हिंदी साहित्य के यायावर , प्रखर समीक्षक की जीवन संघर्षो की गाथा , आचार्य विश्वनाथ त्रिपाठी की दृष्टि में

हजारी प्रसाद द्विवेदी जी जितने लोकप्रिय उपन्यासकार हैं, उतने ही लोकप्रिय निबंधकार और आलोचक।आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद के आलोचकों में उनका प्रमुख स्थान है।वे आलोचना में रामचन्द्र शुक्ल के पूरक हैं। हिंदी साहित्य के इतिहास के कई पहलू जो शुक्ल जी से छूट गया था, या छोड़ दिया गया था, या जिनको कम महत्व दिया गया था, उनकी भरपाई द्विवेदी जी के लेखन से होती है।यों दोनों में सर्वत्र असहमति के बिंदु नही हैं, बल्कि बलाघात का अंतर है, अथवा पूरकता है।दुर्भाग्य से दोनों के बीच के असहमति के बिंदुओं को अधिक रेखाँकित किया जाता रहा है, सहमति को कम।

कहा जा चुका है कि द्विवेदी जी अत्यंत लोकप्रिय उपन्यासकार और निबन्ध लेखक भी हैं। ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ जैसे उपन्यास और ‘अशोक के फूल’ जैसा निबन्ध को कौन नही जानता?उनकी अपनी विशिष्ट शैली है जो पाठक को अपने आत्मीयता में बांध लेती है।उनके कहन का ढंग ऐसा है कि पाठक उनके विद्वता से आतंकित नही होता वरन वह महसूसता है कि लेखक उनके ज्ञान स्तर पर आकर उन्हें बातें समझा रहा है। जाहिर है ऐसे लेखक के जीवन को जानने की उसके पाठको में सहज जिज्ञासा होती है।द्विवेदी जी के जीवन और रचना के बारे में पत्रिकाओ के विशेषांक आते रहे है;एकाक संक्षिप्त विवरणात्मक जीवनी भी प्रकाशित हुई है, मगर उन पर अभी तक की श्रेष्ठ किताब नामवर जी द्वारा रचित ‘दूसरी परम्परा की खोज’ को माना जाता है।नामवर जी उनके शिष्य रहे हैं। मगर यह किताब मुख्यतःद्विवेदी जी के रचनाधर्मिता और सरोकार पर केंद्रित है; जीवन व्यापार के विवरणों पर नही।

‘व्योमकेश दरवेश’ के रचयिता चर्चित आलोचक श्री विश्वनाथ त्रिपाठी हैं। त्रिपाठी जी द्विवेदी जी के प्रिय शिष्य रहे हैं तथा उनके जीवन को करीब से देखा है। अध्ययन के दौरान और उसके बाद भी (लगभग बीस वर्ष)वे द्विवेदी जी के परिवार के सदस्य की तरह रहे हैं, इसलिए उनकी जीवनी लिखने का उन्हें बेहतर अवसर और प्रेरणा मिली है। इस नज़दीकी में गुरू के प्रति प्रेंम है, अनुराग है; त्रिपाठी जी ने लिखा भी है द्विवेदी जी पर लिखते समय उनके लिए ‘तटस्थ’ हो पाना संभव नही है।जीवनी पढ़ने से इस बात का अंदाजा हो जाता है कि त्रिपाठी जी ने इसके लिए काफी मेहनत की है;और जहां चीजे पूरी तरह स्पष्ट नही हैं, वहां उन्होंने विनम्रता पूर्वक इसका उल्लेख किया है।त्रिपाठी जी समर्थ आलोचक हैं, इसलिए जीवनी लिखते समय उनका आलोचक मन बराबर काम करता रहा है।वे द्विवेदी जी के व्यक्तित्व का विश्लेषण करते-करते कब उनके साहित्य से उद्धरण देने लगते हैं, पता नही चलता। प्रसंगवश उन बहसों जिक्र भी है जो द्विवेदी जी के चिंतन से जुड़े रहे हैं।

पुस्तक में भूमिका के अलावा सात अध्याय हैं (1) बचपन, बसरिकापुर और काशी (2) अथेयं विश्वभारती (3) काशी विश्वविद्यालय: देखी तुम्हारी कासी (4) आकाश धर्मा का विस्थापन (5)गाढ़े का साथी पंजाब (5) फिर बैतलवा उसी डार पर(6) व्योमकेश दरवेश चलो अब (7) रचना और रचनाकार। अध्यायों के नाम से स्पष्ट है कि ये द्विवेदी जी के जीवन के अलग-अलग पड़ाव हैं।यों उनके जीवन से हिंदी साहित्य के पाठक अनभिज्ञ नही रहे हैं, मगर समग्रता में यहां पहली बार सूक्ष्मता से उनका जीवन-संघर्ष व्यक्त हुआ है। मसलन कैसे शान्तिनिकेतन से काशी विश्वविद्यालय में उनकी नियुक्ति का विरोध और अभियान चला जिससे अंततः उनको वहां से निष्कासित किया गया; इसके बारे में लगभग सम्पूर्ण जानकारी यहाँ मिलती है, अन्यथा पाठक की जिज्ञासा का शमन नही हो पाता था।

