स्व देवदास बंजारे

पंथी नृत्य गीत छत्तीसगढ़ की बड़ी सांस्कृतिक पहचान है। यह गुरु घसीदास जी की शिक्षाओं का नृत्य के माध्यम से मंचीय प्रदर्शन है। इस नृत्य में समर्पण और श्रद्धा के साथ गति और ऊर्जा का समन्वय अद्भुत है। छत्तीसगढ़ी लोक का यह ऊर्जस्वित प्रकाश बेमिसाल है। इस ऊर्जा को चरम पर पहुँचानेवाले पंथी नर्तक का नाम है देवदास बंजारे।

देवदास बंजारे का जन्म 1 जनवरी 1947 को सांकरा (धमतरी) में हुआ था। तब उनका नाम जेठू था। पर उनका जीवन ग्राम उमदा (भिलाई) की गरीबी, विस्थापन और अभावों की माटी में विकसित हुआ और यहां उनका नाम हुआ देवदास। बचपन मे ही नाच में रुचि रखनेवाले देवदास खेलकूद और पढ़ाई में अच्छे थे। यह सब वे बनिहारी (मजदूरी) करके निबाह रहे थे। वे दौड़ में प्रदेश चैंपियन थे। कबड्डी के भी जबर खिलाड़ी थे पर कबड्डी ने ही 1969 में उन्हें माड़ी (घुटनो) पर चोट देकर मैदान से बाहर कर दिया!

पर जिंदगी को कुछ और करवाना था। गांव में लाहँगाड़ूमर गांव का पंथी दल आया हुआ था। जब नृत्य शुरू हुआ, मांदर की दधनिंग… दधनिंग के साथ बोल फिजा में उभर उठे – “बंसूला के छोले छांचे, बिंधना के बेधे रे!” फिर आगे एक दूसरा गीत आया – “ये माटी के काया, ये माटी के चोला, के दिन रहिबे बता दे मोला…।” पंथी की इस भावप्रवणता को देख देवदास की आंख से आंसू बह निकले। किसी साथी ने कहा, “अब तो बने हो गेस भइया, काबर रोथस?” देवदास ने कहा – “भाई, जाना तो है एक दिन मगर कुछ ऐसा करो कि जाने पर भी रह जाये!”

और फिर जो हुआ, वह इतिहास बन गया। पारा (मुहल्ले) के लड़कों को लेकर उन्होंने अपना पंथी दल तैयार किया और आसपास के गांवों, कस्बों में अपनी प्रस्तुतियां देनी शुरू की। जब 1972 में गिरौदपुरी मेले में उनकी टीम ने जो प्रदर्शन किया तो चिहुर (हिप हिप हुर्रे!) उड़ गया! मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल ने स्वर्णपदक दिया। फिर 26 जनवरी 1975 को दिल्ली में राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के सामने प्रदर्शन और स्वर्णपदक। फिर जब वे छत्तीसगढ़ लौटे तो साथ मिला, सुप्रसिद्ध नाट्य निर्देशक हबीब तनवीर का। अपने प्रसिद्ध नाटक ‘चरणदास चोर’ में देवदास बंजारे के दल को उन्होंने शामिल किया और यात्रा शुरू हुई यूरोप, ब्रिटेन और कनाडा की। यह पहली बार था कि छत्तीसगढ़ी लोक का विश्वव्यापीकरण हो रहा था। उन्होंने दुनिया के चौंसठ देशों में अपनी प्रस्तुतियों से लोगों को दीवाना बनाया।

सांवला दुबला पतला यह नौजवान जब अपनी झुलुप (लंबे बाल) को छरिया कर (लहरा कर) नाचता था तो दर्शक झूम उठते थे। देवदास बंजारे ने ही पंथी नृत्य में पिरामिड बनाने की कला को सम्मिलित किया है। उन्होंने पंथी नृत्य में नई बातें, कला कौशल को विकसित किया। उनके प्रदर्शन में गुरु के प्रति समर्पण और श्रद्धा देखते ही बनती थी। यह भावप्रणव अधिक होता था। वे कहते थे- “हे गुरु, तुम्हे कौन सी आरुग (शुद्ध) चीज अर्पित करूँ। मैं फूल चढ़ाना चाहता हूँ पर उसे भौंरे ने जूठा कर दिया है। तुम्हे दूध चढ़ाऊँ तो उसे बछड़े ने जुठार दिया है। अन्न चढ़ाऊँ तो कीड़े से जूठा कर दिया है। जल को भी जल के कीड़ों ने जुठार दिया है। अब तो सिर्फ एक ही आरुग चीज है जो अनछुआ है, वह है मेरा हृदय… यह आपके चरणों मे समर्पित है, इसे स्वीकार करें।” मुझे नही लगता कि गुरु के लिए समर्पण का भाव इससे उच्च हो सकता है।

गुरु घासीदास जी के संदेशों को पंथी नृत्य गीत से दुनिया तक पहुँचानेवाले देवदास बंजारे का आज ही के दिन 26 अगस्त 2005 को सड़क दुर्घटना में निधन हो गया था। देवदास बंजारे छत्तीसगढ़ की माटी की मोहक सुगंध हैं। आज उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें नमन.

(परदेशी राम वर्मा की किताब ‘आरुग फूल’ पढ़कर लिखा गया लेख)

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