ऐसे समय में जब अन्य वस्तुओ और सेवाओ के साथ साथ बढ़ती महंगाई न्यायिक सेवा हासिल करने में भी आम जनता के लिए एक बहुत बड़ा सवाल है , उसके नागरिक अधिकारों को बाधित करने के लिए पुलिस का बेजा इस्तेमाल इन 10 – 20 वर्षों में बढ़ा है.

देश के नागरिकों के स्वतंत्रता के अधिकार को और मज़बूत बनाने के लिए 1978 में लाया गया संविधान का 44वां संशोधन आज 43 साल बाद भी पूर्ण रुप से लागू नहीं हो सका है। संशोधन की धारा तीन को प्रभावी करने के लिए अब तक कांग्रेस, बीजेपी समेत किसी भी सरकार ने नोटिफ़िकेशन ही जारी नहीं किया है। इस संशोधन में ये कहा गया है कि प्रिवेंटिव डिटेंशन या एहतियातन हिरासत के क़ानून के तहत किसी भी व्यक्ति को दो महीने से ज़्यादा हिरासत में रखने की अनुमति तब तक नहीं दी जा सकती, जब तक एक एडवाइज़री या सलाहकार बोर्ड ऐसा करने के लिए ठोस और पर्याप्त कारण न दे।

अब भारत के 100 रिटायर्ड प्रशासनिक अधिकारियों ने केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू को एक खुली चिट्ठी लिखकर कहा है कि सरकार इस धारा को प्रभावी बनाने की तारीख़ तय करे। चिट्टी में कहा गया है कि इस अधिसूचना को जारी करने में 43 वर्षों की देरी की वजह से मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन हुआ है।

बता दें कि सामान्य तौर पर जब किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है तो उसे संविधान के अनुच्छेद 22 के अनुसार गिरफ्तारी के कारणों के बारे में जल्द से जल्द सूचित किए बिना हिरासत में नहीं रखा जा सकता और न ही उसे परामर्श करने और बचाव करने के अधिकार से वंचित किया जा सकता है। लेकिन एहतियातन हिरासत में पुलिस किसी भी व्यक्ति को इस शक के आधार पर हिरासत में ले सकती है कि वो अपराध करने वाला है। इसके लिए पुलिस को न तो कारण बताने की ज़रूरत है, न ही उसे वकील से परामर्श करने देने की ज़रूरत है और न ही मैजिस्ट्रेट के सामने 24 घंटे में पेश करने की ज़रूरत होती है।

चिट्ठी लिखने वालों का किसी भी राजनीतिक दल से कोई संबंध नहीं है

खुली चिट्ठी लिखने वाले सभी सेवानिवृत अधिकारी कॉन्स्टिटूशन कंडक्ट ग्रुप के सदस्य हैं और अपनी चिट्ठी में उन्होंने लिखा है कि उनका “किसी भी राजनीतिक दल से कोई संबंध नहीं है” लेकिन वे भारत के संविधान के अनुरूप निष्पक्षता, तटस्थता और प्रतिबद्धता में विश्वास करते हैं।

चिट्ठी पर दस्तख़त करने वालों में पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन, इंटेलिजेंस ब्यूरो और रॉ के पूर्व वरिष्ठ अधिकारी एएस दुलत, पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह, प्रधानमंत्री के पूर्व सलाहकार टीकेए नायर और पूर्व गृह सचिव जीके पिल्लई जैसे बड़े नाम शामिल हैं।

दरअसल, प्रिवेंटिव डिटेंशन के दुरुपयोग को रोकने के इरादे से संविधान संशोधन में ये भी कहा गया है कि एडवाइजरी बोर्ड का अध्यक्ष हाई कोर्ट का एक सेवारत न्यायाधीश होगा और इस बोर्ड का गठन उस उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सिफ़ारिशों के अनुसार किया जाएगा। संशोधन के अनुसार इस बोर्ड के अन्य सदस्य किसी भी उच्च न्यायालय के सेवारत या सेवानिवृत्त न्यायाधीश होंगे।

इन सेवानिवृत अधिकारियों का कहना है कि “इस प्रकार यह प्रावधान सरकारी दुरुपयोग की चपेट में है, जो बोर्ड में तटस्थ, स्वतंत्र सदस्यों को नियुक्त करने के बजाय, अपनी पसंद के व्यक्तियों को नियुक्त कर सकते हैं, जिनमें सत्ता या राजनीतिक दल के प्रति निष्ठा रखने वाले भी शामिल हैं”.

दरअसल, प्रिवेंटिव डिटेंशन के दुरुपयोग को रोकने के इरादे से संविधान संशोधन में ये भी कहा गया है कि एडवाइजरी बोर्ड का अध्यक्ष हाई कोर्ट का एक सेवारत न्यायाधीश होगा और इस बोर्ड का गठन उस उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सिफ़ारिशों के अनुसार किया जाएगा। संशोधन के अनुसार इस बोर्ड के अन्य सदस्य किसी भी उच्च न्यायालय के सेवारत या सेवानिवृत्त न्यायाधीश होंगे।

क़ानून मंत्री को लिखी अपनी चिट्ठी में इस लोगों ने कहा है कि वर्तमान में कोई भी वकील जो किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश बनने के योग्य है, उसे सलाहकार बोर्ड में नियुक्त किया जा सकता है और इसका मतलब यह है कि दस वर्ष या उससे अधिक अनुभव वाला कोई भी वकील सलाहकार बोर्ड में बैठ सकता है।

एहतियातन हिरासत केवल सार्वजनिक अव्यवस्था को रोकने के लिए है

गौरतलब है कि इसी साल अगस्त में एक मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि प्रिवेंटिव डिटेंशन या एहतियातन हिरासत “केवल सार्वजनिक अव्यवस्था को रोकने के लिए एक आवश्यक बुराई है। साथ ही, अदालत ने कहा था कि सरकार को क़ानून-व्यवस्था की समस्याओं से निपटने के लिए मनमाने ढंग से एहतियातन हिरासत का सहारा नहीं लेना चाहिए और ऐसी समस्याओं को सामान्य क़ानूनों से निपटाया जा सकता है।

सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा था कि नागरिक की स्वतंत्रता एक सबसे महत्वपूर्ण अधिकार है जिसे हमारे पूर्वजों ने लंबे, ऐतिहासिक और कठिन संघर्षों के बाद जीता है और एहतियातन हिरासत की सरकार की शक्ति को बहुत सीमित होनी चाहिए।

आंकड़ों की बात करें तो राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2020 में कुल 89,405 लोगों को विभिन्न क़ानूनों के तहत प्रिवेंटिव डिटेंशन में रखा गया। इसमें से 68,077 व्यक्तियों को एक महीने में, 2,651 व्यक्तियों को एक से तीन महीने के बीच और 4,150 व्यक्तियों को तीन से छह महीने के बीच एडवाइजरी बोर्ड की सिफ़ारिश पर रिहा किया गया. फिर भी वर्ष के अंत में 14,527 व्यक्ति फिर भी प्रिवेंटिव डिटेंशन में रहे।

अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद से सैकड़ों लोगों को काश्मीर में  एहतियातन हिरासत में रखा जा चुका है

(न्यूज क्लिक से साभार )

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