द्विवेदी जी पुरबिया ब्राम्हण परिवार से थे(जन्म 1907 ओझावलिया, बलिया)।प्रारम्भिक शिक्षा गांव में ही हुई। उच्च शिक्षा काशी विश्वविद्यालय में ज्योतिषी विषय में पूरी की। पढ़ाई में तेज थे लेकिन आर्थिक स्थिति अच्छी नही थी,इसलिए कई बार विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। एक बार फीस के पैसे की जुगाड़ के लिए कथा वाचन भी करना पड़ा।

रोजगार की तलाश शान्तिनिकेतन में पूरी हुई। शान्तिनिकेतन रवीन्द्रनाथ टैगोर का अभिनव पहल था जहाँ प्रकृति के सानिध्य में विद्यार्थियों को सहज ढंग से शिक्षा दी जाती थी।यहां जाति,धर्म, भाषा का कोई बंधन नही था;योग्यता की कद्र थी;इसलिए विद्वतजन यहां आकर्षित होते रहें।द्विवेदी जी का यहां आना उनके जीवन और रचनाकर्म के लिए महत्वपूर्ण साबित हुआ। यहां गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर, क्षितिमोहन सेन, नंदलाल बोस, दीनबंधु एंड्रूज, रामकिंकर, विधुशेखर भट्टाचार्य, मौलाना आदामुद्दीन जैसों का साहचर्य मिला जिससे उनके रचनात्मकता को गति मिली। यहीं रहते हुए उन्होनें ‘सुर साहित्य,’हिंदी साहित्य की भूमिका ‘प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद’ ‘कबीर’, ‘वाणभट्ट की आत्मकथा’ ‘अशोक के फूल’ ‘नाथ सम्प्रदाय’ जैसे श्रेष्ठ कृतियाँ सृजित किया।यहीं रहते हिंदी भवन की परिकल्पना की और उसे कार्यरूप दिया।देखा जाय तो शान्तिनिकेतन का उनका कार्यकाल(1929 से 1950) उनके लिए सर्वाधिक अनुकूल रहा। चाहे रचनात्मक दृष्टि हो या दुनियादारी की दृष्टि से।

1950 में द्विवेदी जी काशी विश्वविद्यालय आयें।काशी में पढ़े थे ; जन्मभूमि के करीब, हिंदी पट्टी का तत्कालीन समय मे सर्वाधिक महत्वपूर्ण केंद्र।काम करने का बेहतर अवसर। मन मे आकर्षण था, मगर शांतिनेकतन को भी छोड़ना आसान न था;वहां जीवन को स्थिरता मिली थी, काम करने का वातावरण मिला था। फिर भी वे काशी आएं। विश्वविद्यालय में उनकी नियुक्ति उनके विद्वता के कारण हुई थी, मगर कुछ लोग उनकी नियुक्ति से खुश नही थे। इसके कुछ वास्तविक और कुछ कल्पित कारण थें। वास्तविक यह कि उनके वरिष्ठता के बरक्स बिना उन्हें पूर्णतः विश्वास में लिए द्विवेदी जी की नियुक्ति की गई थी। इसमे कुछ तकनीकी खामियां भी थी। कल्पित यह कि वे द्विवेदी जी के लोकप्रियता को स्वीकार नही कर पाते थे और उनसे प्रतिस्पर्धात्मक भाव रखते थे। रामचन्द्र शुक्ल जी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष रह चुके थे, वहां उनका नाम था। द्विवेदी जी का उनकी कुछ स्थापनाओं से असहमति थी, खासकर भक्ति आंदोलन का उदय और निर्गुण भक्ति के मूल्यांकन को लेकर। इस असहमति को आड़ लेकर यह दुष्प्रचारित किया जाता रहा कि वे शुक्ल जी के विरोधी हैं। द्विवेदी जी इस दुष्प्रचार को समझते थे, मगर उन्होंने सब से सम्मान पूर्वक व्यवहार किया और सब को साथ लेने का प्रयास किया। यही कारण है कि वे वहां दस वर्ष तक (1950 से1960)कार्य कर सके। अंततः उनके विरोधी उनको हटाने में सफल रहें। मुदलियार कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर उन्हें हटाया गया।अवश्य उनसे कुछ तकनीकी चुकें हुई थी मगर बदनीयती कहीं नही थी।मगर काशी में ही उनके शिष्यों-छात्रों की एक पीढ़ी तैयार हुई जिनमे नामवर सिंह, काशीनाथ सिंह, नित्यानंद तिवारी, विश्वनाथ त्रिपाठी आदि हैं, जिन्होंने आगे चलकर साहित्य में उल्लेखनीय कार्य किया। इससे भी उनकी लोकप्रियता और अध्यापन क्षमता का अंदाजा लगाया जा सकता है। त्रिपाठी जी ने उनके अध्यापन शैली और कौशल का चित्रण किया है।काशी में रहते हुए उन्होंने हिंदी साहित्य का आदिकाल, हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास, मध्यकालीन साधना, मेघदूत एक पुरानी कहानी, आलोकपर्व, नाथ-सिद्धों की बानियाँ(सम्पादित), संदेश रासक(सं.), चारुचन्द्रलेख, कुटज, नाथ सिद्धों की बानियाँ आदि की रचना की।

