल) ख़रीदने को या सरकारी स्कूलों में दान की तरह दी जाने वाली शिक्षा प्राप्त करने पर मजबूर हैं।
यूरोप और अमरीका में प्राइवेट शिक्षा संस्थाओं पर भी सरकार का नियंत्रण रहता है, जबकि तीसरी दुनिया के देशों से कहा जाता है कि शिक्षा व्यवस्था पर से सरकार का नियंत्रण हटाया जाए। भारत सरकार से कहा जा रहा है कि वह अपनी शिक्षा सम्बन्धी ज़िम्मेदारियों से पल्ला झाड़ ले। अमरीका की सरकार से कोई यह बात नहीं कहता जबकि अमरीका में आज भी लगभग पूरी स्कूल व्यवस्था सरकार के पैसों से चलती है और उस पर सरकार का पूरा नियंत्रण है। स्कूल व्यवस्था पर ही नहीं, वहाँ के कॉलेजों और विश्विद्यालयों की व्यवस्था पर भी अधिकांश पैसा सरकार ही ख़र्च करती है और उनको ही नहीं, उच्च शिक्षा की प्राइवेट संस्थाओं को भी अपने नियंत्रण में रखती है। सवाल उठता है कि जो चीज़ अमरीका में सही है, वही चीज़ भारत में सही क्यों नहीं है? अमरीका में शिक्षा राज्य की ज़िम्मेदारी है तो भारत में राज्य से क्यों कहा जा रहा है कि वह अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ ले? जर्मनी, फ्राँस, और कनाडा में देखें तो वह उच्च शिक्षा की 75% संस्थाएं शत-प्रतिशत सरकारी पैसों से चलती हैं और उन पर सरकार का पूरा नियंत्रण रहता है। यह दबाव तो भारत जैसे ग़रीब मुल्कों पर ही डाला जा रहा है कि उच्च शिक्षा बाजार को सौंप दें।
हमारे यहाँ के निजीकरण में एक बात और और भी है। वह यह की पूँजीपतियों पर तो राज्य का कोई नियंत्रण न हो, लेकिन उनके लिए काम करने वाले लोग अपनी माँगों के लिए आन्दोलन करें, तो फौरन राज्य से कहा जाता है वह उन्हें नियंत्रित करे! यही तो खेल है पूँजीवाद का! पूँजीपति वर्ग राज्य को अपने हित में इस्तेमाल करता है और उस पर अपना पूरा नियंत्रण रखता है। वही वर्ग, जो शिक्षा के निजीकरण की माँग करता है और प्राइवेट शिक्षा संस्थाओं पर से राज्य का नियंत्रण बिलकुल हटा देना चाहता है, जब उद्योग, व्यापार, श्रम आदि से सम्बन्धित नीतियों की बात आती है तो राज्य को बीच में ले आता है। किसान, मज़दूर और दूसरे तमाम मेहनतकश लोगों को दबाकर रखने में उसे राज्य की ज़रूरत होती है-जन-विरोधी क़ानून बनवाने के लिए, जनता का दमन करने के लिए।

:- ये विमर्श बताता है कि , नीतियों को ले कर शिक्षा व्यवस्था के पतन की स्थितियां कितनी भयावह हैं, आप भी जानें, जागरूक हों।

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