द्विवेदी जी काशी से ‘विस्थापन’ से व्यथित थें।पद का उनके लिए केवल अकादमिक महत्व नही था;वे पारिवारिक व्यक्ति भी थें, जिसकी अपनी जिम्मदरियाँ थी।मगर शीघ्र 1960 में ही चंडीगढ़ विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष और प्रोफेसर नियुक्त हो गए। त्रिपाठी जी के अनुसार उनकी इस नियुक्ति में डॉ. इंद्रनाथ मदान, ए. सी.जोशी, राजेन्द्र बाबू, डॉ नगेंद्र की महत्वपूर्ण भूमिका रही।चंडीगढ़ में भी उन्हें अनुकूल वातावरण मिला और उन्होंने निश्चिंतता से कार्य किया। ‘कालिदास की लालित्य योजना’ , ‘सहज साधना’ और ‘पुनर्नवा’ यहीं रहते लिखी गई। द्विवेदी जी के रहने से चंडीगढ़ हिंदी साहित्य के लिए चर्चित रहा। शेष भारत के विद्वान यहां आने लगें। द्विवेदी जी 1960 से 67 तक चंडीगढ़ में रहें। 67 में साठ वर्ष पूरे होने पर उस समय के नियमानुसार उन्हें सेवानिवृत्त होना था। इसी दौरान काशी विश्वविद्यालय से पुनः उन्हें निमन्त्रण मिला।

द्विवेदी जी पुनः काशी आएं। उनकी नियुक्ति उपकुलपति जोशी जी ने विशेषाधिकार का प्रयोग करके किया।इस बार पुनः विरोध होने से वे विभागाध्यक्ष नही बन पाए और उन्हें रेक्टर बनाया गया।मगर उनके विरोधी इतने पर भी शांत न हुए,उनका विरोध जारी रहा। इस सम्बंध में त्रिपाठी जी ने लिखा है “दलित द्राक्षा के समान अशेषरस अर्पित कर देने की बात करने वाले द्विवेदी जी को कानून या वैधानिकता समझ मे नही आती थी। न वैसी ट्रेनिंग थी न रुचि। अमराई के नीचे पढ़ाने का संस्कार जकड़े रहा। विरोधी कानूनी दाँव-पेच में माहिर थे। विद्या ,यश में नही पछाड़ पाओगे, वैधानिकता की बात करो”।रेक्टर का पद स्वीकार करना उनके प्रतिष्ठा के अनुकूल नही था,फिर भी उसे उन्होंने स्वीकार कर लिया।त्रिपाठी जी के अनुसार इसे उन्हीने आर्थिक जरूरतों की पूर्ति के कारण स्वीकार किया। अभी तक वे पारिवारिक दायित्वों से मुक्त नही हो सके थे।लेकिन रेक्टर का पद उन्हें फला नही। गलतियां होने लगी, वे जोशी जी के गलतियों की सजा भुगतने लगे। सवाल यह है कि वे विरोध क्यों नही करते थे? त्रिपाठी जी कई जगहों और कई उदाहरणों से उनके व्यक्तित्त्व के इस पहलू को रेखांकित किया है। वे लोगों के ‘अहसान’ से दब जाते थे।कोई भी उन्हें थोड़ी भी मदद की हो, उसका विरोध नही कर पाते थे। जाहिर है उसका नुकसान उन्हें उठाना पड़ता था। वे प्रेम करना जानते थे, मदद करना जानते थे मगर शायद इस बात पर ध्यान नही देते थे कि गलत का विरोध करना भी दूसरों के प्रति प्रेम से पैदा होता है।अंततः जोशी की के प्रति आक्रोश से उपजे छात्र आंदोलन से उन्हें भी रेक्टर पद से हटना पड़ा।

1972 में उन्होंने उत्तर प्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी के निदेशक का पद ग्रहण किया।इस बीच वे काशी विश्वविद्यालय में व्याकरण-योजना के निदेशक का काम भी देखते रहें। मगर त्रिपाठी जी के अनुसार ये दोनों पद उनकी गरिमा के अनुकूल नही थे। 70 वर्ष की आयु में प्रशासकीय सरकारी सेवा उनकी रुचि और व्यक्तित्व के मेल में नही थी। हालांकि द्विवेदी जी ने अच्छे लेखकों से लिखवाने और प्रकाशित करवाने में काफी रुचि ली।इस बीच उनके स्वास्थ्य में में लगातार गिरावट आने लगी। अंततः 19 मई 1979 ई. को उनका निधन हो गया।

कहा जा चुका है कि लेखक का द्विवेदी जी के परिवार से लंबा और घरेलू सम्बन्ध रहा है, इसलिए द्विवेदी जी के जीवन के साथ-साथ लेखक के भी जीवन संघर्ष की झलक मिल जाती है। त्रिपाठी जी अपने अध्ययन काल मे आर्थिक रूप से सक्षम नही थे, कई बार खाने के भी लाले पड़ जाते थे। ऐसे में द्विवेदी जी जैसे सह्रदय गुरु का सानिध्य मिलने से उनसे काफी सहयोग मिला। यह सहयोग ज्ञान, भावनात्मक, आर्थिक सभी दृष्टि से था। यहां तक कि नौकरी लगाने में भी। ऐसे में लेखक का उनके प्रति लगाव स्वाभविक है। इसे त्रिपाठी जी ने स्वीकार भी किया है।इस सम्बंध में जीवनी में कई मार्मिक प्रसंग भी हैं। बावजूद इसके उन्होंने भरसक घटनाओं में वस्तुनिष्ठता लाने का प्रयास किया है, और द्विवेदी जी के व्यक्तित्व ‘कमजोर’ पक्षों को भी उजागर किया है। खासकर उनके अतिरिक्त असुरक्षाबोध,निर्णय लेने में असमंजसता और अतिरिक्त भावुकता आदि, मगर ‘कमियां’ किसमे नही होती? व्यक्ति की उपलब्धि को उसके अंतर्विरोधों के साथ ही देखा जाना चाहिए।

  1. जीवनी की महत्वपूर्ण उपलब्धि यह भी है कि आखिर में ‘रचना और रचनाकार’ शीर्षक से द्विवेदी जी के समग्र साहित्य की मूलधारा का विवेचन किया गया है। द्विवेदी जी मनुष्य की जय यात्रा में विश्वास रखते हैं; उनके निबंध, उपन्यास, आलोचना मनुष्यता और प्रेम की तलाश है, जो मनुष्य मात्र में भेदभाव नही करता। उनका ध्यान समाज के उन उपेक्षित वर्गों की तरफ जाता है, जिन्हें अक्सर नज़रअंदाज किया जाता रहा है। वे इतिहास और परम्परा में उन वर्गों के योगदान को रेखांकित करने का प्रयास करते हैं, और इस क्रम में अन्य वर्गों के प्रति घृणा भाव नही रखते।उनमे विनम्रता और दृढ़ता का अद्भुत मेल है, जो निश्चित रूप से उन पर कबीर का प्रभाव है।यह अकारण नही की कबीर पर उनके किये  गए काम   को   श्रेष्ठ माना जाता है।

द्विवेदी जी का यह पुण्य स्मरण पाठकों में लोकप्रिय हुआ है; यह द्विवेदी जी के लोकप्रियता और उनके प्रति पाठकों का प्रेम तो है ही त्रिपाठी जी के लेखन शैली का भी इसमें योगदान है। जीवनी संस्मरणात्मक रूप में सरस गद्य है। बीच- बीच मे द्विवेदी जी के साहित्य के संदर्भों को जोड़ते जाने से यह और रोचक हो जाता है।प्रसंगवश जगह-जगह हास्य विनोद भी है, खासकर काशी के तत्कालीन लेखक मंडल के बीच का। आखिर में द्विवेदी जी के साहित्य का मूल्यांकन एक उपलब्धि है जो ‘दूसरी परंपरा की खोज ‘के बाद समग्रता में पहली बार हुआ है।

कृति- व्योमकेश दरवेश: आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का पुण्य स्मरण(जीवनी)
लेखक- डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी
प्रकाशन- राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
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अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा (छ. ग.)
मो. 989372832

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